चीड़ Pine | |
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समुद्री चीड़ (पाइनस पिनास्टर) | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
Kingdom: | पादप |
विभाग: | कोणधारी (Pinophyta) |
वर्ग: | पिनोप्सिडा (Pinopsida) |
गण: | पायनालेज़ (Pinales) |
कुल: | पायनेसीए (Pinaceae) |
वंश: | पाइनस (Pinus) |
उपवंश | |
पाइनस वर्गीकरण को पूर्ण वर्गिकी के लिए देखें। क्षेत्रानुसार चीड़ों का वितरणको विभिन्न चीड़ प्रजातियों के भौगोलिक वितरण के लिए देखें।
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चीड़ (अंग्रेजी:Pine), एक सपुष्पक किन्तु अनावृतबीजी पौधा है। यह पौधा सीधा पृथ्वी पर खड़ा रहता है। इसमें शाखाएँ तथा प्रशाखाएँ निकलकर शंक्वाकार शरीर की रचना करती हैं। इसकी ११५ प्रजातियाँ हैं। ये ३ से ८० मीटर तक लम्बे हो सकते हैं। चीड़ के वृक्ष पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में पाए जाते हैं। इनकी 90 जातियाँ उत्तर में वृक्ष रेखा से लेकर दक्षिण में शीतोष्ण कटिबंध तथा उष्ण कटिबंध के ठंडे पहाड़ों पर फैली हुई हैं। इनके विस्तार के मुख्य स्थान उत्तरी यूरोप, उत्तरी अमेरिका, उत्तरी अफ्रीकाके शीतोष्ण भाग तथा एशिया में भारत, बर्मा, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो और फिलीपींस द्वीपसमूह हैं।
परिचय
कम उम्र के छोटे पौधों में निचली शाखाओं के अधिक दूर तक फैलने तथा ऊपरी शाखाओं के कम दूर तक फैलने के करण इनका सामान्य आकार पिरामिड जैसा हो जाता है। पुराने होने के कारण इनका सामान्य आकार पिरामिड जैसा हो जाता है। पुराने होने पर वृक्षों का आकार धीरे धीरे गोलाकार हो जाता है। जगलों में उगनेवाले वृक्षों की निचली शाखाएँ शीघ्र गिर जाती हैं और इनका तना काफी सीधा, ऊँचा, स्तंभ जैसा हो जाता है। इनकी कुछ जातियों में एक से अध्कि मुख्य तने पाए जाते हैं। छाल साधारणतय मोटी और खुरदरी होती है, परंतु कुछ जातियों में पतली भी होती है।
इनमें दो प्रकार की टहनियाँ पाई जाती है , एक लंबी, जिनपर शल्कपत्र लगे होते हें, तथा दूसरी छोटी टहनियाँ, जिनपर सुई के आकार की लंबी, नुकीली पत्तियाँ गुच्छों में लगी होती हैं। नए पौधों में पत्तियाँ एक या दो सप्ताह में ही पीली होकर गिर जाती हैं। वृक्षों के बड़े हो जाने पर पत्तियाँ वर्षों नहीं गिरतीं। सदा हरी रहनेवाली पत्तियों की अनुप्रस्थ काट (transverse section) तिकोनी, अर्धवृत्ताकार तथा कभी कभी वृत्ताकार भी होती है। पत्तियाँ दो, तीन, पाँच या आठ के गुच्छों में या अकेली ही टहनियों से निकलती हैं। इनकी लंबाई दो से लेकर 14 इंच तक होती है और इनके दोनों तरु रंध्र (stomata) कई पंक्तियों में पाए जाते हैं। पत्ती के अंदर एक या दो वाहिनी बंडल (vascular bundle) और दो या अधिक रेजिन नलिकाएँ होती हैं। वसंत ऋतु में एक ही पेड़ पर नर और मादा कोन या शंकु निकलते हैं। नर शंकु कत्थई अथवा पीलें रंग का साधारणतय एक इंच से कुछ छोटा होता है। प्रत्येक नर शंकु में बहुत से द्विकोषीय लघु बीजाणुधानियाँ (Microsporangia) होती हैं। ये लघुबीजाणुधानियाँ छोटे छोटे सहस्त्रों परागकणों से भरी होती हैं। परागकणों के दोनों सिरों का भाग फूला होने से ये हवा में आसानी से उड़कर दूर दूर तक पहुँच जाते हैं। मादा शंकु चार इंच से लेकर 20 इंच तक लंबी होती है। इसमें बहुत से बीजांडी शल्क (ovuliferous scales) चारों तरफ से निकले होते हैं। प्रत्येक शल्क पर दो बीजांड (ovules) लगे होते हैं। अधिकतर जातियों में बीज पक जाने पर शंकु की शल्कें खुलकर अलग हो जाती हैं और बीज हव में उड़कर फैल जाते हैं। कुछ जातियों में शकुं नहीं भी खुलते और भूमि पर गिर जाते हैं। बीज का ऊपरी भाग कई जातियों में कागज की तरह पतला और चौड़ा हो जाता है, जो बीज को हवा द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचने में सहायता करता है। बीज के चारों ओर मजबूत छिलका होता है। इसके अंदर तीन से लेकर 18 तक बीजपत्र पाए जाते हैं।
चीड़ के पौधे को उगाने के लिये काफी अच्छी भूमि तैयार करनी पड़ती है। छोटी छोटी क्यारियों में मार्च-अप्रैल के महीनों में बीज मिट्टी में एक या दो इंच नीचे बो दिया जाता है। चूहों, चिड़ियों और अन्य जंतुओं से इनकी रक्षा की विशेष आवश्यकता पड़ती है। अंकुर निकल आने पर इन्हें कड़ी धूप से बचाना चाहिए। एक या दो वर्ष पश्चात् इन्हें खोदकर उचित स्थान पर लगा देते हैं। खोदते समय सावधानी रखनी चाहिए, जिसमें जड़ों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे, अन्यथा चीड़, जो स्वभावत: जड़ की हानि नहीं सहन कर सकता, मर जायगा।
प्रकार
वनस्पति शास्त्र में चीड़ को कोनीफरेलीज़ (Coniferales) आर्डर में रखा गया है। चीड़ दो प्रकार के होते हैं :
- (1) कोमल या सफेद, जिसे हैप्लोज़ाइलॉन (Haploxylon) और
- (2) कठोर या पीला चीड़, जिसे डिप्लोज़ाइलॉन (Diploxylon) कहते हैं।
कोमल चीड़ की पत्तियों में एक वाहिनी बंडल होता है और एक गुच्छे में पाँच, या कभी कभी से कम, पत्तियाँ होती हैं। वसंत और सूखे मौसम की बनी लकड़ियों में विशेष अंतर नहीं होता। कठोर या पीले चीड़ में एक गुच्छे में दो अथवा तीन पत्तियाँ होती हैं। वसंत और सूखे मौसम की बनी लकड़ियों में विशेष अंतर नहीं होता। कठोर या पीले चीड़ में एक गुच्छे में दो अथव तीन पत्तियाँ होती हैं। इनकी वसंत और सूखे ऋतु की लकड़ियों में काफी अंतर होता है।
चीड़ की लकड़ी काफी आर्थिक महत्व की हाती है। विश्व की सब उपयोगी लकड़ियों का लगभग आधा भाग चीड़ द्वारा पूरा होता है। अनेकाने कार्यों में, जैसे पुल निर्माण में, बड़ी बड़ी इमारतों में, रेलगाड़ी की पटरियों के लिये, कुर्सी, मेज, संदूक और खिलौने इत्यादि बनाने में इसका उपयोग होता है।
कठोर चीड़ की लकड़ियाँ अधिक मजबूत होती हैं। अच्छाई के आधार पर इन्हें पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है। इन वर्गों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं :
- (क) पाइनस पालुस्ट्रिस (Pinus palustris), पा. केरीबिया (P. caribaea)।
- (ख) पा. सिलवेस्ट्रिस (P. sylvestris), पा. रेजिनोसा (P. resinosa)।
- (ग) पा. पांडेरोसा (P. ponderosa)।
- (घ) पा. पिनिया (P. pinea), पा. लौंजिफोलिया (P. longifolia) तथा पा. रेडिएटा (P. radiata)।
- (ङ) पा. बैंक्सियाना (P. banksiana)।
उपयोगी लकड़ी प्रदान करनेवाले कोमल चीड़ के कुछ उदाहरण वर्गानुसार निम्नलिखित हैं:
- (क) पाइनस स्ट्रोबस (P. strobus), पा. मोंटिकोला (P. monticola)
- (ख) पा. एक्सेल्सा (P. excelsa)।
- (ग) पा. पार्वीफ्लोरा (P. parveffora), पा. फ्लेक्सिलिस (P. flexilis)।
कई जातियों के वृक्षों से चुआ (tap) करके तारपीन का तेल और गंधराल (rosin) निकाला जाता है। इनकी लकड़ी काटकर आसवन द्वारा टार तेल (tar oil), तारपीन, पाइन आयल, अलकतरा (tar) और कोयला प्राप्त करते हैं। कुछ जातियों की पत्तियों से चीड़ की पत्ती का तेल (pine leaf oil) बनाते हैं, जिसका यथेष्ट औषधीय महत्व है। पत्तियों के रेशों से चटाई आदि बनती हैं।
तारपीन और गंधराल उत्पन्न करनेवाले चीड़ के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं :
- भारत में - पा. लॉंजिफोलिया (P. longifolia), पा. एक्सेल्सा (p. excelsa) तथा पं॰ खास्या (P. khasya)।
- यूरोप में - पा. पिनास्टर (P. pinaster) तथा पा. सिलवेस्ट्रिस (P. sylvestris)
- उत्तरी अमरीका में - पा. पालुस्ट्रिस (P. palustris), पा. केरीबिया (P. cariboea) तथा पा. पॉण्डेरोसा (P. ponderosa)।
चीड़ की बहुत सी जातियों के बीज खाने के काम आते हैं, जिनमें पश्चिमोत्तर हिमालय का चिलगोजा चीड़ अपने सूखे फल के लिये प्रसिद्ध और मूल्यवान् है। जिन चीड़ों के बीज खाए जाते हैं, उनके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं :
- भारत और पाकिस्तान में - पा. जिरार्डियाना (P. gerardiana) अर्थात् चिलगोजा।
- यूरोप में - पा. पिनिया (P. pinea) तथा पा. सेंब्रा (P. cembra)
- उत्तरी अमरीका में - पा. सेंब्रायडिस (P. cembroides) की कई किस्में, पा. साबाइकिऐना (P. sabikiana)
अमरीका के पा. लेंबरर्टिना (P. lambertina) की छाल से खरोंचकर रेजिन की तरह एक पदार्थ निकालते हैं, जो चीनी की तरह मीठा होता है। इसे चीड़ की चीनी कहते हैं।
कई देशों में चीड़ की कुछ जातियाँ सजावट के लिय बगीचों में लगाई जाती हैं।
कहरुवा (ऐम्बर, amber) नामक पत्थाराया हुआ सम्ख़ (फॉसिल रेज़िन, fossil resin) पाइनस सक्सिनिफेरा (P. succinifera) द्वारा बना होगा, ऐसा अनुमान है।
चीड़ की बीमारियाँ
चीड़ के मुख्य रोग इस प्रकार हैं :
1. सफेद चीड़ ब्लिस्टर रतुआ - (White pine blister rust) - यह रोग क्रोनारटियम रिबिकोला (Cronartium ribicola) नामक फफूँद के आक्रमण के फलस्वरूप होता है। चीड़ की छाल इस रोग के कारण विशेष रूप से प्रभावित होती हैं।
2. आरमिलेरिया जड़ सड़न (Armillaria root rot) - यह रोग आरमिलेरिया मीलिया (Armillaria melia) नामक "गिल फफूँदी" द्वारा होती है। यह जड़ पर जमने लगती है और उसे सड़ा देती है। कभी-कभी तो सैकड़ों वृक्ष इस रोग के कारण नष्ट हो जाते हैं।
चीड़ (अंग्रेजी:Pine)
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9:44 PM
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