इतिहास- प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY]
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SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY
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प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY]
प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले स्रोत को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया है-
(1) साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)
(2) विदेशी यात्रा के वृतांत (Account of Foreigners)
(3) पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources)
(1) साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)
प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाली साहित्यिक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। अध्ययन की सुविधा के लिए साहित्यिक सामग्री को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - (1) धार्मिक साहित्य, और (2) धर्म निरपेक्ष साहित्य।
(1) धार्मिक साहित्य (Religious Literature)
धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत वे ग्रन्थ आते हैं, जो किसी धर्म विशेष से प्रभावित होते हैं।इन ग्रन्थों से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। अध्ययन की सुविधा के लिए धार्मिक साहित्य को भी तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है- (अ) ब्राह्मण साहित्य, (ब) बौद्ध साहित्य, और (स) जैन साहित्य।
(अ) ब्राह्माण साहित्य-
प्राचीन भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालने वाले ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें प्रमुख निम्नांकित हैं-
(i) वेद- आर्यों के प्राचीनतम प्रन्थ वेद हैं। वेदों की कुल संख्या चार है ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनमें सबसे प्राचीन ऋग्वेद है । वेदों का भारतीय संस्कति में विशेष महत्व है। यद्यपि वेद मुख्यतः धार्मिक
ग्रन्थ हैं, परन्तु इनसे आय के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
(ii) ब्राहण- यज्ञ एवं कर्मकाण्डों के विधान को समझने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की गई, उन्हें 'ब्राह्मण' कहा गया । प्रमुख ब्राह्मण ग्रन्थ - ऐतरेय ब्राह्मण, कौषितिकी ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण, पंचविश ब्राह्मण व गोपथ ब्राह्मण है।
(iii) आरण्यक- आरण्यकों का अध्ययन जंगल के शान्त वातावरण में ही किया जाता था। इन ग्रन्थों में आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में विवेचना की गई है।
(iv) उपनिषद- गुरु के समीप बैठकर प्राप्त किए गए ज्ञान के आधार पर लिखे गए ग्रन्थों को ‘उपनिषद’ जाता है। उपनिषदों से भारतीय दर्शन व बिम्बसार के पूर्व के इतिहास का विवरण प्राप्त होता है। प्रमुख उपनिषद् हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, कौषितिकि, वृहदारण्यक और श्वेताश्वतर।
(v) वेदांग- वेदांग संख्या में छह हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। वेदांगों से तत्कालीन समाज एवं धर्म पर प्रकाश पड़ता है।
(vi) स्मृतियाँ- स्मृतियों से तत्कालीन समाज के विभिन्न कार्यकलापों पर प्रकाश पड़ता है। प्रमुख स्मृतियाँ हैं -मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर, नारद, वृहस्पति, कात्यायन तथा गौतम।
(vii) सूत्र- वेदों का विधिवत् अध्ययन करने के लिए सूत्रों की रचना की गयी । सूत्र संख्या में चार हैं- श्रोत सूत्र, ग्रह सूत्र, धर्म सूत्र और शुल्व सूत्र ।
(viii) पुराण- ब्राह्मण साहित्य में पुराण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पुराण संख्या में अठ्ठारह है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु, ब्रह्मण्ड, ब्रह्म, पद्म, शिव, नारदीय, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, स्कन्द, तथा गरुण पुराण। परन्तु इनमें से पांच पुराणों का ही ऐतिहासिक महत्व है- मत्स्य, भागवत, विष्णु, वायु और ब्रह्मण्ड पुराण । डॉ. वी. ए स्मिथ के अनुसार, "इन पुराणों में मौर्य, आन्ध, शिशुनाग और गुप्त आदि राजवंशों का विस्तृत विवरण मिलता है।"
(ix) महाकाव्य- ब्राह्मण साहित्य में वेदों के पश्चात् महाकाव्यों का विशिष्ट स्थान है। महाकाव्य दो हैं रामायण और महाभारत। रामायण की रचना महाकवि वाल्मीकि ने, और महाभारत की रचना मुनि व्यास ने की थी। इन दोनों महाकाव्यों में तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति पर व्यापक प्रकाश डाला गया । है ।
(ब) बौद्ध साहित्य-
ब्राह्मण साहित्य के समान ही बौद्ध साहित्य में भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रभाव डाला गया है। बौद्ध धर्म से सम्बन्धित अनेक ग्रन्य उपलब्ध हैं जिनमें प्रमुख निम्नांकित है -
(i) त्रिपिटक- त्रिपिटकों की संख्या तीन है- विनय पिटक, सुत्त पिटक एवं अभियान पिटक। महात्मा बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् इनकी रचना की गई थी।‘विनय पिटक' में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है, 'सुत्त पिटक' में महात्मा बुद्ध के उपदेश संकलित हैं और 'अभिधम्म पिटक’ में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।
(ii) जातक कथाएँ- बौद्ध साहित्य में जातक कथाओं का प्रमुख स्थान है। जातकों की संख्या 549 है। इनमें महात्मा बुद्ध के पूर्वजन्मों की काल्पनिक कथाएँ हैं। काल्पनिक होने पर भी ये कथाएँ अपने समय और उससे पूर्व के समाज का चित्रण हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं। इन कथाओं में धर्म के सिद्धान्त और नैतिकता के नियम भी समझाए गए हैं । डॉ. विण्टरनिट्ज ने जातक कथाओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, "जातक कथाओं का महत्त्व अमूल्य है। यह केवल इसलिए नहीं कि वे साहित्य और कला का अंश हैं, उनका महत्व तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की भारतीय सभ्यता का दिग्दर्शन कराने में है।"
(iii) बुद्धचरितम्- बुद्धचरितम् के रचयिता महाकवि अश्वघोष थे। इस ग्रन्थ से गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) महावंश और दीपवंश- ये दोनों ही प्रन्थ श्रीलंका के पालि महाकाव्य हैं। इन दोनों ही प्रन्थों से भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में जानकारी मिलती है। दीपवंश की रचना सम्भवत: चौथी शताब्दी और महावंश की रचना सम्भवतः पाँचवी शताब्दी में हुई थी।.
(v) मिलिन्द पञ्च- इस ग्रन्थ में यूनानी राजा मिनांडर और बौद्ध भिक्षु नागसेन का दार्शनिक वार्तालाप लिपिबद्ध है। इस प्रन्थ में ईसा की पहली दो शताब्दियों के उत्तरी-पश्चिमी भारतीय जीवन की झलक देखने को मिलती है।
(vi) दिव्यावदान- दिव्यावदान में अनेक राजाओं की कथाएँ संकलित हैं। इस प्रन्थ में अनेक अंश चौथी शताब्दी तक जोड़े गए हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से इस प्रन्थ का विशेष महत्व है।
(vii) मंजूश्रीमूलकल्प- यह ग्रन्थ भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ में बौद्ध दृष्टिकोण से गुप्त सम्राटों का विवरण प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ से कुछ अन्य प्राचीन राजवंशों का भी संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है।
(viii) अंगुत्तर निकाय- इस प्रन्थ से हमें प्राचीन सोलह महाजनपदों की जानकारी मिलती है। यह प्रन्य कल्पना पर आधारित नहीं है, इस प्रन्थ में वर्णित सोलह महाजनपद उस समय वस्तुतः विद्यमान थे।
(ix) ललितविस्तर और वैपुल्य सूत्र- बौद्ध साहित्य के इन दोनों ग्रन्थों से भी बौद्ध धर्म के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
(स) जैन साहित्य
प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में जैन साहित्य का भी विशेष महत्व है। क्योंकि इससे हमें कुछ ऐसे भारतीय पक्षों का परिचय प्राप्त होता है, जिनकी ब्राह्मण साहित्य अथवा बौद्ध साहित्य में या तो चर्चा ही नहीं है, यदि है भी तो बहत ही अल्प है। अधिकांश जैन धर्मग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की गई है। जैन साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नांकित हैं-
(i) आगम- आदि जैन ग्रन्थों को ‘आगम' के नाम से पुकारा गया। बाद में उनका संकलन 'पूर्व' नामक 14 प्रन्थों में किया गया और फिर इसके पश्चात् उनका संकलन ‘अंग' नामक 12 ग्रन्थों में हुआ, जिनके नाम हैं- आचारांग, डाण्डंग, भगवती सुत्त, समवायंग सुत्त, आचारता सुत्त, सूयगढंग सुत्त, नायाधम्मकहा, उवासगदसाओं सुत्त, दिट्ठीवाय, विवागसुयम सुत्त और अंतगडदसाओं सुत। इन ग्रन्थों में जैन मुनियों के आचार-विचार और महावीर स्वामी के जीवनचरित्र आदि का विस्तृत विवेचन है।
(ii) भद्रबाहुचरित- इस ग्रन्थ से मौर्यवंशीय शासक चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल की कुछ घटनाओं पर प्रकाश पड़ता है।
(iii) परिशिष्ट पर्व- यह प्रन्थ जैन साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ के रचयिता हेमचन्द्र थे ।इस ग्रन्थ की रचना ईसा की बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से महावीर स्वामी के काल के राजाओं व अन्य
जैन सम्राटों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) अन्य ग्रन्थ- जैन साहित्य के अन्तर्गत अन्य अनेक ग्रंथों की रचना हुई, जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व है। अन्य ग्रन्थों में प्रमुख हैं- वसुदेव हिण्डी, बृहत्कल्प सूत्र, भाष्य, आवश्यक चूर्णी, कलिका पुराण, कथाकोश, समरादित्यकथा, कुवलयमाला और कथाकोष प्रकरण। इन जैन ग्रन्थों से तत्कालीन भारतीय समाज की सामाजिक और धार्मिक दशा पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
(2) धर्मनिरपेक्ष साहित्य
धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त ऐसा साहित्य भी उपलब्ध है, जिसका किसी धर्म से न तो सीधा सम्पर्क है और न ही किसी धर्म विशेष से प्रभावित है ऐसे साहित्य को धर्मनिरपेक्ष साहित्य या धर्मोत्तर साहित्य के नाम से जाना जाता है। धर्मनिरपेक्ष साहित्य के ग्रन्थों से प्राचीन भारत के विषय में मुहत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। धर्मोत्तर साहित्य से सम्बन्धित महत्वपूर्ण ग्रन्थ निम्नांकित हैं-
(i) कौटिल्य का अर्थशास्त्र—'अर्थशास्त्र' नामक इस प्रन्थ की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री कौटिल्य ने ई.पू. चौथी शताब्दी में की थी। इस ग्रन्थ से तत्कालीन शासन-व्यवस्था के बारे में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त होती है ।
(ii) पाणिनी की अष्टाध्यायी- इस ग्रन्थ से मौर्य काल के पूर्व की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
(iii) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस- इस ग्रन्थ से नन्द वंश के पतन और चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाए जाने के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) पतंजलि का महाभाष्य- इस ग्रन्थ से मौर्य वंश और शृंग वंश के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(v) बाणभट्ट का हर्षचरित- इस ग्रन्य की रचना सातवीं शताब्दी में की गई थी। इस ग्रन्थ से हर्षकालीन घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है।
(vi) गार्गी संहिता- इस ग्रन्य से भारत पर यवनों के आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।
(vii) कल्हण की राजतरंगिणी- इस ग्रन्थ की रचना बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से कश्मीर के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(viii) विल्हण का विक्रमांकदेवचरित- इस ग्रन्थ से चालुक्य वंश के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।
(ix) वाक्पति राज का गौडवाहो- इस ग्रन्थ से कन्नौज नरेश यशोवर्मन की विजयों की जानकारी मिलती है।
(x) चन्दवरदायी का पृथ्वीराज रासो- इस ग्रन्थ से चौहानवंशीय शासक पृथ्वीराज चौहान के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
(xi) परिमल गुप्त का नवसाहसक चरित- इस ग्रन्थ से परमार वंश के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(xii) कालीदास का मालविकाग्निमित्रम- इस ग्रंथ से पुष्यमित्र शृंग और यवनों के मध्य हुए संघर्ष के विषय में जानकारी मिलती है।
(xiii) कालीदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्- इस ग्रंथ से गुप्तकालीन उत्तर तथा मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।
(xiv) कालीदास का रघुवंश- इस ग्रंथ से गुप्तवंशीय सम्राट समुद्रगुप्त की दिग्विजय की झलक मिलती है।
विदेशियों के वृतान्तों का विवेचन चार वर्गों में किया जा सकता है-
(i) यूनानी लेखक, (ii) चीनी लेखक, (iii) तिब्बती लेखक, (iv) अरबी लेखक,
(i) यूनानी लेखक- यूनानी लेखकों में 'हेरोडोटस' (Herodous) प्राचीनतम लेखक हैं। हेरोडोटस ने पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में भारतीय सीमा प्रान्त व हखमी साम्राज्य के मध्य राजनीतिक सम्पर्क पर प्रकाश डाला है।
यूनानी शासक सिकन्दर के साथ भारत आए अनेक विद्वानों ने भी भारत के विषय में अपने विचार लिपिबद्ध किए। इन विद्वानों में निआर्कस (Nearchus), ओनेसिक्रिटस (Onesicritus) व एरिस्टोव्यूलस (Aristobulus) प्रमुख हैं।
यद्यपि इन विद्वानों की रचनाएँ अब उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उनको अन्य यूनानी लेखकों द्वारा उद्धरित किया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में 'मैगस्थनीज' यूनानी राजदूत के रूप में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका' में
भारतीय संस्थाओं भूगोल, कृषि आदि के विषय में व्यापक प्रकाश डाला है। यद्यपि उसकी पुस्तक उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसकी इस पुस्तक के कुछ उद्धरण प्राचीन यूनानी लेखकों एरियन, स्ट्रैवो व जस्टिन आदि की रचनाओं में मिलते हैं।
यूनानी लेखक टॉलमी (Ptolemy) ने दूसरी शताब्दी ईसवी में भारत का भौगोलिक वर्णन लिखाजिससे अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
यूनानी लेखक पिलनी (Pliny) द्वारा रचित 'नेचुरल हिस्ट्री' में भारतीय पशुओं, पौधों और खनिज पदार्थों के बारे में जानकारी मिलती है।
(ii) चीनी लेखक- चीनी यात्रियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण फाह्यान, व्हेनसांग व इत्सिंग के वृतान्त हैं।
फाह्यान पाँचवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे,वह लगभग 14 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने विशेष रूप से भारत में बौद्ध धर्म की स्थिति के बारे में लिखा ।
व्हेनसांग, सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आए थे, वह लगभग 16 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने भारत की धार्मिक अवस्था के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक दशा का भी वर्णन अपने वृतान्त में किया है। भारतीयों के रीति-रिवाजों और शिक्षा पद्धति पर भी व्हेनसांग के वृतान्त से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इतिहासकारों ने व्हेनसांग को 'यात्रियों का राजा' कहा है।
इत्सिंग सातवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे, वह बहुत समय तक विक्रमशील विश्वविद्यालय और नालंदा विश्वविद्यालय रहे। उन्होंने संस्थाओं और भारतीयों में बौद्ध शिक्षा की वेश-भूषा, खान-पान आदि के विषय में भी लिखा है।
(iii) तिब्बती लेखक- तिब्बती लेखकों में बौद्धलामा तारानाथ का विवरण भी। ऐतिहासिक महत्व का है। उनके द्वारा रचित कंग्युर और तंग्युर नामक ग्रन्थों से मौर्यकाल और उसके पश्चात् की घटनाओं को जानकारी प्राप्त होती है
(iv) अरबी लेखक- अरबी यात्री और इतिहासकार आठवीं शताब्दी के उपरान्त भारत की ओर आकर्षित हुए। अरब यात्रियों के वृतान्तों का भारतीय इतिहास की दृष्टि से विशिष्ट महत्व है।
अरब यात्रियों में अल्बरूनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अल्वरूनी ने 'तहकीक-ए -हिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी के भारत की दशा पर विस्तृत प्रकाश डाला है। अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादरी, सुलेमान व अल-मसूदी आदि प्रमुख यात्रियों के वृतान्तों से भी पता चलता है कि किस प्रकार मुसलमानों ने भारत पर अधिकार किया।
(i) अभिलेख, (ii) स्मारक और भग्नावशेष, (iii) मुद्राए, (iv) कलाकृतियाँ, (v) मिट्टी के बर्तन।
(i) अभिलेख- अभिलेख, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं, क्योंकि अभिलेख समकालीन होते हैं। जिस राजा अथवा राज्य के विषय में अभिलेख पर लिखा होता है, अभिलेख की रचना भी उसी राजा के शासनकाल में की गई होती है। अत: उस तथ्य के सत्य होने की सम्भावना अधिक होती है। अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त
अभिलेख, राज्य की सीमाओं और राजा के व्यक्तित्व के विषय में भी सटीक जानकारी प्रदान करते हैं। अभिलेखों के महत्व के सन्दर्भ में डॉ. रमेश चन्द्र मजमूदार ने लिखा है, "अभिलेख समसामयिक होने के कारण विश्वसनीय प्रमाण हैं और उनसे हमें सबसे अधिक सहायता मिली है।"
अभिलेख विभिन्न रूपों में प्राप्त हुए हैं। शिला पर लिखे गए अभिलेख को शिलालेख स्तम्भ पर लिखे गए अभिलेख को स्तम्भ-लेख, ताम्र पत्र पर लिखे गए अभिलेख को ताम्र पत्र-लेख, मूर्ति पर लिखे गए अभिलेख को मूर्ति-लेख कहा जाता है ।
प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेख अधिकांशतः पाली, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में लिखे गए हैं। लेकिन कुछ अभिलेख तमिल, मलयालम, कन्नड व तेलगू भाषाओं में भी लिखे गए हैं। अधिकांश अभिलेखों की लिपि ‘ब्राही' है, जबकि कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी लिखे हुए प्राप्त हुए हैं।
सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य शासक अशोक के हैं। अशोक के अधिकतर अभिलेख 'ब्राह्मी लिपि' में हैं। ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1837 ई.में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था। अशोक के अभिलेखों से तत्कालीन धर्म और राजत्व के आदर्श पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
अशोक के बाद के अभिलेखों को दो वर्गों- सरकारी अभिलेख और निजी अभिलेख में बाँटा जा सकता है । सरकारी अभिलेख, राजकवियों द्वारा लिखी हुई प्रशस्तियाँ और भूमि अनुदान पत्र हैं। निजी अभिलेख अधिकांशतः मन्दिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं।
प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखों में अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, कलिंग राज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश मिहिरभोज का ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख और बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख आदि महत्वपूर्ण हैं।
(ii) स्मारक और भग्नावशेष- प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में प्राचीन भवनों और भग्नावशेषों का भी विशेष महत्व है। प्राचीनकाल के स्मारकों तथा भग्नावशेषों का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करके तत्कालीन इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यद्यपि स्मारक और भग्नावशेष राजनीतिक स्थिति पर तो विशेष प्रकाश नहीं डालते, किन्तु इनसे धार्मिक सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है ।
प्रत्येक काल के स्मारक और भग्नावशेष उस काल की कला, शैली तथा धर्म के प्रतीक होते हैं। प्राचीन स्मारकों तथा कलाकृतियों की प्राचीनता का अध्ययन करके कालक्रम का भी निर्धारण किया जा सकता है। प्राचीनकाल के महलों और मन्दिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के मन्दिरों की अपनी कुछ विशेषताएं हैं, उनकी कला की शैली ‘नागर-शैली' कहलाती है। इसी प्रकार दक्षिण भारत के मन्दिरों की कला ‘द्रविण-शैली' कहलाती है ।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से सम्भवतः विश्व की प्राचीनतम सभ्यता ‘सिन्धु सभ्यता' को जानकारी हुई। सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों के उत्खनन से प्राप्त प्रचुर सामग्री के अध्ययन से तत्कालीन मानव जीवन की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
इसी प्रकार तक्षशिला में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि यह नगरी कम से कम तीन बार बनी व नष्ट हुई। पाटलिपुत्र में हुए उत्खनन से मौर्यों के विषय में अनेक नवीन जानकारियाँ प्राप्त हुईं। गुप्तकालीन मन्दिरों; उदाहरणार्थ- कानपुर के पास स्थित भीतरगाँव का मन्दिर, नचनाकुठारा का पार्वती मन्दिर, सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर और देवगढ़ का दशावतार मन्दिर से गुप्तकालीन संस्कृति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार सांची, भरहुत खजुराहो, महाबलिपुरम, अजन्ता, एलोरा, नासिक आदि अनेक स्थानों से प्राप्त प्राचीन स्मारकों व भग्नावशेषों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
विदेशों में भी अनेक ऐसे स्मारक मिले हैं, जो भारत के उन देशों के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय आस्थाओं पर आधारित अनेक स्मारक हैं। जावा में दींग के शिव मन्दिर, मध्य जावा के बोरोबुदूर तथा प्रम्बनम के विशाल मन्दिरों की मर्तियाँ तथा कम्बोज के अंगकोरवाट व अंगकोरथोम के भग्नावशेषों से सिद्ध होता है कि भारतीयों ने वहाँ अपने उपनिवेशों की स्थापना की थी तथा अपनी संस्कृति का प्रचारप्रसार किया था। इनके अतिरिक्त मलाया, लंका तथा बाली द्वीपों में भी अनेक मन्दिर व स्मारक हैं, जो इन देशों से भारत के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं।
(iii) मुद्राएँ- मुद्राओं के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोतों में मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है। अब तक सबसे प्राचीन प्रामाणिक सिक्के, जो हमें प्राप्त हुए, वे ‘आहत सिक्के' कहलाते हैं। इन्हें विभिन्न श्रेणी के राज्य प्रशासक अपना चिन्ह अंकित कर चलाते थे। अतः यह 'पंचमार्क’ भी कहलाते थे, ये मुख्यतः चाँदी के थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है। मुद्राएँ तत्कालीन राजनीतिक
धार्मिक, आर्थिक स्थिति एवं कला पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। विद्वान लेखक बी. जी. गोखले ने मुद्राओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, "प्राचीन सिक्के (मुद्राएँ) अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके बिना विश्वसनीय इतिहास की रचना प्राय: असम्भव है।" प्राचीन भारतीय मुद्राएँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से निम्नांकित कारणों से महत्वपूर्ण हैं-
(अ) मुद्राओं पर अंकित तिथि से मुद्राओं को जारी करने वाले शासक की तिथि के विषय में जानकारी मिलती है।
(ब) मुद्राओं के प्राप्ति स्थलों के आधार पर विभिन्न शासकों के साम्राज्यों की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायता प्राप्त होती है। यदि किसी शासक की एक ही स्थान पर बहुत सारी मुद्राएँ प्राप्त होती हैं तो इससे स्पष्ट होता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का अंग रहा होगा। जिस स्थान से मुद्राएँ कम मात्रा में मिलती हैं, तो यह माना जाता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का प्रत्यक्ष अंग नहीं रहा होगा, बल्कि उस स्थान से उस शासक के राज्य के व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे।
(स) मुद्राओं से तत्कालीन राज्यों की आर्थिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है। स्वर्ण रजत अथवा ताँबे की मुद्राएँ आर्थिक स्थिति की स्वयं ही मापदण्ड बन जाती हैं। जो राज्य वैभवशाली होते थे, उनके द्वारा स्वर्ण धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे और जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती थी, उनके द्वारा रजत, ताँबे अथवा मिश्रित धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे।
(द) मुद्राओं पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी मिलती है।
(य) विदेशों में भारतीय मुद्राओं के प्राप्त होने से प्राचीन भारतीय शासकों के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(र) मुद्राओं पर अंकित विभिन्न चित्रों व संगीत वाद्यों से तत्कालीन कला एवं संगीत के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) कलाकृतियाँ- भारत में विभिन्न स्थानों पर किए गए उत्खननों से अनेक कलाकृतियाँ; जैसे भित्ति चित्र, स्तम्भ, मूर्तियाँ, मन्दिर, खिलौने, आभूषण आदि विभिन्न वस्तुएं प्राप्त की गयीं हैं। इनसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति जानकारी प्राप्त होती है । इन भारतीय की कलाकृतियों में से अनेक खण्डित भी हैं, परन्तु फिर भी ये कलाकृतियाँ प्राचीन भारत के । सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से उपयोगी हैं । सिन्धु घाटी में प्राप्त हुए खिलौने, मूर्तियाँ और
आभूषण, अशोक के स्तम्भ, विभिन्न बौद्ध प्रतिमाएँ, मन्दिरों के भग्नावशेष और मूर्तियाँ, ताँबे अथवा काँसे की मूर्तियाँ, अजंता और वाद्य गुफाओं के भित्ति चित्र आदि सभी कलाकृतियाँ प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए है।
(v) मिटटी के बर्तन- भारत के विभिन्न स्थानों से मिटटी के बर्तन भी प्राप्त हुए है। इन बर्तनों का भी अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व हैं। ये बर्तन न केवल कला की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इनकी मिटटी की जाँच करके उनकी आयु का भी पता लगाकर इतिहास के कालक्रम को जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है।
इस विवेचन से स्पष्ट है की प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोतों का अभाव नहीं है। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के लिए विभिन्न साहित्यिक एवं पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
(ii) पाणिनी की अष्टाध्यायी- इस ग्रन्थ से मौर्य काल के पूर्व की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है।
(iii) विशाखदत्त का मुद्राराक्षस- इस ग्रन्थ से नन्द वंश के पतन और चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बनाए जाने के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) पतंजलि का महाभाष्य- इस ग्रन्थ से मौर्य वंश और शृंग वंश के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(v) बाणभट्ट का हर्षचरित- इस ग्रन्य की रचना सातवीं शताब्दी में की गई थी। इस ग्रन्थ से हर्षकालीन घटनाओं की जानकारी प्राप्त होती है।
(vi) गार्गी संहिता- इस ग्रन्य से भारत पर यवनों के आक्रमण की जानकारी प्राप्त होती है।
(vii) कल्हण की राजतरंगिणी- इस ग्रन्थ की रचना बारहवीं शताब्दी में हुई थी। इस ग्रन्थ से कश्मीर के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(viii) विल्हण का विक्रमांकदेवचरित- इस ग्रन्थ से चालुक्य वंश के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है।
(ix) वाक्पति राज का गौडवाहो- इस ग्रन्थ से कन्नौज नरेश यशोवर्मन की विजयों की जानकारी मिलती है।
(x) चन्दवरदायी का पृथ्वीराज रासो- इस ग्रन्थ से चौहानवंशीय शासक पृथ्वीराज चौहान के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
(xi) परिमल गुप्त का नवसाहसक चरित- इस ग्रन्थ से परमार वंश के इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(xii) कालीदास का मालविकाग्निमित्रम- इस ग्रंथ से पुष्यमित्र शृंग और यवनों के मध्य हुए संघर्ष के विषय में जानकारी मिलती है।
(xiii) कालीदास का अभिज्ञान शाकुन्तलम्- इस ग्रंथ से गुप्तकालीन उत्तर तथा मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।
(xiv) कालीदास का रघुवंश- इस ग्रंथ से गुप्तवंशीय सम्राट समुद्रगुप्त की दिग्विजय की झलक मिलती है।
(2) विदेशी यात्रियों के वृतान्त [Accounts of Foreigneral
भारतीय इतिहास की जानकारी प्रदान करने में विदेशी यात्रियों तथा लेखकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीन काल में अनेक विदेशी यात्री और विद्वान भारत आये और उन्होंने अपने यात्रा सम्बन्धी वृतान्तों को लिपिबद्ध किया। उनके यात्रा विवरणों से तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक स्थिति के बारे में व्यापक जानकारी प्राप्त होती है। विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतान्तों के पर प्रकाश डालते महत्व हुए डॉ.रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "इनसे भारतीय तिथि के अशान्त सागर में समसामयिकता स्थापित करने में सहायता मिलती है।"विदेशियों के वृतान्तों का विवेचन चार वर्गों में किया जा सकता है-
(i) यूनानी लेखक, (ii) चीनी लेखक, (iii) तिब्बती लेखक, (iv) अरबी लेखक,
(i) यूनानी लेखक- यूनानी लेखकों में 'हेरोडोटस' (Herodous) प्राचीनतम लेखक हैं। हेरोडोटस ने पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में भारतीय सीमा प्रान्त व हखमी साम्राज्य के मध्य राजनीतिक सम्पर्क पर प्रकाश डाला है।
यूनानी शासक सिकन्दर के साथ भारत आए अनेक विद्वानों ने भी भारत के विषय में अपने विचार लिपिबद्ध किए। इन विद्वानों में निआर्कस (Nearchus), ओनेसिक्रिटस (Onesicritus) व एरिस्टोव्यूलस (Aristobulus) प्रमुख हैं।
यद्यपि इन विद्वानों की रचनाएँ अब उपलब्ध नहीं हैं, किन्तु उनको अन्य यूनानी लेखकों द्वारा उद्धरित किया गया है।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में 'मैगस्थनीज' यूनानी राजदूत के रूप में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका' में
भारतीय संस्थाओं भूगोल, कृषि आदि के विषय में व्यापक प्रकाश डाला है। यद्यपि उसकी पुस्तक उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसकी इस पुस्तक के कुछ उद्धरण प्राचीन यूनानी लेखकों एरियन, स्ट्रैवो व जस्टिन आदि की रचनाओं में मिलते हैं।
यूनानी लेखक टॉलमी (Ptolemy) ने दूसरी शताब्दी ईसवी में भारत का भौगोलिक वर्णन लिखाजिससे अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
यूनानी लेखक पिलनी (Pliny) द्वारा रचित 'नेचुरल हिस्ट्री' में भारतीय पशुओं, पौधों और खनिज पदार्थों के बारे में जानकारी मिलती है।
(ii) चीनी लेखक- चीनी यात्रियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण फाह्यान, व्हेनसांग व इत्सिंग के वृतान्त हैं।
फाह्यान पाँचवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे,वह लगभग 14 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने विशेष रूप से भारत में बौद्ध धर्म की स्थिति के बारे में लिखा ।
व्हेनसांग, सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आए थे, वह लगभग 16 वर्षों तक भारत में रहे। उन्होंने भारत की धार्मिक अवस्था के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक दशा का भी वर्णन अपने वृतान्त में किया है। भारतीयों के रीति-रिवाजों और शिक्षा पद्धति पर भी व्हेनसांग के वृतान्त से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इतिहासकारों ने व्हेनसांग को 'यात्रियों का राजा' कहा है।
इत्सिंग सातवीं शताब्दी ईसवी में भारत आए थे, वह बहुत समय तक विक्रमशील विश्वविद्यालय और नालंदा विश्वविद्यालय रहे। उन्होंने संस्थाओं और भारतीयों में बौद्ध शिक्षा की वेश-भूषा, खान-पान आदि के विषय में भी लिखा है।
(iii) तिब्बती लेखक- तिब्बती लेखकों में बौद्धलामा तारानाथ का विवरण भी। ऐतिहासिक महत्व का है। उनके द्वारा रचित कंग्युर और तंग्युर नामक ग्रन्थों से मौर्यकाल और उसके पश्चात् की घटनाओं को जानकारी प्राप्त होती है
(iv) अरबी लेखक- अरबी यात्री और इतिहासकार आठवीं शताब्दी के उपरान्त भारत की ओर आकर्षित हुए। अरब यात्रियों के वृतान्तों का भारतीय इतिहास की दृष्टि से विशिष्ट महत्व है।
अरब यात्रियों में अल्बरूनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अल्वरूनी ने 'तहकीक-ए -हिन्द’ नामक ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने अपनी इस पुस्तक में ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी के भारत की दशा पर विस्तृत प्रकाश डाला है। अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादरी, सुलेमान व अल-मसूदी आदि प्रमुख यात्रियों के वृतान्तों से भी पता चलता है कि किस प्रकार मुसलमानों ने भारत पर अधिकार किया।
(3) पुरातात्विक स्त्रोत [Archaeological Sources]
प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातात्विक स्त्रोतों का विशेष महत्व है। पुरातात्विक स्रोत, साहित्यिक स्रोतों से अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं, क्योंकि उनमें कवि की परिकल्पना अथवा लेखक की कल्पना शक्ति के लिए स्थान का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ पर साहित्यिक स्त्रोत मौन हैं, वहाँ पुरातात्विक स्त्रोत ही वस्तुस्थिति को स्पष्ट करते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में जानकारी देने वाले प्रमुख पुरातात्विक स्त्रोत निम्नांकित हैं=(i) अभिलेख, (ii) स्मारक और भग्नावशेष, (iii) मुद्राए, (iv) कलाकृतियाँ, (v) मिट्टी के बर्तन।
(i) अभिलेख- अभिलेख, प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक स्रोत माने जाते हैं, क्योंकि अभिलेख समकालीन होते हैं। जिस राजा अथवा राज्य के विषय में अभिलेख पर लिखा होता है, अभिलेख की रचना भी उसी राजा के शासनकाल में की गई होती है। अत: उस तथ्य के सत्य होने की सम्भावना अधिक होती है। अभिलेखों से तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त
अभिलेख, राज्य की सीमाओं और राजा के व्यक्तित्व के विषय में भी सटीक जानकारी प्रदान करते हैं। अभिलेखों के महत्व के सन्दर्भ में डॉ. रमेश चन्द्र मजमूदार ने लिखा है, "अभिलेख समसामयिक होने के कारण विश्वसनीय प्रमाण हैं और उनसे हमें सबसे अधिक सहायता मिली है।"
अभिलेख विभिन्न रूपों में प्राप्त हुए हैं। शिला पर लिखे गए अभिलेख को शिलालेख स्तम्भ पर लिखे गए अभिलेख को स्तम्भ-लेख, ताम्र पत्र पर लिखे गए अभिलेख को ताम्र पत्र-लेख, मूर्ति पर लिखे गए अभिलेख को मूर्ति-लेख कहा जाता है ।
प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेख अधिकांशतः पाली, प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में लिखे गए हैं। लेकिन कुछ अभिलेख तमिल, मलयालम, कन्नड व तेलगू भाषाओं में भी लिखे गए हैं। अधिकांश अभिलेखों की लिपि ‘ब्राही' है, जबकि कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी लिखे हुए प्राप्त हुए हैं।
सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य शासक अशोक के हैं। अशोक के अधिकतर अभिलेख 'ब्राह्मी लिपि' में हैं। ब्राह्मी लिपि को सबसे पहले 1837 ई.में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने पढ़ा था। अशोक के अभिलेखों से तत्कालीन धर्म और राजत्व के आदर्श पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
अशोक के बाद के अभिलेखों को दो वर्गों- सरकारी अभिलेख और निजी अभिलेख में बाँटा जा सकता है । सरकारी अभिलेख, राजकवियों द्वारा लिखी हुई प्रशस्तियाँ और भूमि अनुदान पत्र हैं। निजी अभिलेख अधिकांशतः मन्दिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं।
प्राचीन भारत पर प्रकाश डालने वाले अभिलेखों में अशोक के अभिलेखों के अतिरिक्त समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, कलिंग राज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, गौतमी बलश्री का नासिक अभिलेख, रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी स्तम्भलेख, चन्द्रगुप्त द्वितीय का महरौली लौह स्तम्भ लेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का एहोल अभिलेख, प्रतिहार नरेश मिहिरभोज का ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख और बंगाल के शासक विजयसेन का देवपाड़ा अभिलेख आदि महत्वपूर्ण हैं।
(ii) स्मारक और भग्नावशेष- प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में प्राचीन भवनों और भग्नावशेषों का भी विशेष महत्व है। प्राचीनकाल के स्मारकों तथा भग्नावशेषों का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करके तत्कालीन इतिहास के विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यद्यपि स्मारक और भग्नावशेष राजनीतिक स्थिति पर तो विशेष प्रकाश नहीं डालते, किन्तु इनसे धार्मिक सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है ।
प्रत्येक काल के स्मारक और भग्नावशेष उस काल की कला, शैली तथा धर्म के प्रतीक होते हैं। प्राचीन स्मारकों तथा कलाकृतियों की प्राचीनता का अध्ययन करके कालक्रम का भी निर्धारण किया जा सकता है। प्राचीनकाल के महलों और मन्दिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के मन्दिरों की अपनी कुछ विशेषताएं हैं, उनकी कला की शैली ‘नागर-शैली' कहलाती है। इसी प्रकार दक्षिण भारत के मन्दिरों की कला ‘द्रविण-शैली' कहलाती है ।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से सम्भवतः विश्व की प्राचीनतम सभ्यता ‘सिन्धु सभ्यता' को जानकारी हुई। सिन्धु सभ्यता के विभिन्न स्थलों के उत्खनन से प्राप्त प्रचुर सामग्री के अध्ययन से तत्कालीन मानव जीवन की पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है।
इसी प्रकार तक्षशिला में हुए उत्खननों से प्राप्त भग्नावशेषों से ज्ञात होता है कि यह नगरी कम से कम तीन बार बनी व नष्ट हुई। पाटलिपुत्र में हुए उत्खनन से मौर्यों के विषय में अनेक नवीन जानकारियाँ प्राप्त हुईं। गुप्तकालीन मन्दिरों; उदाहरणार्थ- कानपुर के पास स्थित भीतरगाँव का मन्दिर, नचनाकुठारा का पार्वती मन्दिर, सिरपुर का लक्ष्मण मन्दिर और देवगढ़ का दशावतार मन्दिर से गुप्तकालीन संस्कृति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। इसी प्रकार सांची, भरहुत खजुराहो, महाबलिपुरम, अजन्ता, एलोरा, नासिक आदि अनेक स्थानों से प्राप्त प्राचीन स्मारकों व भग्नावशेषों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।
विदेशों में भी अनेक ऐसे स्मारक मिले हैं, जो भारत के उन देशों के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं। दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय आस्थाओं पर आधारित अनेक स्मारक हैं। जावा में दींग के शिव मन्दिर, मध्य जावा के बोरोबुदूर तथा प्रम्बनम के विशाल मन्दिरों की मर्तियाँ तथा कम्बोज के अंगकोरवाट व अंगकोरथोम के भग्नावशेषों से सिद्ध होता है कि भारतीयों ने वहाँ अपने उपनिवेशों की स्थापना की थी तथा अपनी संस्कृति का प्रचारप्रसार किया था। इनके अतिरिक्त मलाया, लंका तथा बाली द्वीपों में भी अनेक मन्दिर व स्मारक हैं, जो इन देशों से भारत के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हैं।
(iii) मुद्राएँ- मुद्राओं के अध्ययन को मुद्राशास्त्र कहते हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोतों में मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है। अब तक सबसे प्राचीन प्रामाणिक सिक्के, जो हमें प्राप्त हुए, वे ‘आहत सिक्के' कहलाते हैं। इन्हें विभिन्न श्रेणी के राज्य प्रशासक अपना चिन्ह अंकित कर चलाते थे। अतः यह 'पंचमार्क’ भी कहलाते थे, ये मुख्यतः चाँदी के थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुए सोने, चांदी और तांबे के सिक्कों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में महत्वपूर्ण सहायता प्राप्त होती है। मुद्राएँ तत्कालीन राजनीतिक
धार्मिक, आर्थिक स्थिति एवं कला पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं। विद्वान लेखक बी. जी. गोखले ने मुद्राओं के महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, "प्राचीन सिक्के (मुद्राएँ) अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि उनके बिना विश्वसनीय इतिहास की रचना प्राय: असम्भव है।" प्राचीन भारतीय मुद्राएँ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से निम्नांकित कारणों से महत्वपूर्ण हैं-
(अ) मुद्राओं पर अंकित तिथि से मुद्राओं को जारी करने वाले शासक की तिथि के विषय में जानकारी मिलती है।
(ब) मुद्राओं के प्राप्ति स्थलों के आधार पर विभिन्न शासकों के साम्राज्यों की सीमाएँ निर्धारित करने में सहायता प्राप्त होती है। यदि किसी शासक की एक ही स्थान पर बहुत सारी मुद्राएँ प्राप्त होती हैं तो इससे स्पष्ट होता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का अंग रहा होगा। जिस स्थान से मुद्राएँ कम मात्रा में मिलती हैं, तो यह माना जाता है कि वह स्थान उस शासक के साम्राज्य का प्रत्यक्ष अंग नहीं रहा होगा, बल्कि उस स्थान से उस शासक के राज्य के व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे।
(स) मुद्राओं से तत्कालीन राज्यों की आर्थिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है। स्वर्ण रजत अथवा ताँबे की मुद्राएँ आर्थिक स्थिति की स्वयं ही मापदण्ड बन जाती हैं। जो राज्य वैभवशाली होते थे, उनके द्वारा स्वर्ण धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे और जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती थी, उनके द्वारा रजत, ताँबे अथवा मिश्रित धातु के सिक्के ढलवाए जाते थे।
(द) मुद्राओं पर उत्कीर्ण विभिन्न देवी-देवताओं के चित्रों से तत्कालीन धर्म के विषय में जानकारी मिलती है।
(य) विदेशों में भारतीय मुद्राओं के प्राप्त होने से प्राचीन भारतीय शासकों के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(र) मुद्राओं पर अंकित विभिन्न चित्रों व संगीत वाद्यों से तत्कालीन कला एवं संगीत के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।
(iv) कलाकृतियाँ- भारत में विभिन्न स्थानों पर किए गए उत्खननों से अनेक कलाकृतियाँ; जैसे भित्ति चित्र, स्तम्भ, मूर्तियाँ, मन्दिर, खिलौने, आभूषण आदि विभिन्न वस्तुएं प्राप्त की गयीं हैं। इनसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति जानकारी प्राप्त होती है । इन भारतीय की कलाकृतियों में से अनेक खण्डित भी हैं, परन्तु फिर भी ये कलाकृतियाँ प्राचीन भारत के । सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से उपयोगी हैं । सिन्धु घाटी में प्राप्त हुए खिलौने, मूर्तियाँ और
आभूषण, अशोक के स्तम्भ, विभिन्न बौद्ध प्रतिमाएँ, मन्दिरों के भग्नावशेष और मूर्तियाँ, ताँबे अथवा काँसे की मूर्तियाँ, अजंता और वाद्य गुफाओं के भित्ति चित्र आदि सभी कलाकृतियाँ प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हुए है।
(v) मिटटी के बर्तन- भारत के विभिन्न स्थानों से मिटटी के बर्तन भी प्राप्त हुए है। इन बर्तनों का भी अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व हैं। ये बर्तन न केवल कला की दृष्टि से उपयोगी हैं, बल्कि इनकी मिटटी की जाँच करके उनकी आयु का भी पता लगाकर इतिहास के कालक्रम को जानने में पर्याप्त सहायता मिलती है।
इस विवेचन से स्पष्ट है की प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोतों का अभाव नहीं है। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के लिए विभिन्न साहित्यिक एवं पुरातात्विक सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
इतिहास- प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत [SOURCES OF ANCIENT INDIAN HISTORY]
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