इतिहास- प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY]

SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY
SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY]

प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले स्रोत को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया  है-

(1) साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)
(2) विदेशी यात्रा के वृतांत (Account of Foreigners)
(3) पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)

(1) साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)

प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाली साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अध्ययन की सुविधा के लिए साहित्यिक सामग्री को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - (1) धार्मिक साहित्य, और (2) धर्म निरपेक्ष साहित्य। 

(1) धार्मिक साहित्य (Religious Literature)

धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत वे ग्रन्थ आते हैं, जो किसी धर्म विशेष से प्रभावित होते हैं।इन ग्रन्थों से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। अध्ययन की सुविधा के लिए धार्मिक साहित्य को भी तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- (अ) ब्राह्मण साहित्य, (ब) बौद्ध साहित्य, और (स) जैन साहित्य।

(अ) ब्राह्माण साहित्य-

प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ  उपलब्ध हैं, जिनमें प्रमुख निम्नांकित हैं-
(i) वेद- आर्यों के प्राचीनतम प्रन्थ वेद हैं। वेदों की कुल संख्या चार है ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनमें सबसे प्राचीन ऋग्वेद है । वेदों का भारतीय संस्कति में विशेष महत्व है। यद्यपि वेद मुख्यतः धार्मिक
ग्रन्थ  हैं, परन्तु इनसे आय के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

(ii) ब्राहण-  यज्ञ एवं कर्मकाण्डों के विधान को समझने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की गई, उन्हें 'ब्राह्मण' कहा गया । प्रमुख ब्राह्मण ग्रन्थ -  ऐतरेय ब्राह्मण, कौषितिकी ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण व गोपथ ब्राह्मण है। 

(iii) आरण्यक-  आरण्यकों का अध्ययन जंगल के शान्त वातावरण में ही किया जाता था। इन ग्रन्थों में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में विवेचना की गई है।

(iv) उपनिषद-  गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किए गए ज्ञान के आधार पर लिखे गए ग्रन्थों को ‘उपनिषद’ जाता है। उपनिषदों से भारतीय दर्शन व बिम्बसार के पूर्व के इतिहास का विवरण प्राप्त होता है। प्रमुख उपनिषद् हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, कौषितिकि, वृहदारण्यक और श्वेताश्वतर।

(v) वेदांग-  वेदांग संख्या में छह हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। वेदांगों से तत्कालीन समाज एवं धर्म पर प्रकाश पड़ता है।

(vi) स्मृतियाँ-  स्मृतियों से तत्कालीन समाज के विभिन्न कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। प्रमुख स्मृतियाँ हैं -मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर, नारद, वृहस्पति, कात्यायन तथा गौतम। 

(vii) सूत्र-  वेदों का विधिवत् अध्ययन करने के लिए सूत्रों की रचना की गयी । सूत्र संख्या में चार हैं- श्रोत  सूत्र, ग्रह सूत्र, धर्म सूत्र और शुल्व सूत्र ।

(viii) पुराण- ब्राह्मण साहित्य में पुराण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पुराण संख्या में अठ्ठारह है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु, ब्रह्मण्ड, ब्रह्म, पद्म, शिव, नारदीय, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, तथा गरुण पुराण। परन्तु इनमें से पांच पुराणों का ही ऐतिहासिक महत्व है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु और ब्रह्मण्ड पुराण । डॉ. वी. ए स्मिथ के अनुसार, "इन पुराणों में मौर्य, आन्ध, शिशुनाग और गुप्त आदि राजवंशों का विस्तृत विवरण मिलता है।"

(ix) महाकाव्य-  ब्राह्मण साहित्य में वेदों के पश्चात् महाकाव्यों का विशिष्ट स्थान है। महाकाव्य दो हैं रामायण और महाभारत। रामायण की रचना महाकवि वाल्मीकि ने, और महाभारत की रचना मुनि व्यास ने की थी। इन दोनों महाकाव्यों में तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति पर व्यापक प्रकाश डाला गया । है ।

(ब) बौद्ध साहित्य-

ब्राह्मण साहित्य के समान ही बौद्ध साहित्य में भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रभाव डाला गया है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्य उपलब्ध हैं जिनमें प्रमुख निम्नांकित है -

(i) त्रिपिटक-  त्रिपिटकों की संख्या तीन है- विनय पिटक, सुत्त पिटक एवं अभियान पिटक। महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् इनकी रचना की गई थी।‘विनय पिटक' में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है, 'सुत्त पिटक' में महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं और 'अभिधम्म पिटक’ में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।

(ii) जातक कथाएँ-  बौद्ध साहित्य में जातक कथाओं का प्रमुख स्थान है। जातकों की संख्या 549 है। इनमें महात्मा बुद्ध के पूर्वजन्मों की काल्पनिक कथाएँ हैं। काल्पनिक होने पर भी ये कथाएँ अपने समय और उससे पूर्व के समाज का चित्रण हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं। इन कथाओं में धर्म के सिद्धान्त और नैतिकता के नियम भी समझाए गए हैं । डॉ. विण्टरनिट्ज ने जातक कथाओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, "जातक कथाओं का महत्त्व अमूल्य है। यह केवल इसलिए नहीं कि वे साहित्य और कला का अंश हैं, उनका महत्व तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की भारतीय सभ्यता का दिग्दर्शन कराने में है।"

(iii) बुद्धचरितम्- बुद्धचरितम् के रचयिता महाकवि अश्वघोष थे। इस ग्रन्थ से गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

(iv) महावंश और दीपवंश- ये दोनों ही प्रन्थ श्रीलंका के पालि महाकाव्य हैं। इन दोनों ही प्रन्थों से भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। दीपवंश की रचना सम्भवत: चौथी शताब्दी और महावंश की रचना सम्भवतः  पाँचवी शताब्दी में हुई थी।.

(v) मिलिन्द पञ्च- इस ग्रन्थ में यूनानी राजा मिनांडर और बौद्ध भिक्षु नागसेन का दार्शनिक वार्तालाप लिपिबद्ध है। इस प्रन्थ में ईसा की पहली दो शताब्दियों के उत्तरी-पश्चिमी भारतीय जीवन की झलक देखने को मिलती है।

(vi) दिव्यावदान- दिव्यावदान में अनेक राजाओं की कथाएँ संकलित हैं। इस प्रन्थ में अनेक अंश चौथी शताब्दी तक जोड़े गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रन्थ का विशेष महत्व है।

(vii) मंजूश्रीमूलकल्प- यह ग्रन्थ भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ  में बौद्ध दृष्टिकोण से गुप्त सम्राटों का विवरण प्राप्त होता है। इस  ग्रन्थ से कुछ अन्य प्राचीन राजवंशों का भी संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है।

(viii) अंगुत्तर निकाय- इस प्रन्थ से हमें प्राचीन सोलह महाजनपदों की जानकारी मिलती है। यह प्रन्य कल्पना पर आधारित नहीं है, इस प्रन्थ में वर्णित सोलह महाजनपद उस समय वस्तुतः  विद्यमान थे।

(ix) ललितविस्तर और वैपुल्य सूत्र-  बौद्ध साहित्य के इन दोनों ग्रन्थों  से भी बौद्ध धर्म के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। 

(स) जैन साहित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। क्योंकि इससे हमें कुछ ऐसे भारतीय पक्षों का परिचय प्राप्त होता है, जिनकी ब्राह्मण साहित्य अथवा बौद्ध साहित्य में या तो चर्चा ही नहीं है, यदि है भी तो बहत ही अल्प है। अधिकांश जैन धर्मग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की गई है। जैन साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नांकित हैं-

(i) आगम- आदि जैन ग्रन्थों को ‘आगम' के नाम से पुकारा गया। बाद में उनका संकलन 'पूर्व' नामक 14 प्रन्थों में किया गया और फिर इसके पश्चात् उनका संकलन ‘अंग' नामक 12 ग्रन्थों में हुआ, जिनके नाम हैं- आचारांग, डाण्डंग, भगवती सुत्त, समवायंग सुत्त, आचारता सुत्त, सूयगढंग सुत्त, नायाधम्मकहा, उवासगदसाओं सुत्त, दिट्ठीवाय, विवागसुयम सुत्त और अंतगडदसाओं सुत। इन ग्रन्थों में जैन मुनियों के आचार-विचार और महावीर स्वामी के जीवनचरित्र आदि का विस्तृत विवेचन है।

(ii) भद्रबाहुचरित- इस ग्रन्थ से मौर्यवंशीय शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की कुछ घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।

(iii) परिशिष्ट पर्व- यह प्रन्थ जैन साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ के रचयिता हेमचन्द्र थे ।इस ग्रन्थ  की रचना ईसा की बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से महावीर स्वामी के काल के राजाओं व अन्य
जैन सम्राटों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

(iv) अन्य ग्रन्थ- जैन साहित्य के अन्तर्गत अन्य अनेक ग्रंथों  की रचना हुई, जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व है। अन्य ग्रन्थों में प्रमुख हैं- वसुदेव हिण्डी, बृहत्कल्प सूत्र, भाष्य, आवश्यक चूर्णी, कलिका पुराण, कथाकोश, समरादित्यकथा, कुवलयमाला और कथाकोष प्रकरण। इन जैन ग्रन्थों से तत्कालीन भारतीय समाज की सामाजिक और धार्मिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

(2) धर्मनिरपेक्ष साहित्य

धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त ऐसा साहित्य भी उपलब्ध है, जिसका किसी धर्म से न तो सीधा सम्पर्क है और न ही किसी धर्म विशेष से प्रभावित है ऐसे साहित्य को धर्मनिरपेक्ष साहित्य या धर्मोत्तर साहित्य के नाम से जाना जाता है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य के ग्रन्थों से प्राचीन भारत के विषय में मुहत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। धर्मोत्तर साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ  निम्नांकित हैं- 
(i) कौटिल्य का अर्थशास्त्र—'अर्थशास्त्र' नामक इस प्रन्थ की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री कौटिल्य ने ई.पू. चौथी शताब्दी में की थी। इस ग्रन्थ से तत्कालीन शासन-व्यवस्था के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है ।

(ii) पाणिनी की अष्टाध्यायी-  इस ग्रन्थ से मौर्य काल के पूर्व की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।

(iii) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस- इस ग्रन्थ से नन्द वंश के पतन और चन्द्रगुप्त मौर्य  को राजा बनाए जाने के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

(iv) पतंजलि का महाभाष्य- इस ग्रन्थ से मौर्य वंश और शृंग वंश के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(v) बाणभट्ट का हर्षचरित-  इस ग्रन्य की रचना सातवीं शताब्दी में की गई थी। इस ग्रन्थ से हर्षकालीन घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है।

(vi) गार्गी संहिता-  इस ग्रन्य से भारत पर यवनों के आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।

(vii) कल्हण की राजतरंगिणी- इस ग्रन्थ की रचना बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से कश्मीर के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(viii) विल्हण का विक्रमांकदेवचरित- इस ग्रन्थ से चालुक्य वंश के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।

(ix) वाक्पति राज का गौडवाहो- इस ग्रन्थ से कन्नौज नरेश यशोवर्मन की विजयों की जानकारी मिलती है।

(x) चन्दवरदायी का पृथ्वीराज रासो- इस ग्रन्थ से चौहानवंशीय शासक पृथ्वीराज चौहान के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

(xi) परिमल गुप्त का नवसाहसक चरित- इस ग्रन्थ से परमार वंश के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(xii) कालीदास का मालविकाग्निमित्रम- इस ग्रंथ से पुष्यमित्र शृंग और यवनों के मध्य हुए संघर्ष के विषय में जानकारी मिलती है।

(xiii) कालीदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्- इस ग्रंथ से गुप्तकालीन उत्तर तथा मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।

(xiv) कालीदास का रघुवंश- इस ग्रंथ से गुप्तवंशीय सम्राट समुद्रगुप्त की दिग्विजय की झलक मिलती है।

(2) विदेशी यात्रियों के वृतान्त [Accounts of Foreigneral

भारतीय इतिहास की जानकारी प्रदान करने में विदेशी यात्रियों तथा लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीन काल में अनेक विदेशी यात्री और विद्वान भारत आये और उन्होंने अपने यात्रा सम्बन्धी वृतान्तों को लिपिबद्ध किया। उनके यात्रा विवरणों से तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति के बारे में व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतान्तों के पर प्रकाश डालते महत्व हुए डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "इनसे भारतीय तिथि के अशान्त सागर में समसामयिकता स्थापित करने में सहायता मिलती है।"
विदेशियों के वृतान्तों का विवेचन चार वर्गों में किया जा सकता है-
(i) यूनानी लेखक, (ii) चीनी लेखक, (iii) तिब्बती लेखक, (iv) अरबी लेखक,
(i) यूनानी लेखक- यूनानी लेखकों में 'हेरोडोटस' (Herodous) प्राचीनतम लेखक हैं। हेरोडोटस ने पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में भारतीय सीमा प्रान्त व हखमी साम्राज्य के मध्य राजनीतिक सम्पर्क पर प्रकाश डाला है।
यूनानी शासक सिकन्दर के साथ भारत आए अनेक विद्वानों ने भी भारत के विषय में अपने विचार लिपिबद्ध किए। इन विद्वानों में निआर्कस (Nearchus), ओनेसिक्रिटस (Onesicritus) व एरिस्टोव्यूलस (Aristobulus) प्रमुख हैं।
यद्यपि इन विद्वानों की रचनाएँ अब उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उनको अन्य यूनानी लेखकों द्वारा उद्धरित किया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में 'मैगस्थनीज' यूनानी राजदूत के रूप में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका' में
भारतीय संस्थाओं भूगोल, कृषि आदि के विषय में व्यापक प्रकाश डाला है। यद्यपि उसकी पुस्तक उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसकी इस पुस्तक के कुछ उद्धरण प्राचीन यूनानी लेखकों एरियन, स्ट्रैवो व जस्टिन आदि की रचनाओं में मिलते हैं।
यूनानी लेखक टॉलमी (Ptolemy) ने दूसरी शताब्दी ईसवी में भारत का भौगोलिक वर्णन लिखाजिससे अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
यूनानी लेखक पिलनी (Pliny) द्वारा रचित 'नेचुरल हिस्ट्री' में भारतीय पशुओं, पौधों और खनिज पदार्थों के बारे में जानकारी मिलती है।

(ii) चीनी लेखक- चीनी यात्रियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण फाह्यान, व्हेनसांगइत्सिंग के वृतान्त हैं।
फाह्यान पाँचवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे,वह लगभग 14 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने विशेष रूप से भारत में बौद्ध धर्म की स्थिति के बारे में लिखा ।
व्हेनसांग, सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आए थे, वह लगभग 16 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने भारत की धार्मिक अवस्था के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक दशा का भी वर्णन अपने वृतान्त में किया है। भारतीयों के रीति-रिवाजों और शिक्षा पद्धति पर भी व्हेनसांग के वृतान्त से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इतिहासकारों ने व्हेनसांग को 'यात्रियों का राजा' कहा है।
इत्सिंग सातवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे, वह बहुत समय तक विक्रमशील विश्वविद्यालय और नालंदा विश्वविद्यालय रहे। उन्होंने संस्थाओं और भारतीयों में बौद्ध शिक्षा की वेश-भूषा, खान-पान आदि के विषय में भी लिखा है।

(iii) तिब्बती लेखक- तिब्बती लेखकों में बौद्धलामा तारानाथ का विवरण भी। ऐतिहासिक महत्व का है। उनके द्वारा रचित कंग्युर और तंग्युर नामक ग्रन्थों से मौर्यकाल और उसके पश्चात् की घटनाओं को जानकारी प्राप्त होती है
(iv) अरबी लेखक- अरबी यात्री और इतिहासकार आठवीं शताब्दी के उपरान्त भारत की ओर आकर्षित हुए। अरब यात्रियों के वृतान्तों का भारतीय इतिहास की दृष्टि से विशिष्ट महत्व है।
अरब यात्रियों में अल्बरूनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अल्वरूनी ने 'तहकीक-ए -हिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी के भारत की दशा पर विस्तृत प्रकाश डाला है। अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादरी, सुलेमानअल-मसूदी आदि प्रमुख यात्रियों के वृतान्तों से भी पता चलता है कि किस प्रकार मुसलमानों ने भारत पर अधिकार किया।

(3) पुरातात्विक स्त्रोत [Archaeological Sources]

प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्त्रोतों का विशेष महत्व है। पुरातात्विक स्रोत, साहित्यिक स्रोतों से अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, क्योंकि उनमें कवि की परिकल्पना अथवा लेखक की कल्पना शक्ति के लिए स्थान का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ पर साहित्यिक स्त्रोत मौन हैं, वहाँ पुरातात्विक स्त्रोत ही वस्तुस्थिति को स्पष्ट करते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में जानकारी देने वाले प्रमुख पुरातात्विक स्त्रोत निम्नांकित हैं=
(i) अभिलेख, (ii) स्मारक और भग्नावशेष, (iii) मुद्राए, (iv) कलाकृतियाँ, (v) मिट्टी के बर्तन।

(i) अभिलेख- अभिलेख, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं, क्योंकि अभिलेख समकालीन होते हैं। जिस राजा अथवा राज्य के विषय में अभिलेख पर लिखा होता है, अभिलेख की रचना भी उसी राजा के शासनकाल में की गई होती है। अत: उस तथ्य के सत्य होने की सम्भावना अधिक होती है। अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त
अभिलेख, राज्य की सीमाओं और राजा के व्यक्तित्व के विषय में भी सटीक जानकारी प्रदान करते हैं। अभिलेखों के महत्व के सन्दर्भ में डॉ. रमेश चन्द्र मजमूदार ने लिखा है, "अभिलेख समसामयिक होने के कारण विश्वसनीय प्रमाण हैं और उनसे हमें सबसे अधिक सहायता मिली है।"

अभिलेख विभिन्न रूपों में प्राप्त हुए हैं। शिला पर लिखे गए अभिलेख को शिलालेख स्तम्भ पर लिखे गए अभिलेख को स्तम्भ-लेख, ताम्र पत्र पर लिखे गए अभिलेख को ताम्र पत्र-लेख, मूर्ति पर लिखे गए अभिलेख को मूर्ति-लेख कहा जाता है ।
प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेख अधिकांशतः  पाली, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में लिखे गए हैं। लेकिन कुछ अभिलेख तमिल, मलयालम, कन्नड व तेलगू भाषाओं में भी लिखे गए हैं। अधिकांश अभिलेखों की लिपि ‘ब्राही' है, जबकि कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी लिखे हुए प्राप्त हुए हैं।

सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य शासक अशोक के हैं। अशोक के अधिकतर अभिलेख 'ब्राह्मी लिपि' में हैं। ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1837 ई.में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था। अशोक के अभिलेखों से तत्कालीन धर्म और राजत्व के आदर्श पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

अशोक के बाद के अभिलेखों को दो वर्गों- सरकारी अभिलेख और निजी अभिलेख में बाँटा जा सकता है । सरकारी अभिलेख, राजकवियों द्वारा लिखी हुई प्रशस्तियाँ और भूमि अनुदान पत्र हैं। निजी अभिलेख अधिकांशतः मन्दिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं।

प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखों में अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, कलिंग राज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश मिहिरभोज का ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख और बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख आदि महत्वपूर्ण हैं।

(ii) स्मारक और भग्नावशेष- प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में प्राचीन भवनों और भग्नावशेषों का भी विशेष महत्व है। प्राचीनकाल के स्मारकों तथा भग्नावशेषों का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करके तत्कालीन इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यद्यपि स्मारक और भग्नावशेष राजनीतिक स्थिति पर तो विशेष प्रकाश नहीं डालते, किन्तु इनसे धार्मिक सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है ।

प्रत्येक काल के स्मारक और भग्नावशेष उस काल की कला, शैली तथा धर्म के प्रतीक होते हैं। प्राचीन स्मारकों तथा कलाकृतियों की प्राचीनता का अध्ययन करके कालक्रम का भी निर्धारण किया जा सकता है। प्राचीनकाल के महलों और मन्दिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के मन्दिरों की अपनी कुछ विशेषताएं हैं, उनकी कला की शैली ‘नागर-शैली' कहलाती है। इसी प्रकार दक्षिण भारत के मन्दिरों की कला ‘द्रविण-शैली' कहलाती है ।

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से सम्भवतः विश्व की प्राचीनतम सभ्यता ‘सिन्धु सभ्यता' को जानकारी हुई। सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों के उत्खनन से प्राप्त प्रचुर सामग्री के अध्ययन से तत्कालीन मानव जीवन की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।

इसी प्रकार तक्षशिला में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि यह नगरी कम से कम तीन बार बनी व नष्ट हुई। पाटलिपुत्र में हुए उत्खनन से मौर्यों के विषय में अनेक नवीन जानकारियाँ प्राप्त हुईं। गुप्तकालीन मन्दिरों; उदाहरणार्थ- कानपुर के पास स्थित भीतरगाँव का मन्दिर, नचनाकुठारा का पार्वती मन्दिर, सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर और देवगढ़ का दशावतार मन्दिर से गुप्तकालीन संस्कृति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार सांची, भरहुत खजुराहो, महाबलिपुरम, अजन्ता, एलोरा, नासिक आदि अनेक स्थानों से प्राप्त प्राचीन स्मारकों व भग्नावशेषों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।

विदेशों में भी अनेक ऐसे स्मारक मिले हैं, जो भारत के उन देशों के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय आस्थाओं पर आधारित अनेक स्मारक हैं। जावा में दींग के शिव मन्दिर, मध्य जावा के बोरोबुदूर  तथा प्रम्बनम के विशाल मन्दिरों की मर्तियाँ तथा कम्बोज के अंगकोरवाट व अंगकोरथोम के भग्नावशेषों से सिद्ध होता है कि भारतीयों ने वहाँ अपने उपनिवेशों की स्थापना की थी तथा अपनी संस्कृति का प्रचारप्रसार किया था। इनके अतिरिक्त मलाया, लंका तथा बाली द्वीपों में भी अनेक मन्दिर व स्मारक हैं, जो इन देशों से भारत के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं।

(iii) मुद्राएँ- मुद्राओं के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास  जानने के पुरातात्विक स्रोतों में मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है। अब तक सबसे प्राचीन प्रामाणिक सिक्के, जो हमें प्राप्त हुए, वे ‘आहत सिक्के' कहलाते हैं। इन्हें विभिन्न श्रेणी के राज्य प्रशासक अपना चिन्ह अंकित कर चलाते थे। अतः यह 'पंचमार्क’ भी कहलाते थे, ये मुख्यतः चाँदी के थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है। मुद्राएँ तत्कालीन राजनीतिक
धार्मिक, आर्थिक स्थिति एवं कला पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। विद्वान लेखक बी. जी. गोखले ने मुद्राओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, "प्राचीन सिक्के (मुद्राएँ) अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके बिना विश्वसनीय इतिहास की रचना प्राय: असम्भव है।" प्राचीन भारतीय मुद्राएँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से निम्नांकित कारणों से महत्वपूर्ण हैं-
(अ) मुद्राओं पर अंकित तिथि से मुद्राओं को जारी करने वाले शासक की तिथि के विषय में जानकारी मिलती है।
(ब) मुद्राओं के प्राप्ति स्थलों के आधार पर विभिन्न शासकों के साम्राज्यों की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायता प्राप्त होती है। यदि किसी शासक की एक ही स्थान पर बहुत सारी मुद्राएँ प्राप्त होती हैं तो इससे स्पष्ट होता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का अंग रहा होगा। जिस स्थान से मुद्राएँ कम मात्रा में मिलती हैं, तो यह माना जाता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का प्रत्यक्ष अंग नहीं रहा होगा, बल्कि उस स्थान से उस शासक के राज्य के व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे।
(स) मुद्राओं से तत्कालीन राज्यों की आर्थिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है। स्वर्ण रजत अथवा ताँबे की मुद्राएँ आर्थिक स्थिति की स्वयं ही मापदण्ड बन जाती हैं। जो राज्य वैभवशाली होते थे, उनके द्वारा स्वर्ण धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे और जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती थी, उनके द्वारा रजत, ताँबे अथवा मिश्रित धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे।
(द) मुद्राओं पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी मिलती है।
(य) विदेशों में भारतीय मुद्राओं के प्राप्त होने से प्राचीन भारतीय शासकों के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(र) मुद्राओं पर अंकित विभिन्न चित्रों व संगीत वाद्यों से तत्कालीन कला एवं संगीत के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

(iv) कलाकृतियाँ- भारत में विभिन्न स्थानों पर किए गए उत्खननों से अनेक कलाकृतियाँ; जैसे भित्ति चित्र, स्तम्भ, मूर्तियाँ, मन्दिर, खिलौने, आभूषण आदि विभिन्न वस्तुएं प्राप्त की गयीं हैं। इनसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति जानकारी प्राप्त होती है । इन भारतीय की कलाकृतियों में से अनेक खण्डित भी हैं, परन्तु फिर भी ये कलाकृतियाँ प्राचीन भारत के । सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से उपयोगी हैं । सिन्धु घाटी में प्राप्त हुए खिलौने, मूर्तियाँ और
आभूषण, अशोक के स्तम्भ, विभिन्न बौद्ध प्रतिमाएँ, मन्दिरों के भग्नावशेष और मूर्तियाँ, ताँबे अथवा काँसे की मूर्तियाँ, अजंता और वाद्य गुफाओं के भित्ति चित्र आदि सभी कलाकृतियाँ  प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए है।

(v) मिटटी के बर्तन- भारत के विभिन्न स्थानों से मिटटी के बर्तन भी प्राप्त हुए है। इन बर्तनों का भी अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व हैं।  ये बर्तन न केवल कला की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इनकी मिटटी की जाँच करके उनकी आयु का भी पता लगाकर इतिहास के कालक्रम को जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है।
इस विवेचन से स्पष्ट है की प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोतों का अभाव नहीं है। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के लिए विभिन्न साहित्यिक एवं पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। 
इतिहास- प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY] इतिहास- प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY] Reviewed by rajyashikshasewa.blogspot.com on 7:29 PM Rating: 5

हिन्दी व्याकरण- विराम चिन्हों का प्रयोग [Use of punctuation]

Use of punctuation
विराम चिन्हों का प्रयोग  [Use of punctuation]

*विराम चिह्न*

विराम का अर्थ- 'विश्राम' या 'ठहराव'

भाषा द्वारा जब हम अपने भावों को प्रकट करते हैं तब एक विचार या उसके कुछ अंश को प्रकट करने के बाद थोड़ा रुकते हैं, इसे ही 'विराम' कहा जाता है|

जैसे- मैंने राम से कहा रुको, मत जाओ|

उपर्युक्त उदाहरण में रुको के बाद चिह्न का प्रयोग किया गया है जिससे अर्थ स्पष्ट हो सके|
(चिह्न न होता तो इसका अर्थ रुकना नहीं है जाना है भी हो सकता था)

विराम चिह्नों के प्रकार

1- पूर्ण विराम (full stop)
2- अपूर्ण/ उपविराम चिह्न (colon)
3- अर्द्ध विराम (semicolon)
4-अल्प विराम(comma)
5-प्रश्नबोधक (Question mark/ note of interrogation)
6- विस्मयादिबोधक (Exclamation  mark)
7- निर्देशक चिह्न (Dash)
8- योजक चिह्न  (Hyphen)
9- कोष्ठक चिह्न (Bracket)
10- उद्धरण चिह्न
11- लाघव चिह्न  (Short sign)
12- विवरण चिह्न
13- लोप सूचक चिह्न
14-त्रुटिबोधक/काकपद/हंसपद चिह्न
15- अनुवृत्ति चिह्न

1- पूर्ण विराम चिह्न  |

वाक्य की समाप्ति पर इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है
जैसे- राम खेलने जा रहा है|

2- अपूर्ण विराम या उपविराम :

जब एक वाक्य समाप्त होने पर भी भाव समाप्त नहीं होता है वहाँ इसका  प्रयोग किया जाता है| संवाद लेखन में भी इस चिह्न का प्रयोग होता है|
जैसे-  
i- शब्द और अर्थ के बीच तीन में से कोई संबंध हो सकता है: अभिधा, लक्षणा, व्यंजना|

ii- राम: मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ|

3- अर्द्ध  विराम चिह्न .,

जहाँ  अपूर्ण विराम की अपेक्षा कम ठहराव होता है
जैसे- मुझे पैसा मिलना  चाहिए., मैं काम कर सकती हूँ|

4- अल्प विराम चिह्न ,

इसमें बहुत ही कम ठहराव होता है

जैसे- राम, श्याम और मोहन खेल रहे हैं|

5- प्रश्नबोधक चिह्न ?

प्रश्न का बोध कराने वाले वाक्यों के अंत में इसका प्रयोग किया जाता है
जैसे-  क्या आप घूमने जा रहे हैं?

6-  विस्मयादिबोधक चिह्न !

विस्मय, हर्ष, शोक,घृणा, प्रेम आदि भावों को प्रकट करने वाले शब्दों के आगे इसका प्रयोग होता है

जैसे-  शाबाश!  तुम इसी तरह सफल होते रहना|

छि:! कितनी गंदी आदत है|

7- निर्देशक चिह्न _

इस चिह्न का प्रयोग स्पष्टीकरण तथा विवरण देने के लिये होता है

जैसे- राम ने कहा- मोहन पढ़ने गया है|

8- योजक चिह्न -

इस चिह्न को विभाजक या समास बोधक चिह्न भी कहते हैं | इसका प्रयोग प्राय: द्वंद्व समास के बीच किया जाता है

जैसे-
माता-पिता दोनों खुश थे|

9-कोष्ठक चिह्न ( )


किसी शब्दांश या वाक्यांश को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है

जैसे-  वह अनवरत(लगातार) काम करता है|

10- उद्धरण बोधक/ अवतरण चिह्न ""/ ' '


इसका प्रयोग किसी कथन या अवतरण के आरम्भ तथा अन्त में होता है|
किसी महापुरुष का कथन या किसी की कही गयी बात को ज्यों का त्यों लिखते हैं तब इस चिह्न का प्रयोग करते हैं|

जैसे- सुभाष चन्द्र बोस ने कहा है कि "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"

'कर्म ही पूजा है'

11- लाघव  चिह्न •


किसी शब्द को संक्षिप्त रूप में लिखने के लिए प्रथम वर्ण के बाद इस चिह्न का प्रयोग करते हैं

जैसे-
डॉ•
पं•

 [ क्रमश: डॉक्टर, पंडित शब्द को संक्षिप्त किया गया]

12- विवरण सूचक चिह्न :-

जब किसी पद की व्याख्या करनी हो या विस्तार से कुछ कहना हो तब इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है

जैसे- उत्तर प्रदेश के प्रमुख पर्यटन स्थल हैं
:- ताजमहल, इमामबाड़ा आदि|

13- लोप सूचक चिह्न +++/ ........

जहाँ किसी अवतरण का पूरा अंश न लिखकर कुछ छोड़ दिया जाये या गोपनीय अथवा अश्लील  पदों को छुपाया जाता है वहाँ इस चिह्न का प्रयोग होता है

जैसे-  अरे! तुम अभी तक.......

दारोगा ने उसे गाली देते हुए कहा........

14- त्रुटिबोधक/हंसपद/काकपद ^

वाक्य में जब कोई शब्द बीच में छूट जाता है तो इस चिह्न  का प्रयोग करके छूटे हुए शब्द को लिखते हैं

जैसे-    7
वह रोज^ बजे स्कूल जाता है|

15- अनुवृत्ति चिह्न ,,


जब एक ही शब्द बार बार उस शब्द के नीचे  लिखना होता है तो इस चिह्न का प्रयोग किया जाता है

जैसे-

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
,,          महावीर ,,       ,,
,,           रामचन्द्र शुक्ल
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इतिहास- प्रागैतिहासिक युग या पाषाण काल (PRE-HISTORIC AGE)

इतिहास- पाषाण काल (PRE-HISTORIC AGE)
पाषाण काल

प्रागैतिहासिक युग (PRE-HISTORIC AGE)

प्रागैतिहासिक युग के जो औजार एवं हथियार हमें प्राप्त हुए हैं, वे पत्थर या पाषाण के हैं, इसीलिए मानव इतिहास के प्रारम्भिक काल को ‘पाषाण काल' कहा जाता है । ऐतिहासिक विश्लेषण के आधार पर पुरातत्वविदों ने 6 लाख ई.प .को पाषाण युग का प्रारम्भिक काल बताया है। सर्वप्रथम 1863 ई. में हुए अनुसन्धानों के आधार पर राबर्ट ब्रुसफुट ने पाषाण काल को दो भागों में विभक्त किया- प्रथमपूर्व पाषाण काल और द्वितीय, नव पाषाण काल। लेकिन इन दोनों कालों के बीच सभ्यता के विकास के दृष्टिकोण से पर्याप्त समयान्तराल के अन्तर था। पश्चात् बर्किट व टॉड ने उत्खननों के आधार पर दोनों कालों के बीच तारतम्य को जोड़ दिया और इस कड़ी को मध्य पाषाण काल के नाम से जाना गया। इस प्रकार वर्तमान में पाषाण काल को तीन भागों में बाँटा जाता है-
(1) पुरा पाषाण काल (Palaeolithic Age, (2) मध्य पाषाण काल (Mesolithic Age), (3) नव पाषाण काल (Neolithic Age) ।

भारत में पुरा पाषाण काल [PALAEOLITHIC AGE IN INDIA]

अद्यतन अनुसन्धानों के आधार पर पुरा पाषाण काल का समय 5 लाख ई.पू. से 8000 ई.पू. तक माना जाता है। विद्वानों ने पुरा पाषाण काल को तीन भागों में बाँटा है- पूर्व पुरा पाषाण काल, मध्य पुरा पाषाण काल तथा उत्तर पुरा पाषाण काल । इन तीनों कालों के मानव के औजारों में अन्तर है, लेकिन मानव जीवन के अन्य क्षेत्रों में विशेष अन्तर नहीं है। भारत में पुरा पाषाण काल की सभ्यता की खोज 1868 ई. से प्रारम्भ हुई। सर्वप्रथम 1868 ई. में जिओलॉजिकल सर्वे  विभाग के विद्वान भू-वैज्ञानिक असफुट को चेन्नई मद्रास) के निकट पल्लावरम् में पुरा पाषाण कालीन औजार उपलब्ध हुए थे। इसके पश्चात् उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक चेन्नई मद्रास, मुम्बई बम्बई,मध्य प्रदेश, उड़ीसाबिहार, उत्तर प्रदेशमैसूर और हैदराबाद आदि अनेक क्षेत्रों में पुरा पाषाण कालीन संस्कृति के केन्द्र खोज निकाले गए। 1930 ई. में उत्तरी भारत में पश्चिमी पंजाब की सोहन नदी की घाटी में1935 ई. में कश्मीर घाटी और हिमालय क्षेत्र में इसके पश्चात्उ त्तर प्रदेश में मिर्जापुर के रिहन्द क्षेत्र में 1957-58 ई. में नर्मदा नदी की घाटी में महेश्वर तथा अन्य कई स्थानों में हुए उत्खनन से पुरा पाषाण कालीन अवशेष प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं। पुरा पाषाण कालीन अवशेष चिह्न कतिपय पर्वतीय कन्दराओं में भी प्राप्त हुए हैं । पुरातत्व सामग्री के आधार पर विद्वानों का मानना है कि होशंगाबाद, भीमबेटका कैमूर और पचमढ़ी की पहाड़ियों की कन्दराओंरायगढ़ में सिंघनपुर और कबरा की पहाड़ियों की कन्दराओं तथा मिर्जापुर में सोनघाटी की गुफाओं पुरा पाषाण काल के मनुष्य रहा करते थे। इन गुफाओं और कन्दराओं की भित्तियों पर पुरा पाषाण कालीन मनुष्यों द्वारा बनाये गये चित्रमिट्टी के पात्रकोयले एवं भस्म आदि प्राप्त हुए हैं।
उपर्युक्त खोजों अनुसन्धानों और प्राप्त सामग्री से यह सिद्ध होता है कि मानव इतिहास के आरम्भ काल से ही भारत आदिमानव की लीला भूमि रही है। 

पुरा पाषाण काल में मानव जीवन [HUMAN LIFE IN PALAEOLITHIC AGE]

पुरा पाषाण काल में मानव अत्यन्त बर्बर और आदिम अवस्था में रहते थे। उनका जीवन पशुओं की भाँति संघर्षपूर्ण था। लेकिन उन्होंने भद्दे-भोंड़े औजार बनाना सीख लिया था। इस काल के मानव जीवन का अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) मानव के औजार- पुरा पाषाण काल में मानव का जीवन अत्यन्त कठोर एवं संघर्षपूर्ण था। सबसे पहले मानव ने जंगली पशुओं से अपनी रक्षा करने के लिए पत्थरों के हथियार बनाने प्रारम्भ किए गए । इन हथियारों में सर्वप्रथम उसने हथौड़ा बनाया, तत्पश्चात, चाकू, कुल्हाड़ी और शल्क आदि तैयार किए गए। खुदाई से प्राप्त उपकरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय के औजार भद्दे, बेडौल व अव्यवस्थित थे।

(2) रहन-सहन( निवास स्थान)- इस काल के मानव के सामने निवास की समस्या सबसे कठिन थी। उसे सर्दीगर्मी, वर्षा, बाढ़ एवं तूफानों का डर बना रहता था । हिंसक पशु भी उसके लिए भय का कारण थे । इन सबसे बचने के लिए पहले उसने वृक्षों की शाखाओं का सहारा लिया। बाद में वह गुफाओं में शरण लेने लगा। ये। गुफाएँ, तालाबों, नदियों जल स्त्रोतों के निकट प्राप्त हुई हैं। इस काल के मानव का जीवन घुमक्कड़ी था।

(3) खानपान (भोजन)- इस काल में मानव को कृषि का ज्ञान नहीं था । वह भोजन की खोज में इधर-उधर घूमता रहता था और कंदमूलफलों आदि को खाकर अपना जीवन-यापन करता था। कुछ समय पश्चात् मानव ने शिकार करना और माँस खाना भी सीख लिया। इस काल में मानव कच्चा माँस ही खाता था । यह काल मानव जीवन के संघर्ष का काल था ।

(4) वेशभूषा (वस्त्र)- पुरातत्वविदों का मानना है कि इस काल में मानव ने ठण्ड से बचने के लिए पेड़ों के पत्तों व छाल का प्रयोग प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् वह पशुओं की खाल पहनने लगा। इस काल में मानव ने हड्डियों की सुइयाँ बनाकर खालों को सिलना भी सीख लिया था। 

(5) अग्नि का आविष्कार- इस काल के मानव ने अग्नि का भी आविष्कार कर लिया था। यद्यपि यह कहना कठिन है कि आग का आविष्कार किस प्रकार किया गया, किन्तु यह अनुमान लगाया जाता है कि पत्थर की रगड़ से मानव ने चिनगारी निकलती हुई देखी होगी । इस चिनगारी से ही मानव ने आग जलाना सीख लिया होगा। आग के आविष्कार से इस काल के मानव जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। अब वह कच्चे माँस की जगह माँस को पकाकर खाने लगा। आग से वह जंगली पशुओं को डराकर भगाने लगा। इससे मानव ने अपनी सुरक्षा भी कर ली।

(6) मृतक-संस्कार-- खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर ज्ञात होता है कि काल में इस मानव अपने मृतकों को दफना देता था और उसके साथ भोजन तथा अन्य उपयोग की वस्तुएँ भी रख देता था। इस आधार पर अनुमान है कि इस काल में मानव पुनर्जन्म में भी विश्वास करता था ।

(7) कला का विकास- खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर ज्ञात होता है कि इस काल के अन्तिम चरण में मानव ने जंगली पशुओं के चित्र बनाना भी सीख लिया था। अल्तमीरा (स्पेन), लास्को (पश्चिमी फ्रांस) और भारत में भीमबेटका की गुफाओं की दीवारों पर बने चित्र आज भी इस काल के मानव की कला को दर्शाते हैं।

(8) सामुदायिक जीवन- इस काल के प्रारम्भ में आदि-मानव अकेला घूमता था, परन्तु इस काल के अन्तिम चरण में मानव ने जंगली पशुओं और प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए समूह में रहना सीख लिया था तथा एक-दूसरे का सहयोग करने लगा था। इस प्रकार इस काल के अन्तिम चरण में सामुदायिक भावना का विकास होने लगा था।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि पुरा पाषाण कालीन मानव बड़ा अव्यवस्थित था, परन्तु इस काल में मानव सभ्यता के अनेक अंग स्पष्ट रूप से चिह्नित होने लगे थे।

भारत में मध्य पाषाण काल [MESOLITHIC AGE IN INDIA]

कुछ विद्वानों का मानना है कि मध्य पाषाण काल का कोई अस्तित्व नहीं है और पाषाण काल के बाद ही नव पाषाण काल का आरम्भ हुआ था। परन्तु वर्तमान में उत्खनन आधुनिक शोध कार्यों द्वारा ऐसी सामग्री व अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनके आधार पर पुरा पाषाण काल के पश्चात् एक ऐसे युग के तथ्य प्रकाश में आए हैं, जिसे 'मध्य पाषाण काल' का नाम दिया गया। उत्खनन से प्राप्त सामग्री के आधार पर इस काल का समय 8000 ई. पू. से 4000 ई. पू. तक माना जाता है । होमो सैपियन्स जाति के मानव का अस्तित्व इसी काल में माना जाता है।  इस काल में भी मानव जीवन के अवशेष भारत में प्रायः अनेक स्थानों पर पाए गए हैं। इन स्थानों में अभी तक पश्चिमी बंगाल में वीरभानपुर, गुजरात में लंघनज, तमिलनाडु में टेरी समूह, मध्य प्रदेश में आदमगढ़ और राजस्थान के नागौर आदि प्रमुख थे। 1970-74 ई. के मध्य में गंगा नदी के मैदान में भी मध्य पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष विभिन्न स्थानों पर प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए है। 

मध्य पाषाण काल में मानव जीवन [HUMAN LIFE IN MESOLITHIC AGE]

मध्य पाषाण काल में भी मानव का मुख्य पेशा शिकार करना था। खेती और घरों का निर्माण अभी आरम्भ नहीं हुआ था, परन्तु इस काल के मानव ने अपने मृतकों को भूमि में गाड़ना आरम्भ कर दिया था और कुत्ता उसका पालतू पशु बन गया था । इस काल के मानव जीवन का अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) अस्त्रशस्त्र (औजार)- उत्खनन के माध्यम से अनेक स्थानों से इस काल के ब्लेड, प्वाइंट स्क्रेपर, इनग्रेवर, ट्रायंगल एवं क्रेसेण्ट नामक पत्थर के उपकरण प्राप्त हुए हैं। ये उपकरण जेस्पर, फ्लिट, चर्ट एवं कल्सेडानी नामक विशेष पत्थरों से निर्मित किए गए थे। इस काल के मानव ने एक से दो इंच तक के छोटे औजार भी निर्मित किएजिनमें लकड़ी के हैंडिल भी मिलते हैं। छोटे औजारों को लघु अश्म कहा जाता है।

(2) रहन-सहन (निवास स्थान)-  इस काल का मानव सामूहिक रूप से एक स्थान पर रहने लगा था, किन्तु समय-समय पर वह इसमें परिवर्तन करने । इस काल का मानव लगा था। कन्दराओं में व छोटी-छोटी पहाड़ियों पर रहता था।

(3) खानपान तथा पहनावा- इस काल में मानव पशुओं और मछलियों का मांस भूनकर खाने लगा था। इसके अतिरिक्त वह कन्दमूल, फल और अन्य वनस्पति भी खाता था। इस काल के मानव ने शिकार के लिए धनुष-बाण व मछली पकड़ने के लिए काँटो का निर्माण कर लिया था। इस काल का मानव शरीर ढकने के लिए जानवरों की खाल का प्रयोग करता था ।
(4) पशुपालन-  यद्यपि इस काल का मानव पशुपालन से अपरिचित था, लेकिन कुत्ते को उसने अवश्य पालना शुरू कर दिया था, क्योंकि वह शिकार में पालतू कुत्तों की सहायता लिया करता था।

(5) मृतक-संस्कार-- इस काल का मानव शवों को दफनाया करता था। खुदाई से प्राप्त अस्थि-पंजरों से ज्ञात होता है कि इस काल का मानव शवों को दफनाते समय मृतक व्यक्ति के उपयोग की वस्तुएँ व भोजन भी रखता था। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल के मानव में पारलौकिक भावना का जन्म हो गया था।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि इस छोटे से युग में भी मानव सभ्यता ने उन्नति ही की थी।

भारत में नव पाषाण काल [NEOLITHIC AGE IN INDIA)

मध्यपाषाण काल के उपरान्त नवपाषाण काल का प्रारम्भ हुआ । सम्पूर्ण भारत में इस काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो कोलकाता (कलकत्ता),चेन्नई (मद्रास), मैसूर और हैदराबाद के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। भारत में नव-पाषाण कालीन सभ्यता का विकास विभिन्न स्थलों पर हुआ। भारत में कश्मीर (बुर्ज होम), सिन्धु-प्रदेश, उत्तर प्रदेश (मिर्जापुर, बांदा), मध्य प्रदेश (होशंगाबाद),छत्तीसगढ़ (रायगढ़), बंगाल, बिहार, असम, मैसूर (ब्रह्मगिरि), दक्षिण भारत (अर्काट), आदि स्थलों से नव-पाषाण कालीन उपकरण और हथियार प्राप्त हुए हैं। अनेक इतिहासकारों का मानना है कि नवपाषाण कालीन सभ्यता भारत के एक बड़े भू-भाग में फैली हुई थी।

नव पाषाण काल में मानव जीवन [HUMAN LIFE IN NEOLITHIC AGE]

नव-पाषाण काल में मानव ने तीव्रता से प्रगति की । यद्यपि इस काल में मानव के हथियार पत्थर के ही थे, परन्तु उन्हें नुकीला और पॉलिश करके चमकीला बना दिया गया था। इस काल में शस्त्रों की संख्या में वद्धि कर ली गई थी और विभिन्न कार्यों के लिए भिन्नभिन्न प्रकार के हथियार प्रयोग में लाए जाने लगे थे। इस काल में मानव ने अन्य कालों की अपेक्षा अधिक उन्नति कर ली थी। इस काल के मानव जीवन का अध्ययन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(1) हथियार व औजार- नव पाषाण काल में मानव पत्थरों के चिकने, नुकीले, सुडौल, मजबूत, चमकदार और पॉलिशदार हथियार तथा औजार बनाने लगा था। इस समय के हथियार की अपेक्षा अधिक सुव्यवस्थित एवं नुकीले, तीखे व सुन्दर हैं। इस युग का महत्त्वपूर्ण पत्थर की चिकनी कुल्हाड़ी थी । इसके अतिरिक्त हसिया, तीरकमान आदि हथियार भी खुदाई में प्राप्त हुए हैं। कुछ हथियारों में हडी व लकड़ी की झूठ भी प्राप्त हुई है। इस काल के प्राप्त औजारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये औजार केवल आखेट (शिकार) के निर्मित नहीं किए गए हैं,वरन् अन्य दैनिक कार्यों के लिए भी निर्मित हैं।

(2) कृषि- इस काल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस काल का मानव कृषि करने लगा था। इससे पूर्व के मानव को कृषि का ज्ञान नहीं था। अतउस प्राचीन युग में यह कार्य एक महान् क्रान्ति कहा जा सकता है। विल दूरां  का कथन है, "नव पाषाण काल में शिकार के स्थान पर कृषि एक दृष्टि से मानव इतिहास की क्रान्ति थी।" इस काल में कृषि के आविष्कार ने मानव घुमक्कड़ी जीवन को समाप्त कर दिया। इस काल की मुख्य उपज, गेहूं, जौ, मक्का, बाजरा, फल, शाक व कपास आदि थीं। इस काल के मानव ने हल का भी आविष्कार कर लिया था।

(3) पशुपालन- इस काल में मानव ने पशुपालन करना सीख लिया था। मानव का पहला पालतू पशु कुत्ता था। धीरे-धीरे मानव ने बकरी, घोड़ा, भेड़, भैंस, गाय व बैल आदि को भी पालना शुरू कर दिया। पशुपालन से मानव को बहुत से लाभ हुए। उसे नियमित रूप से दूध और माँस मिलने लगा तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सुविधा हो गई।
  
(4) भोजन-  नव पाषाण काल में कृषि का आरम्भ होने से मानव के भोजन में विविधता आ गयी थी। नव पाषाण काल में मानव, माँस तथा फलफूल के अतिरिक्त अनाज तथा दूध का भी प्रयोग करने लगा था। इस काल में गेहूं, जौ, बाजरा आदि प्रमुख भोज्य पदार्थ थे । इस काल का मानव अनाज पीसने के लिए पत्थर के टुकड़ों का प्रयोग करना भी सीख गया था ।

(5) बस्तियों का विकास-  इस काल में कृषि तथा पशुपालन ने मानव को एक स्थान पर रुकने के लिए प्रेरित किया। अतः इस काल में मानव के घुमक्कड़ी जीवन का अन्त हो गया और मानव झोंपड़ियाँ बनाकर एक साथ एक ही स्थान पर रहने लगे। इस तरह गाँवों (बस्तियों) का विकास स्वतः ही हो गया। विश्व में सबसे पुरानी बस्ती के अवशेष फिलिस्तीन के जेरिको नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं।

(6) वस्त्र बुनना— पुरा पाषाण काल का मानव वृक्षों के पत्तों एवं पशुओं की खाल से अपने शरीर को ढकता था, किन्तु नव पाषाण काल में मानव ने पशुओं के बालों तथा पौधों के रेशों से वस्त्र बुनना सीख लिया था। विद्वानों का मत है कि इस काल में कपास की खेती भी होने लगी थी। सूत कातने के लिए तकली तथा कपड़ा बुनने के लिए करघा जैसी मशीनों का आविष्कार भी इसी युग में हुआ था।

(7) मिट्टी बर्तन बनाना- नव पाषाण काल में कृषि  व पशुपालन ने मानव को मिटटी के बर्तन  लिए प्रोत्साहित किया। सम्भवतः नव पाषाण काल में खाद्य सामग्री की को अधिकता के कारण उसे संग्रहीत करने के लिए बर्तनों की जरूरत आ पड़ी होगी । इसी जरूरत ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को जन्म दिया। इस युग में बर्तन हाथ से बनाए जाते थे।

(8) चाक (पहिए) का आविष्कार-  चाक (पहिए) का आविष्कार नव पाषाण काल की ही नहीं वरन् मानव सभ्यता के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसके फलस्वरूप मानव सभ्यता की प्रगति का पहिया तीव्र गति के साथ घूमने लगा। चाक (पहिए) की सहायता से सबसे पहले मानव ने मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन बनाये, फिर कालान्तर में मानव पहिए की सहायता से गाड़ी और रथ का निर्माण भी करने लगा। इसने मानव सभ्यता के विकास में बड़ा योगदान दिया।

(9) धर्म-  इस काल के मानव में धर्म की भावना का भी उदय हुआ । वह सोचने लगा कि वृक्षों, पहाड़ों आदि पर देवी-देवता निवास करते हैं, जो मनुष्यों की सहायता कर सकते हैं। अथवा उसे हानि पहुँचा सकते हैं, अतः उनको प्रसन्न करने के लिए मनुष्य अन्न, दूध व माँस आदि अर्पित करने लगा। इस काल के लोगों का विश्वास, जादू-टोनों तथा कर्मकाण्डों में अधिक बढ़ गया था और वे रोगों को ठीक करने, वर्षा कराने, शत्रु को वश में करने तथा अन्य कामनाओं की पूर्ति के लिए इनका प्रयोग करने लगे थे। इस काल के लोग प्रकृति की विभिन्न शक्तियों की उपासना करते थे तथा पृथ्वी को माता, जल व सूर्य को देवता मानकर पूजा करते थे। उन्होंने नारी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी बनाई, जिन्हें मातृ-देवी मानकर पूजते थे। इस काल के लोग प्रकृति एवं दैवीय शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए मानव एवं पशुबली भी देने लगे थे।

इस प्रकार सम्पूर्ण विवेचन से स्पष्ट है कि यह युग मानव सभ्यता के इतिहास में क्रान्ति का युग था। आग का आविष्कार कृषि, पशुपालन, बर्तन बनाना, वस्त्र बुनना, घास की झोंपड़ी बनाना व चाक (पहिए) का निर्माण वास्तव में हमें चाहे आज के समय में बड़ा अटपटा लगे परन्तु उस युग में महान क्रान्ति ही थी।


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बायोस्फीयर रिजर्व (BIOSPHERE RESERVE)

BIOSPHERE RESERVE
बायोस्फीयर रिजर्व 

बायोस्फीयर रिजर्व (BIOSPHERE RESERVE)

बायोस्फियर रिजर्व ऐसे स्थल होते हैं जहाँ पर (पेड़, पौधे व जन्तुओं) प्राकृतिक (Natural), कम-से-कम प्रभावित (Minimum disturbed), मानव द्वारा रूपान्तरित (Man modified) एवं अवनति प्राप्त (Degraded) पारिस्थितिक तन्त्रों या वन्य जीवों को सुरक्षित रखा जाता है । बायोस्फियर रिजर्व प्रोग्राम को सर्वप्रथम यूनेस्को (UNESCO) द्वारा सन् 1971 में मैन एवं बायोस्फियर प्रोग्राम (Man and Biosphere Programme) के अन्तर्गत प्रारम्भ किया गया था ।

बायोस्फियर रिजर्व के उद्देश्य (Objects of Biosphere Reserve)

बायोस्फियर रिजर्व प्रोग्राम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
(1) प्रत्येक पारिस्थितिक तन्त्र के प्रतिनिधि नमूनों की जानकारी रखना।
(2) लम्बे समय तक आनुवंशिक विविधता का संरक्षण करना।
(3) बेसिक एवं व्यावहारिक अनुसन्धान (Basic and Applied research) को बढ़ावा देना।
(4) जैविक संसाधनों के उचित प्रबन्ध को बढ़ावा देना।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में वृद्धि करना।
(6) शिक्षा एवं प्रशिक्षण के क्षेत्र में नयी सम्भावनाओं को ढूंढना।
संक्षेप में हम कह सकते हैं बायोस्फियर रिजर्व प्रोग्राम (BRP) निम्नलिखित चार सम्मिलित उद्देश्यों (Combined objectives) की पूर्ति हेतु स्थापित किये जाते हैं
(1) संरक्षण (Conservation), (2) शोधकार्य (Research), (3) शिक्षा (Education), (4) स्थानीय भागीदारी (Local involvement)।
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अभयारण्य (SANCTUARIES)

SANCTUARIES
SANCTUARIES

अभयारण्य (SANCTUARIES)

"अभयारण्य (Sanctuaries), ऐसे वृहत् वनक्षेत्र होते हैं जिनकी कोई सीमा निर्धारित नहीं होती हैं, जहाँ पर जीव-जन्तुओं को उनके प्राकृतिक आवास में कम-से-कम मानव हस्तक्षेप के अन्दर संरश्चित किया गया हो, जहां पर पर्यटन (Tourism)  की इजाजत हो, शोधकार्य Research) एवं वैज्ञानिक गतिविधियों का अभाव हो।"
भारत सरकार ने राष्ट्रीय वन-नीति के अन्तर्गत वनस्पति एवं जन्तुओं को विलुप्त होने से बचाने के लिए राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य एवं जन्तु उद्यान स्थापित किए गए हैं। भारत में कुल 103 राष्ट्रीय उद्यान तथा लगभग 543 अभयारण्य, है जिनमें कई वन्य-जीवों को संरक्षित किया जाता है।

भारतवर्ष के प्रमुख अभयारण्य (Important Sanctuaries of India )

हमारे देश के कुछ प्रमुख अभयारण्य निम्न हैं

(1) गिर वन (Gir Forest)- यह गुजरात में स्थित है तथा 500 वर्ग मील में फैला है। यह भारतीय सिंहों का शरणस्थल (Sanctuary) है, लेकिन इसमें चीतल, चिंकारा, साँभर तथा नीलगाय भी पाये जाते हैं।

(2) काजीरंगा अभयारण्य (Kaziranga Sanctuary)- यह असम में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे 40 किमी के क्षेत्र में फैला है। एक सींग वाला गैंडा यहाँ का मुख्य वन्य-जीव है।  

(3) कान्हा अभयारण्य (Kanha Sanctuary)- यह मध्य प्रदेश में स्थित है। यह बाघ, चीता, शेर, जंगली कुत्ते तथा हिरण का अभयारण्य है।
(4) मुदुमलाई  अभ्यारण्य (Mudumalai Sanctuary)- यह तमिलनाडु के नीलगिरि क्षेत्र में स्थित है। यह लंगूर, बन्दर, जंगली सांड, सांभर, चीतल, हाथी, सेही, उड़ने वाली गिलहरी, बोनेट बन्दर, भेड़िया, बाघ, चील आदि का अभयारण्य है।

(5) घाना पक्षी अभयारण्य (Ghana Bird Sanctuary)- यह राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित है। यह साइबेरियन सारस, पनकौआ, बटेर, बगुला, स्टार्क इत्यादि पक्षियों के संरक्षण के लिये प्रसिद्ध है।

(6) बाँदीपुर अभयारण्य (Bandipur Sanctuary)- यह कर्नाटक में स्थित है। यह बाइसन (Bison), जंगली कुत्ते, हाथी, लंगूर, बाघ और सेही का अभयारण्य है।

(7) अन्नामलाई अभयारण्य (Annamalai Sanctuary)- यह तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिले में स्थित है। इसमें विभिन्न प्रकार के हिरण, जैसे—सांभर, चीतल, काँकड़ इत्यादि एवं बाघ, चीता, सांड, सेही तथा लंगूर आदि भी देखे जा सकते हैं।

(8) मानस अभयारण्य (Manas Sanctuary)- यह असम में हिमालय की निचली पहाड़ियों में स्थित है। जंगली हाथी, बाघ, जंगली भैस तथा पक्षियों में बतख, पैलिकन नामक वन्य-जीव इसमें पाये जाते हैं। इसे उत्तरी कामरूप शरणस्थल भी कहते हैं।

(9) पेरियार अभयारण्य (Periyar sanctuary)- यह केरल राज्य में 1900 फुट की ऊँचाई पर एक झील के चारों तरफ स्थापित है। इस अभयारण्य में सांभर, काँकड़, जंगली सुअर, साँड़, हाथी, जंगली कुत्ते और बाघ पाये जाते हैं।

(10) जलदापारा अभयारण्य (Jaldpara Sanctuary)- यह पश्चिम बंगाल में स्थित गैंडों का अभयारण्य है।

(11) मुन्डन्थुराई अभयारण्य (Mundanthurai Sanctuary)- यह तमिलनाडु में स्थित बाघ, चीता, सांभर, चीतल एवं तेंदुआ का शरणस्थल है। इसकी स्थापना सन् 1962 में की गई थी।

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भारत के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान [IMPORTANT NATIONAL PARKS OF INDIA]

IMPORTANT NATIONAL PARKS OF INDIA
राष्ट्रीय उद्यान 

राष्ट्रीय उद्यान (NATIONAL PARK)

राष्ट्रीय उद्यान ऐसे बड़े क्षेत्र हैं, जहाँ पर जीव-जन्तुओं (पौधे व जन्तु) को मानव प्रबन्धन के अन्तर्गत संरक्षित रखा जाता है। सन् 1969 में नई दिल्ली में IUCN की एक सभा ने इसे निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
"एक राष्ट्रीय उद्यान अपेक्षाकृत बड़ा क्षेत्र होता है। (1) जिसमें एक या अधिक पारिस्थितिक तंत्र, प्राकृतिक रूप से मानव विघटनकारी कार्यों एवं अतिक्रमण से खराब नहीं हुए हों जिसमें पौधे एवं जन्तुओं की प्रजातियों तथा विशेष वैज्ञानिक शिक्षा एवं आमोद-प्रमोद प्राकृतिक या भूस्थलीय स्थान या दृश्य हो अथवा जिसमें अत्यन्त प्राकृतिक सुन्दर दृश्य हों। (ii) जहाँ देश के बसे महान् व्यक्ति ने सम्भावित दुर्दशा या अतिक्रमण को रोकने के लिए या पूरे क्षेत्र से इनको हटाने के लिए प्रयत्न किये हों, अथवा पारिस्थितिक, जियोमोर्फोलॉजिकल (Geomorphological) या एस्थेटिक (Ashetic) कारणों से इसका रख-रखाव किया गया हो और (iii) जहाँ पर्यटकों को विशेष परिस्थितियों, जैसे-शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं आमोद-प्रमोद के उद्देश्यों के लिए जाने का प्रावधान हो।"

भारत के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान [IMPORTANT NATIONAL PARKS OF INDIA]

यद्यपि भारत में अनेक राष्ट्रीय उद्यान स्थापित किये गये है, परन्तु अभी इनकी स्थापना की गति धीमी है। कुछ प्रमुख  भारत के प्रमुख राष्ट्रीय उद्यान निम्नलिखित है-

(1) राजाजी पार्क (Rajaji Park)— यह उत्तर प्रदेश (अब उत्तरांचल) के पाटलीदून (Patlidun) के पास स्थित है। इसका पुराना नाम हैलीपाक (Halipark) है तथा इसका क्षेत्रफल 99.97 वर्ग मील है। इस पाक में किसी भी प्रकार के वन्य जीव तथा उनके बच्चों को मारना अपराध माना गया है।

(2) चमराज नगर राष्ट्रीय पार्क (Chamraj Nagar National Park)- यह मसूर (कर्नाटक) के जंगलों में स्थित है। इस क्षेत्र में ही हाथी काफी अधिक संख्या में पाये जाते हैं। अत: इस पार्क का निर्माण विशेषकर इन हाथियों के संरक्षण के लिए किया गया है।

(3) गिर राष्ट्रीय पार्क (Gir National Park)- यह गुजरात में स्थित है तथा इसकी स्थापना विशेषकर एशियाई सिह (Asiatic Lion) के लिए की गयी है।  लगभग 50 वर्ष पहले सिंह सम्पूर्ण मध्य भारत एवं उत्तर भारत में पाये जाते थे, परन्तु अब ये केवल इसी पार्क में पाये जाते हैं।

(4) काजीरंगा राष्ट्रीय पार्क (Kaziranga National Park)- यह आसाम में स्थित है एवं राइनोसिरोस  (Rhinoceros) के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया है। इसके प्रजनन के लिए यहाँ विशेष व्यवस्था की गयी है। फलस्वरूप पिछले 10 वर्षों में इनकी संख्या में वृद्धि हुई है।

(5) जिमकॉर्बेट राष्ट्रीय पार्क (Jim Corbett National Park)- यह उत्तराखण्ड में स्थित है तथा इसमें विभिन्न प्रकार के वन्यजीव जैसे-हाथी, बाघ, तेंदुआ, भेड़िया आदि को संरक्षित किया गया है।

(6) कान्हा राष्ट्रीय पार्क (Kanha National Park)- यह मध्य प्रदेश में स्थित है तथा बाघ संरक्षण पार्क के रूप में प्रसिद्ध है। भारत सरकार द्वारा यहाँ टाइगर परियोजना (Tiger project) शुरू किया गया है। इस पार्क को दो क्षेत्रों में बांटा गया है, 'कोर क्षेत्र' एवं 'बफर क्षेत्र'। कोर क्षेत्र पार्क के केन्द्र में स्थित है, जिसका क्षेत्रफल 940 वर्ग किमी है । बफर क्षेत्र कोर क्षेत्र के चारों  ओर फैला है तथा इसका क्षेत्रफल 1005 वर्ग किमी है । कोर क्षेत्र में मानव गतिविधियाँ तथा जानवरों की कराई बिलकुल ही प्रतिबन्धित हैं।

(7) बान्धवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान (Bandhavgarh National Park)- यह मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में स्थित  है। एवं इसका क्षेत्रफल 104 वर्ग किमी है। इसमें अनेक वन्यप्राणी, जैसे सांभर, गौर, गीदड़, चौसिंघा, नीलगाय, हायना आदि  को संरक्षित किया गया है।  विश्व प्रसिद्ध सफेद बाघ सर्वप्रथम इसी पार्क में खोजा गया था।

(8) इन्द्रावती राष्ट्रीय उद्यान (Indravati National Park)- यह छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर संभाग में स्थित है। एवं इसका क्षेत्रफल 1258 वर्ग किमी है। यहाँ बाघ, तेंदुआ, बारहसिंघा, जंगली भैसा आदि जानवरों को विशेष संरक्षण प्राप्त है। 1940 में इसे ‘टाइगर संरक्षण केन्द्र' (Tiger Reserve Centre) घोषित किया गया है। उचित प्रयासों के फलस्वरूप इस पार्क बाघों की संख्या बढ़ी है।

(9) कांगेर राष्ट्रीय उद्यान (Kanger National Park)- यह उद्यान छत्तीसगढ़ के बस्तर में स्थित है। इसका क्षेत्रफल 200 वर्ग किमी. है तथा इसमें बाघ, तेन्दुआ, साँभर, चीतल आदि वन्य जीव पाये जाते हैं।

(10) संजय राष्ट्रीय उद्यान (Sanjay National Park)— यह मध्य प्रदेश के सीधी जिले तथा छतीसगढ़ के सरगुजा जिले में स्थित है। इसका क्षेत्रफल 1938 वर्ग किमी है । यहाँ बाघ, तेन्दुआ तथा चीतल के अलावा अन्य कई वन्य जीव प्राणी जाते हैं।
नोट-संजय राष्ट्रीय उद्यान को वर्तमान में गुरु घासीदास राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है।
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जीव विज्ञान - जैव-विविधता का संरक्षण (CONSERVATION OF BIODIVRSITY)

CONSERVATION OF BIODIVRSITY
जैव-विविधता का संरक्षण 

जैव-विविधता का संरक्षण (CONSERVATION OF BIODIVRSITY)

मनुष्य की जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि (Populaion explosion) के कारण जैव-विविधता में लगातार कमी आ रही है। जिसके कारण वनों की लगातार कटाई हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप जीवों के प्राकृतिक आवास (Natural habitat) समाप्त होते जा रहे हैं। अत: जैव-विविधता का संरक्षण अतिआवश्यक हो गया है। सम्पूर्ण पृथ्वी पर उपस्थित वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आती जा रही है और आज उसके 55 भाग पर ही वन शेष बचे हैं। विश्व में प्रतिवर्ष 1,00,000 वर्ग किमी क्षेत्रफल में उपस्थित वनों की कटाई हो रही है। भारतवर्ष में प्रतिवर्ष वनों की कटाई की दर 13,000 वर्ग किमी है। इस प्रकार जैव-विविधता में वनों की कटाई एवं पर्यावरण प्रदूषण के कुप्रभावों के कारण लगातार कमी आ रही है, अत: संरक्षण करना अतिआवश्यक है, अन्यथा एक दिन ऐसा आयेगा जब पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जीवधारी समाप्त हो जायेंगे।
जैवविविधता के संरक्षण करने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं
(1) वनों एवं प्राकृतिक सम्पदा (Natural wealth) तथा उसकी जैविक परिपूर्णता (Biological richness) को संरक्षित रखने के लिए।
(2) वायुमण्डल में उपस्थित ओजोन स्तर (Orone layer ) के विघटन, अम्ल वर्ष (Acid rein) एवं पृथ्वी के बढ़ते हुए तापक्रम पर नियन्त्रण करने हेतु। 
(3) अपनी दैनिक आवश्यकताओं (Daily needs), जैसे- भोजन (Food), रेशे (Fibres), इंधन (Fuel) एवं अन्य आवश्यक सामग्रियों की पूर्ति हेतु ।
(4) मनुष्य के अस्तित्व की रक्षा करने हेतु, जो कि प्रजाति विविधता में कमी के कुप्रभावों से आशंकित हैं।
(5) नई हर्बल औषधियों (Herbal medicine), पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं (Nuritional needs), पूरक भोजन
(Supplementary food) प्राप्त करने हेतु ।
(6) पर्यावरण सन्तुलन को बनाये रखने के लिए।

जैव-विविधता संरक्षण के उपाय (Methods of Conservation Biodiversity)

जैव-विविधता के महत्वों को देखते हुए इसका संरक्षण करना अतिआवश्यक हैं। जैव-विविधता के संरक्षण हेतु निम्नलिखित तीन स्तरों पर प्रयास किये जा रहे हैं-
(1) आनुवंशिक विविधता का संरक्षण (Conservation of genetic diversity) आनुवंशिक विविधता के संरक्षण से उस जाति का संरक्षण सम्भव होता है।
(2) जाति विविधता का संरक्षण (Conservation of species diversity)
(3) पारिस्थितिक तन्त्र की विविधता का संरक्षण (Conservation of ecosystem diversity)।
विविधता का संरक्षण निम्नलिखित दो विधियों के द्वारा किया जा सकता है - 
(A) इन- सिटू संरक्षण (In-situ conservation) एवं
(B) एक्स-सिटू संरक्षण (Ex-situ conservation), दोनों प्रकार के संरक्षण एक-दूसरे के पूरक होते हैं।

(A) इन- सिटू संरक्षण (In-situ conservation)- इसके अन्तर्गत जैव-विविधता का संरक्षण उनके मूल आवासों (Original habitats) में ही किया जाता है। हमारे देश में जैव-विविधता के संरक्षण हेतु भारत सरकार ने सन् 1952 में इण्डियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्थापना की है जो कि वन्य-जीवन एवं जैव-विविधता के संरक्षण हेतु निम्नलिखित उपाय अपनाती है-
(1) राष्ट्रीय उद्यानों (National parks) की सहायता से,
(2) अभ्यारण्यों (Sanctuaries) की सहायता से,
(3) प्राणी उद्यानों (zoological parks) की सहायता से।
जून, 1992 तक हमारे देश राष्ट्रीय उद्यान तथा 41 अभ्यारण्य शरणस्थल (Sanctuaries) स्थापित थे। भारत सरकार ने जन्तुओं को उनके स्वयं के पारिस्थितिक तन्त्र में प्रतिबन्धित विकास (Unhindered evoluto) हेतु  बायोस्फियर रिजर्व (Biosphere reserve) की स्थापना की है।

(B) एक्स-सिटू संरक्षण (Ex-situ conservation)- इसके अन्तर्गत जीवों एवं पेड़-पौधों का संरक्षण उनके मूल आवास से दूर ले जाकर किया जाता है। इसके अन्तर्गत पौधों का संरक्षण निम्नलिखित प्रकार के माध्यम से पेड़-पौधों को उनके आवास से दूर स्थापित विभिन्न स्थानों एवं प्रयोगशालाओं में किया जाता है-
(1) वानस्पतिक उद्यानों (Boanical gardens) में,
(2) वानिकी अनुसंधान संस्थाओं (Forestry Research Institutions) में,
(3) कृषि अनुसंधान केन्द्रों (Agricultural Research Institutions) तथा अन्य संरक्षण साधनों के द्वारा।

एक्स-सिटू संरक्षण संरक्षण में पौधों के संरक्षण हेतु निम्नलिखित तीन तकनीकों का उपयोग किया जाता है।
(1) बीज बैंक (Seed Bank),
(2) जीन बैंक (Gene Bank),
(3) इन विट्रो स्टोरेज विधि (In vitro storage method)।
भारतवर्ष में वर्तमान स्थिति में लगभग 33 वानस्पतिक उद्यान, 33 विश्वविद्यालयीन जैविक उद्यान (University Biological Gardens), 107 चिड़ियाघर (Zoo), 49 मृग उद्यान (Dear park) तथा 24 प्राकृतिक प्रजनन केन्द्र (Natural Breeding Centres) इन क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
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जीव विज्ञान - लुप्तप्राय या संकटापन्न जीव [ENDANGERED SPECIES]

ENDANGERED SPECIES
ENDANGERED SPECIES

लुप्तप्राय या संकटापन्न जीव (ENDANGERED SPECIES)

अब विभिन्न कारणों से विश्व के कई जीव को कभी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते थे, या तो विलुप्त हो गये हैं या जल्दी ही विलुप्त होने वाले हैं। अकेले हमारे देश में अब तक लगभग 200 किस्म के पशु-पक्षी विलुप्त हो चुके हैं तथा लगभग 800 किस्म के वन्य जीवों के विलुप्त होने की आशंका है। इनमें से भी लगभग 250 किस्म के वन्य जीव तो विलुप्त होने के लिए तैयार हैं। उदाहरणार्थ- पिग्मी, चिम्पांजी, तेंदुआ (Leopard), सिंह (Lion), चीता (Cheetah), बाघ (Tiger), जगुआर (Jaguar, एक प्रकार का चीता), ध्रुवीय भालू, हाथी, पर्वतीय गोरिल्ला, गैंडे की कई जातियाँ तथा कुछ पक्षियों, जातियां विलुप्तप्राय हैं, क्योंकि मनुष्य इनका अन्धाधुन्य उपयोग- शिकार, भोजन, त्वचा इत्यादि के लिए करता आ रहा है।
इसी प्रकार पौधों की बहुत-सी प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं तथा शेष विलुप्तता के कगार पर खड़ी हैं।
उदाहरणबारबेरिस, नीलग्रिएन्सिस, बेंटेकिया निकोबेरिका, क्यूप्रेशस केशमेरिआनो आदि।

लप्तप्राय या संकटापन्न प्रजातियों के प्रकार (Types or Endangered Species)

 द इण्डियन प्लाण्ट्स रेड डाटा बुक में संकटापन्न प्रजातियों को निम्नलिखित समूहों में किया गया है-
(1) विलुप्त (Extinct)- ऐसे पौधे, जो कि पूर्व में किसी स्थान विशेष में पाये जाते थे, लेकिन वर्तमान में वे अपने प्राकृतिक स्थानों से लुप्त हो गये हैं, उन्हें ही विलुप्त प्रजातियाँ कहते हैं। ऐसे पौधे जब उनके प्राकृतिक आवास स्थानों पर उपलब्ध नहीं होते, तब इन्हें विलुप्त प्रजाति माना जाता है। अत: इनका संरक्षण असम्भव होता है।

(2) लुप्तप्राय (Endangered)- ऐसी पादप प्रजातियाँ जो कि लुप्त होने की स्थिति में हों एवं यदि वही पारिस्थितिक परिस्थितियाँ बनी रहें, तब उन्हें विलुप्त होने से नहीं बचाया जा सकता है अर्थात् जिन प्रजातियों के लुप्त होने का खतरा बना रहता है। उन्हें लुप्तप्राय या इनडेन्जर्ड प्रजाति कहते हैं। ऐसी प्रजातियों की संख्या धीरे-धीरे इतनी कम हो जाती है कि उनमें प्रजनन की सम्भावनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं, जिसके कारण धीरे-धीरे ये विलुप्त होने लगती हैं।
(3) वल्नरेबल (Valnerable)- ऐसी पादप प्रजातियाँ जो कि कुछ ही समय में लुप्तप्राय स्थिति में पहुँचने वाली हों, उन्हें ही वल्नरेबल प्रजातियां कहते हैं। यदि इन्हें लगातार उन्हीं पारिस्थितिक स्थितियों का सामना करना पड़ता है, तब ये प्रजातियाँ भी लुप्त होने लगती है। 
(4) दुर्लभ (Rare)- ऐसी पादप प्रजातियाँ जो कि संसार में कहीं-कहीं पर और बहुत कम संख्या में उपलब्ध हों, उन्हें ही दुर्लभ प्रजातियाँ कहते हैं। ऐसी प्रजातियां प्रारम्भ से ही लुप्तप्राय या वल्नरेबल नहीं होतीं लेकिन धीरे-धीरे लुप्तप्राय स्थिति में आ जाती हैं और अन्त में समाप्त हो जाती हैं।
(5) अपर्याप्त जानकारी (Insufficient knowledge)- ऐसी पादप प्रजातियाँ जिनके सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता है कि वे किस समूह (1 से 4) के अन्तर्गत आते हैं, ऐसी प्रजातियों के बारे में हमें सही जानकारी नहीं मिल पाती, लेकिन धीर-धीर ये लुप्तप्राय स्थिति में आ जाती है।
(6) खतरे से बाहर (Out of dange)- ऐसी समस्त पादप प्रजातियाँजो कि उपरोक्त श्रेणियों (1 से 5) के अन्तर्गत पहुँच चुकी होती हैं, लेकिन उनके संरक्षण के पश्चात् पूर्व के वास्-स्थान पर स्थापित हो जाती हैं, उन्हें इस समूह के अन्तर्गत रखा जाता है।
सन् 1980 में भारतीय वानस्पतिक सर्वे संस्थान (Boanical Suracy of India) ने ‘थ्रेटेण्ड प्लांट ऑफ  इण्डिया' (Threatened Plants of India) नामक पुस्तक में संकटापन्न पौधों का वर्णन किया है। सन् 1984 में बी.एस.आई. (BSI) ने पुन: एक नयी पुस्तक "द इण्डियन प्लाण्ट्स रेड डाटा बुक" (The Indian Plants Red Data Book) का प्रकाशन किया, जिसमें 125 संकटपन्न  आवृत्तबीजी पौधों का वर्णन किया गया हैं।
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जीव विज्ञान - रेड डाटा बुक [RED DATA BOOK]

रेड डाटा बुक 

रेड डाटा बुक  [RED  DATA BOOK]

विश्व संरक्षण संघ (World Conservation Union) जिसे पूर्व में अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक एवं प्राकृतिक सम्पदा संरक्षण संघ (I.U.C.N. or IUCNNR) के नाम से जाना जाता था, के अनुसार विश्व के सभी भागों में विभिन्न कारणों से जैवविविधता में लगातार कमी आती जा रही है। यदि यही स्थिति रही तो पृथ्वी से महत्वपूर्ण प्रजातियों के विलुप्त हो जाने का खतरा और बढ़ जाएगा। इसे ध्यान में रखते हुए IUCN ने एक रेड डाटा बुक (Red data book) प्रकाशित की, जिसमें संकटापन्न जीवों की प्रजातियों के प्रकार तथा उन प्रजातियों का वर्णन किया गया है जो कि विलोपन के खतरे से गुजर रही हैं। यह पुस्तक सर्वप्रथम 1963 में प्रकाशित की गयी थी। 2004 में इसे संशोधित कर प्रकाशित किया गया है।
 IUCN के पाँच वर्ग जो संरक्षण के लिये बनाये गये थे उसका उपयोग विश्व संरक्षण मॉनीटर केन्द्र (World Conservation Motoring centure) ने किया और लगभग 60000 पादप और 2000 प्राणियों की जाति को खतरों से चिन्हांकित कियाइन प्राणियों का वर्णन रेड डाटा बुक (Red Data Book) में किया गया है। रेड डाटा बुक में प्रकाशित जातियों को थ्रेटेन्ड जाति (Threatened species) का नाम दिया गया।  IUCN के तीन वर्ग-संकटापन्न (Endangered), सुभद्य (Vulnerable) एवं दुर्लभ (Rare) प्रजातियाँ इस थ्रेटेन्ड जातियों के अन्तर्गत आते हैं। रेड डाटा बुक में पादप जातियों का वर्णन अधिक है लेकिन कुछ प्राणी समुदाय भी इसके अन्तर्गत आते हैं , जैसे-मछली, जिनकी जातियों की संख्या (343) है, उभयचर जिनकी जातियों की संख्या (50), इसी प्रकार सरीसृप (170), अकशेरुकी (1355), पक्षी (103) एवं स्तनधारियों की (497) जातियाँ शामिल हैं। इसके पश्चात् IUCN ने 1978 में प्लांट रेड डाटा बुक का प्रकाशन किया और सन् 1988 में IUCI ने रेड डाटा लिस्ट ऑफ ग्रेटेड एनिमल्स  (Red Data List of Treatened Animals) का प्रकाशन किया।

इन पुस्तकों को प्रकाशित करने का प्रमुख उद्देश्य निम्नानुसार हैं-
(1) संकटप्राय प्रजातियों के प्रति जनजागरण उत्पन्न करना एवं सूचना प्रसारित करना।
(2) संकटग्रस्त प्रजातियों को पहचानकर उनका अभिलेख तैयार करना।
(3) भूमण्डलीय स्तर पर जैव-विविधता का आकलन कर भूमण्डलीय सूचकांक जारी करना।
(4) स्थानीय स्तर पर संरक्षण की प्राथमिकता निर्धारित करना तथा जैवविविधता को पूर्वावस्था में लाने के लिए प्रेरित करता।
(5) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जैव-विविधता करार कर सभी देशों में इसका पालन सुनिश्चित करना।
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जीव विज्ञान- जैवविविधता के तप्त (प्रमुख) स्थल (Hotspots of Biodiversity)

Hotspots of Biodiversity
Hotspots of Biodiversity

जैवविविधता के तप्त (प्रमुख) स्थल (Hotspots of Biodiversity)

विश्व के ऐसे स्थल जहाँ किसी प्राणी अथवा वनस्पति की अधिकता हो या निरंतर घट रही दुर्लभ प्रजातियां हों, जैव-विविधता के उस बिन्दु या तप्तस्थल Hotspots of biodiversity) कहलाते हैं।

दूसरे शब्दों, विश्व के ऐसे स्थल जहाँ बिना मानवीय हस्तक्षेप के पौधे एवं जीवजन्तु फलते-फूलते हैं। जहाँ पर अत्यधिक मात्रा में वनस्पति व जीव-जन्तुओं की प्रजाति में विविधता पायी जाती है। ऐसे स्थल -बिन्द जैव-विविधता के तप्त स्थल या उष्णा कहलाते हैं।
विश्व के उष्णकटिबंधीय क्षेत्र, जो जैव-विविधता से संपन हैं जहाँ जैव-विविधता के प्रजातियों का विलुप्तीकरण तथा आवास विनाशीकरण की संभावना होती है जैव-विविधता के उष्ण बिन्दु हैं। हमारी पृथ्वी पर 12 मेगा जैव-विविधता वाले क्षेत्रों की पहचान की गयी है। जिसमें विश्व की जैवविविधता की 60-70% जातियाँ शामिल हैं। इन सेक्टर्स को मैगजीन सेन्टर्स कहते हैं। भारत इन देशों में से एक है-
(1) मैक्सिको, (2) कोलम्बिया, (3) ब्राजील, (4) पेरू, (5) इक्वेडोर, (6) जायेर , (7) मेडागास्कर, (8) इण्डोनेशिया, (9) मलेशिया, (10) भारत, (11) चीन, (2) आस्ट्रेलिया शामिल हैं।

भारतवर्ष के जैव-विविधता के तप्तस्थल (Hotspots of Biodiversity in India)

भारत में दो तप्तस्थल (Hotspot) पाये जाते हैं जिसमें से- . 1पूर्वी हिमालय (Eastern Himalaya), 2. पश्चिमी घाट (Westem Ghat) हैं। जिनमें बहुत अधिक पौधे (Plants), जन्तुएँ (Animals), कीट, (Insects), पक्षी (Birds), सरीसृप (Reptiles) आदि पाये जाते हैं। निरन्तर वनों के विनाश एवं बढ़ती मानवीय गतिविधियों के कारण पश्चिमी घाट की जैवविविधता को सर्वाधिक खतरा है।  
उदाहरण- भारतवर्ष में अध्ययन किये गये पुष्पीय पौधों (Poweing plants) की 15000 प्रजातियों (Species) में से लगभग ,000 प्रजातियाँ (Speciesकेरल के पश्चिमी घाट (Western valeyof Kerala) में पायी जाती हैं। इसी प्रकार भारत में पाये जाने वाले कुल प्राणी-प्रजातियों (Animals species) में से लगभग एकतिहाई (One third or 1/3)  प्राणी केरल के पश्चिमी घाट में पाये जाते हैं। 
जीव विज्ञान- जैवविविधता के तप्त (प्रमुख) स्थल (Hotspots of Biodiversity) जीव विज्ञान- जैवविविधता के तप्त (प्रमुख) स्थल (Hotspots of Biodiversity) Reviewed by rajyashikshasewa.blogspot.com on 7:13 PM Rating: 5

जीव विज्ञान-जैव विविधता में कमी या हानि [LOSS OF BIODIVERSITY]

LOSS OF BIODIVERSITY
जैव-विविधता 

जैव-विविधता में कमी या हानि [LOSS OF BIODIVERSITY]

जैव विविधता में विगत वर्षों से लगातार कमी आती जा रही है जैव विविधता में कमी के प्रमुख कारण मानव का प्रकृति में बढ़ता हस्तक्षेप है।  जैव विविधता में कमी निम्न कारणों से होती है-
(A) प्राकृतिक कारण एवं (B) मानव निर्मित कारण 

(A) प्राकृतिक कारण (Natural Factors)

(1) मृदा, वायु एवं जल प्रदूषण (Soil, air, and water pollution)।
(2) बाढ़, सूखा एवं भूकंप।
(3) अत्यंत कम आबादी का होना या क्रांतिक जनसंख्या का होना।
(4) विदेशी या एक्जॉटिक प्रजातियों का आगमन 
(5) परागण करने वाली स्रोतों (Pollinators) की कमी।
(6) संमरामक रोग।

(B) मानव निर्मित कारक (Man-made factors)-

(1) आवासों का नष्ट होना (Destruction of habitat)- 

मनुष्य अपने स्वार्थ की पूर्ति जैसे- आवास एवं घास के मैदान बनाने, कृषि, खनन, उद्योगों की स्थापना, राजमार्गों एवं सड़कों के निर्माण विस्तार, बांध आदि बनाने के लिए वनों या पेड़ पौधों एवं जंतुओं के प्राकृतिक आवासों को नष्ट कर रहा है जिसके कारण वहां पर उपस्थित जीव-जंतु दूसरे स्थानों पर चले जाते हैं अथवा वे शिकारी का शिकार हो जाते हैं अथवा उनके लिए भोजन की कमी हो जाती है तथा वे रोगों का शिकार हो जाते हैं, जिसके कारण जिसके कारण उस स्थान की जैव-विविधता समाप्त हो जाती है। उदाहरण- हमारे देश में अकेले पश्चिमी घाट में तितलियों की लगभग 370 प्रजातियां उपलब्ध है, जिसमें से लगभग 70 प्रजातियाँ आज विभिन्न कारणों से लुप्तता के कगार पर पहुंच चुकी है

(2) शिकार (Hunting)- 

मनुष्य प्राचीनकाल से ही अपने भोजन एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जन्तुओं का शिकार करता आया है। जन्तुओं में खाल, टस्क, फर, मांस, औषधियाँ, इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री एवं शोभाकारी या सजावटी सामग्री के लिए उनका शिकार किया जाता है तथा इनका व्यावसायिक उपयोग किया जाता है, जिनके कारण जन्तु विविधता में कमी आती जा रही हैं।

(3) अतिदोहन (Over exploitation)- 

प्रकृति में उपस्थित पेड़-पौधों एवं जन्तुओं का विभिन प्रकार से उपयोग किया जाता है। आर्थिक रूप से उपयोगी प्रजातियों के साथ-साथ प्रयोगशाला में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों एवं जीव-जन्तुओं का उपयोग वृहत स्तर पर होने के कारण उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है और वे विलुप्तता के कगार पर पहुँच चुके हैं। उदाहरण-घटपर्णी, नीटम, साइलोटम पौधे एवं मेढक (राना टिग्रिना) एवं जंतु व्हेल मछली का उपयोग ओषधि बनाने एवं मांस प्राप्त करने में लगातार होने के कारण आज इनकी संख्या भी कम होती जा रही है।
प्रकार पोडोफाइलम एकोनीटम, डायस्कोरिया, राजल्फिया, काप्टिस जैसे पौधों का औषधीय उपयोग होने के कारण इनकी संख्या भी लगातार कम होती जा रही है। इस प्रकार ये अतिदोहन का शिकार हो चुके हैं।

(4) अजायबघरों व अनुसंधान हेतु संग्रहण (Collection for zoo and researches)-

आज सम्पूर्ण विश्व में जंगली पादप एवं जन्तु प्रजातियों को अध्ययन अनुसंधान कार्य एवं औषधियाँ प्राप्त करने के लिए जैविक प्रयोगशालाओं में संग्रहीत किया जा रहा है तथा मनोरंजन हेतु उन्हें अजायबघरों में कैद किया जा रहा है। बन्दर, चिम्पांजी जैसे- प्राइमेट्स का उपयोग अनुसंधान शालाओं में उनके आन्तरिक संरचना एवं अन्य प्रकार के अध्ययनों में किया जाता है, जिसके कारण इनकी संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। 

(5) विदेशज प्रजाति का परिचय (Introduction of exotic species)-

आज हम विभिन्न प्रकार की विदेशी पादप एवं जन्तु प्रजातियों का आयात कर अपने स्वार्थ की पूर्ति करते हैं। इन विदेशी पादप प्रजातियों के आगमन या परिचय के कारण देशी प्रजातियों के समक्ष भोजन एवं आवास जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं।

(6) कीटनाशकों का उपयोग (Use of pesticides)-

कीटनाशी एवं खरपतवारनाशी रसायनों के उपयोग ने भी जैव
विविधता को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया है। इसके लगातार उपयोग के कारण बहुत-सी पादप एवं जन्तु प्रजातियाँ समाप्त होती जा रही हैं।

(7) प्रदूषण (Polution)-

पर्यावरण प्रदूषण आज सर्वाधिक विकराल समस्या है, जिसके कारण आज वायु, जलमृदा, समुद्र, तालाब आदि प्रदूषित हो चुके हैं। इनके कारण जीवधारियों को साँस लेने हेतु शुद्ध वायु पीने के लिए शुद्ध जल, पौधों की वृद्धि के लिए शुद्ध मृदा एवं जलीय जन्तुओं के आवास हेतु प्रदूषण रहित जल मिलना मुश्किल हो गया है। अत: वे विभिन्न प्रकार की बीमारियों का शिकार होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप इनकी मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार प्रदूषण के कारण भी जैव-विविधता में लगातार
कमी होती जा रही है।

(8) पारिस्थितिक स्थानापन्न (Ecological sub-stitution)-

जब किसी स्थान पर कोई नई प्रजाति का समावेश किया जाता है तो वह प्रजाति उस स्थान के अधिकांश भाग को घेर लेता है, जिसके कारण पूर्व की प्रजातियाँ स्थानाभाव के कारण लुप्त होने लगती हैं।

(9) अन्य कारण (Other causes)-

(i) जीवों की प्रजनन क्षमता में कमी होना।
(ii) खाद्य श्रृंखला में जीवधारी की स्थिति।
(iii) वितरण समा।
(iv) विशिष्टीकरण की सीमा ।
(v) सामाजिक एवं आर्थिक कारण।
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बाल विकास एवं अभिज्ञान [Child development]

Psychology
Psychology

बाल विकास एवं अभिज्ञान

1. मनोविज्ञान के जनक माने जाते है?- विलियम जेम्स
2. मनोविज्ञान को व्यवहार का निश्चित विज्ञान किसने माना है? - वाटसन
3. मनोविज्ञान अध्ययन है  - व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन
4. साइकोलॉजी शब्द जिन दो शब्दों से मिलकर बना है, वह है - Psyche + Logos
5. शिक्षा को सर्वागीण विकास का साधन माना है- महात्मा गाँधी ने
6. मनोविज्ञान को मस्तिष्क का विज्ञान मानने वाले विद्वान कौन थे?- पॉम्पोनॉजी
7. मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान किसने माना ?- वुन्ट, वाइव्स और जेम्स ने
8. प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के जनक कौन थ?- वुंट
9. वर्तमान में मनोविज्ञान को माना जाता है- व्यवहार का विज्ञान
10. मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्तक कौन सी - फ्रायड
11. मानसिक परीक्षण की विधि विकसित करने वाले विद्वान कौन थे- बीने
12. मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान नही है - शिक्षा के सैद्धांतिक पथ पर बन
13. आधुनिक मनोविज्ञान का सम्बंध व्यवहार की खोज से है।" यह परिभाषा किसकी है?- मन की
14. मनोविज्ञान के अंग्रेजी पर्याय 'साइकोलॉजीशब्द की व्युत्पत्ति हुई - ग्रीक भाषा से
15. शिक्षा मनोविज्ञान की विषय सामग्री संबंधित है- सीखना
16. मनोविज्ञान को विशुद्ध विज्ञान माना है- जेम्स ड्रेवर
17. "मनोविज्ञान मन का वैज्ञानिक अध्ययन है।" कथन किसका है- वैलेंटाइन
18 . मनोविज्ञान है - विधायक विनीत
19. मनोविज्ञान के अन्तर्गत किसका अध्ययन किया जाता है - मानव जीवजन्तु तथा संसार के अन्य सभी प्राणियों का अध्ययन
20. व्यवहारवाद का जन्मदाता किसे माना जाता है?- वाटसन
21. शिक्षा में मनोवैज्ञानिक आंदोलन का सूत्रपात किसने किया -स्सो ने
22. "शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापको की तैयारी की आधारशिला है।" यह कथन किसका है?- स्किनर
23. कोलसनिक शिक्षा मनोविज्ञान का आरम्भ किससे मानते है?- प्लेटो से
24. मूलप्रवृत्तियाँ सम्पूर्ण मानव व्यवहार की चालक है। किसने कहा? -मैक्डूगल
25. शिक्षा मनोविज्ञान ने स्पष्ट व निश्चित स्वरुप कब धारण किया?- अमरीकी मनोवैज्ञानिक थार्नडाइक, जुड, स्टेनले हाल
टरमन आदि के प्रयासों से शिक्षा मनोविज्ञान ने 1920 ई. में स्पष्ट व निश्चित स्वरुप धारण किया।
26. मनोविज्ञान का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान है- बाल केंद्रित मूल्यांकन और पाठ्यक्रम
27. शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन किया जाता है - मूल प्रवृत्तियों अनुशासन और अधिगम
28. शिक्षण का मुख्य केंद्र होता है? - बालक
29. "मनोविज्ञानशिक्षक को अनेक धारणाएँ और सिद्धान्त प्रदान करके उसकी उन्नति में योग देता है।" यह किसने कहा-
कुप्पूस्वामी ने
30. शिक्षा मनोविज्ञान की प्रकृति है। - वैज्ञानिक
31. शिक्षा में बालक का सम्बन्ध किससे होता है?- शिक्षक, विषयवस्तु और समाज से
32. शिक्षक मनोविज्ञान का उपयोग किसके लिए करता है?- स्वयं बालक और अनुशासन के लिए
33 . मूल्यांकन किसके लिए आवश्यक है?-  छात्र और शिक्षक के लिए
34. शिक्षा मनोविज्ञान का अध्ययन अध्यापक को इसलिए करना चाहिए ताकि - इससे वह अपने शिक्षण को प्रभावी बना
सकता है।
35. शिक्षा मनोविज्ञान आवश्यक है- शिक्षक, छात्र और अभिभावक
36. अध्यापक वही सफल है जो-  बालको की रुचि जानता हो
37. कक्षा से पलायन करने वाले के प्रति आपका व्यवहार होगा - निदानात्मक
38. "शिक्षा मनोविज्ञान व्यक्ति के जन्म से वद्धावस्था तक सीखने के अनुभवों का वर्णन एवं व्याख्या करती है।" यह
कथन है - क्रो व क्रो का
39. शिक्षा मनोविज्ञान एक शिक्षक के लिए मूल्यवान है। उसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है -उसे विद्यार्थी के बारे में ज्ञान मिलता है।
40. "मनोविज्ञान शिक्षा का आधारभूत विज्ञान है।" यह कथन किसका है- स्किनर
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