युगों से भारतीय समाज मे चले आ रहे सामाजिक विभेद के दोषों को दूर करने तथा समाज मे व्याप्त ऊँच-नीच की भावना को समाप्त करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए एक ऐसे मानक का निर्धारण करना चाहा परिणामस्वरूप ऐसे वर्षों के सदस्यों को विशेष सुविधा देकर उनकी हीनभावना और पिछड़ेपन को दूर किया जा सके।
इस पष्ठभूमि में अनुच्छेद 340 द्वारा प्रदत्त अधिकार का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने काका कालेलकर की अध्यक्षता में पहले पिछड़ा वर्ग आयोग की नियुक्ति की।
काका कालेलकर आयोग (Kaka Kalelkar commission)
काका कालेलकर आयोग का गठन राष्ट्रपति द्वारा 29 जनवरी1953 को किया गया। आयोग के द्वारा अपनी रिपोर्ट सन 1955 में प्रस्तुत की गई। आयोग को उन मानकों के निर्धारण का दायित्व सौंपा गया था जिनके आधार पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े उन वर्गों की पहचान की जा सके जिन्हें पिछड़े वर्ग में शामिल किया जा सके और पिछड़े वर्गों को एक सूची तैयार की जा सके।
आयोग को पिछड़े वर्ग की कठिनाइयों और समस्याओं की पहचान का दायित्व भी सौंपा गया। आयोग ने इस दायित्व को पूरा करने में 2 वर्ष का समय लगाया। आयोग ने 2,399 जातियों और समुदायों की सूची तैयार की। आयोग ने वर्गों की पहचान लिए निम्नांकित मानक निर्धारित किये-
(1) जातिगत संरचना में जाती की निम्न स्थिति;
(2) जाति के सदस्यों में शैक्षिक प्रगति का अभाव;
(3) सरकारी सेवाओं में जाति का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व; तथा
(4) व्यापार, वाणिज्य और उद्योग के क्षेत्र में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व।
पिछड़े वर्ग की सूची बनाने में आयोग ने जाति को ही प्रमुख आधार माना। आयोग का मत था कि जातिग्रस्त समाज की समस्याओं का निराकरण सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से कमजोर वर्गों को बढ़ावा देकर किया जा सकता है।
आयोग की संस्तुतियाँ (Recommendations of the Commission)
यद्यपि आयोग के पास पर्याप्त आंकड़े नहीं फिर भी आयोग ने निम्नांकित संस्तुतियाँ कीं
(1) कम-से-कम 256 स्थान पिछड़े वर्गों के लिए प्रथम श्रेणी की सेवाओं में आरक्षित किये जायें।
(2) द्वितीय श्रेणी सेवाओं में न्यूनतम 33.5% स्थान आरक्षित किये जायें।
(3) तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी की सेवाओं में न्यूनतम 40% स्थान आरक्षित किये जायें
(4) तकनीकी शिक्षामेडिकल तथा वैज्ञानिक पाठ्यक्रमों में न्यूनतम 70% स्थान पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित किये जायें,
(5) आयोग द्वारा पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए एक अलग मन्त्रालय बनाने की सिफारिश की गई।
यह सहज ही दृष्टव्य है कि कालेलकर आयोग ने सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का आधार जाती को बनाया। आयोग ने विभिन्न जाति -समूहों के पिछड़े भाग का पता नहीं लगाया। भारत सरकार ने आयोग के इस दृष्टिकोण को ठुकरा दिया। आयोग के 11 सदस्यों में से पांच ने आयोग के इस नजरिये से असहमति प्रकट की। भारत सरकार ने यह महसूस किया कि आयोग ने बहुत बड़ी जनसंख्या को पिछड़े वर्ग की सीमा में समाहित कर लिया है।
कालेलकर आयोग की रिपोर्ट को निरस्त करते हुए भारत सरकार ने राज्य सरकारों को पिछड़े वर्ग की पहचान करने हेतु सर्वेक्षण कराने और इन वर्गों को सुविधाएँ उपलब्ध कराने को कहा। सन 1961 में केन्द्र सरकार ने यह निर्णय लिया कि वह पिछड़े वर्गों की कोई सूची नहीं तैयार करेगी
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा पिछड़े वर्गों की पहचान का जो मानक प्रस्तुत किया गया, वह व्यावहारिक नही सिद्ध हुआ। जिन उद्देश्यों को लेकर इस आयोग का गठन किया गया था, उसकी पूर्ति करने में यह असफल रहा।
मण्डल आयोग (Mandal Commission)
सन् 1977 में जनता पार्टी की सरकार केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई। जातीय असमानताओं को निर्धारित करने तथा कमजोर वर्गों के उन्नयन के लिए तथा पिछड़े वर्ग की एक सामान्य परिभाषा निर्धारित करने के लिए इसके द्वारा एक नये पिछड़ा वर्ग आयोग की नियुक्ति की गई।
1 जनवरी 1979 को राष्ट्रपति द्वारा बिहार के पूर्व मुख्यमन्त्री वी. पी. मण्डल की अध्यक्षता में गठित इस आयोग के अन्य सदस्य थे-एल. आर.नायक, दीवान मोहन लाल, न्यायमूर्ति आर.एस.भोला तथा के. सुब्रह्मण्यम। आयोग के अध्यक्ष सहित सभी सदस्य पिछड़ी जातियों के थे।
आयोग को सरकार द्वारा निम्नांकित दायित्व सौंपे गए-
(1) सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों को परिभाषित करने हेतु कसौटी या मानक निर्धारित करना;
(2) पिछड़े वर्गों के समुचित विकास हेतु उठाये जाने को वाले कदमों की सिफारिश करना, तथा
(3) केन्द्र, राज्यों तथा संघशासित क्षेत्रों को उन सेवाओं में आरक्षण की सम्भावना की जाँच करना जिनमें पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हुआ है।
मण्डलआयोग की सिफारिशें (Recommendations of Mandal Commission)-
आयोग ने अपनी रिपोर्ट 31 दिसम्बर, 1980 को भारत सरकार को सौंपी, जिसे सरकार ने 30 अप्रैल1982 को संसद में प्रस्तुत किया। आयोग ने पिछड़ी जातियों को परिभाषित किया तथा उनकी पहचान के लिए मानदण्ड करते हुए 3,743 जातियों पिछड़ी घोषित किया।
आयोग की मुख्य सिफारिशें निम्नवत् थीं-
(1) सम्पूर्ण पिछड़े वर्गों की जनसंख्या 52 प्रतिशत है और इसके इसी अनुपात में आरक्षण किया जाना उचित है परन्तु संविधान के अनच्छेद 15 (4)और 16 (4) के प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई व्यवस्था के अनुसार 50 प्रतिशत से अधिक स्थान आरक्षित नहीं किये जा सकते। चूंकि 22.5 प्रतिशत पहले ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित हैं अत: पिछड़ी जातियों की आबादी 52 प्रतिशत होने इनके लिए 27% स्थान सेवाओं में आरक्षित किये जाने चाहिए। पिछड़े वर्ग के जो अभ्यर्थी सामान्य अभ्यर्थियों के बराबर अंक प्राप्त करें उन्हें आरक्षित कोटे में न माना जाये;
(2) सरकारी नौकरियों में पहले से कार्यरत पिछड़े वर्ग के लोगों को पदोन्नति में भी 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
(3) यदि आरक्षित सीटें न भर पायें तो इन्हे 3 वर्षों तक कायम रखा जाये।
(4) आयु सीमा में पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को अनुसूचित जाति के अभ्यर्थियों के बराबर छूट दी जाए।
(5) 27% आरक्षण राज्य सरकार, राज्य सरकार के अधीन सार्वजनिक क्षेत्रों, केन्द्र सरकार के अधीन सरकारी क्षेत्रों तथा बैंकों की नियुक्तियों में लागू हो।
(6) निजी क्षेत्र के उन उद्योगों में भी पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो जिन्हें राज्य से अनुदान मिलता है, तथा
(7) पिछड़े वर्गों के लिए विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में प्रवेश में आरक्षण होना चाहिए।
समीक्षा (Evaluation)—प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग अर्थात् काका कालेलकर आयोग का प्रतिवेदन बहुत अधिक आलोचना का विषय नहीं बना था। इसे न तो क्रियान्वित किया गया और न ही इसे सरकार ने स्वीकार किया। यद्यपि कालेलकर आयोग ने भी जाति को ही पिछड़ेपन का द्योतक माना था फिर भी इसका यह मत था कि व्यक्ति और परिवार को पिछड़ेपन का आधार माना जाना चाहिए। कालेलकर आयोग ने इस बात पर भी बल दिया था कि जाति की कसौटी के अतिरिक्त निर्धनता, मकान और व्यवसाय आदि के पिछड़ेपन को आंकने में महत्वपूर्ण कारक है। इसके विपरीत मण्डल आयोग ने केवल जाति को ही पिछड़े वर्गों का आधार माना और इसी के
उन्हें आरक्षण देने की सिफारिश की। मण्डल आयोग की दृष्टि में व्यक्ति की जाति ही उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का निर्माण करती है।
जनता की मण्डल आयोग की सिफारिशों को लेकर कटु प्रतिक्रिया हुई। उत्तर प्रदेश तथा बिहार में आयोग की सिफारिशों को लेकर कटु प्रतिक्रियाएँ हुईं और तमाम हिंसात्मक घटनाएँ हुई।
(2) सरकारी नौकरियों में पहले से कार्यरत पिछड़े वर्ग के लोगों को पदोन्नति में भी 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
(3) यदि आरक्षित सीटें न भर पायें तो इन्हे 3 वर्षों तक कायम रखा जाये।
(4) आयु सीमा में पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को अनुसूचित जाति के अभ्यर्थियों के बराबर छूट दी जाए।
(5) 27% आरक्षण राज्य सरकार, राज्य सरकार के अधीन सार्वजनिक क्षेत्रों, केन्द्र सरकार के अधीन सरकारी क्षेत्रों तथा बैंकों की नियुक्तियों में लागू हो।
(6) निजी क्षेत्र के उन उद्योगों में भी पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो जिन्हें राज्य से अनुदान मिलता है, तथा
(7) पिछड़े वर्गों के लिए विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में प्रवेश में आरक्षण होना चाहिए।
समीक्षा (Evaluation)—प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग अर्थात् काका कालेलकर आयोग का प्रतिवेदन बहुत अधिक आलोचना का विषय नहीं बना था। इसे न तो क्रियान्वित किया गया और न ही इसे सरकार ने स्वीकार किया। यद्यपि कालेलकर आयोग ने भी जाति को ही पिछड़ेपन का द्योतक माना था फिर भी इसका यह मत था कि व्यक्ति और परिवार को पिछड़ेपन का आधार माना जाना चाहिए। कालेलकर आयोग ने इस बात पर भी बल दिया था कि जाति की कसौटी के अतिरिक्त निर्धनता, मकान और व्यवसाय आदि के पिछड़ेपन को आंकने में महत्वपूर्ण कारक है। इसके विपरीत मण्डल आयोग ने केवल जाति को ही पिछड़े वर्गों का आधार माना और इसी के
उन्हें आरक्षण देने की सिफारिश की। मण्डल आयोग की दृष्टि में व्यक्ति की जाति ही उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का निर्माण करती है।
जनता की मण्डल आयोग की सिफारिशों को लेकर कटु प्रतिक्रिया हुई। उत्तर प्रदेश तथा बिहार में आयोग की सिफारिशों को लेकर कटु प्रतिक्रियाएँ हुईं और तमाम हिंसात्मक घटनाएँ हुई।
राजनीति विज्ञान- पिछड़ा वर्ग आयोग
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