अनावृतबीजी या विवृतबीज (gymnosperm, जिम्नोस्पर्म, अर्थ: नग्न बीज) ऐसे पौधों और वृक्षों को कहा जाता है जिनके बीज फूलों में पनपने और फलों में बंद होने की बजाए छोटी टहनियों या शंकुओं में खुली ('नग्न') अवस्था में होते हैं। यह दशा 'आवृतबीजी' (angiosperm, ऐंजियोस्पर्म) वनस्पतियों से विपरीत होती है जिनपर फूल आते हैं (जिस कारणवश उन्हें 'फूलदार' या 'सपुष्पक' भी कहा जाता है) और जिनके बीज अक्सर फलों के अन्दर सुरक्षित होकर पनपते हैं। अनावृतबीजी वृक्षों का सबसे बड़ा उदाहरण कोणधारी हैं, जिनकी श्रेणी में चीड़ (पाइन), तालिसपत्र (यू), प्रसरल (स्प्रूस), सनोबर (फ़र) और देवदार (सीडर) शामिल हैं।साइकस की पौध आंध्रप्रदेश व पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में तैयार की जाती है। इसका बड़ा तना लोगों का ध्यान खींचता है। वर्ष में एक बार इस पर नई पत्तियां आती हैं। इसमें गोबर की खाद डाली जाती है। इसका तना काले रंग का होता है। साइकस के पौधे की कीमत उसकी उम्र के साथ बढ़ती है।
इसके प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. साइकस (Cycas) में काष्ठ (wood) मेनोजाइलिक (Manoxylic) तथा पाइनस (Pinus) में पिक्नोजाइलिक (Pycnoxylic) होती है।
2. सबसे बड़ा अण्डाणु तथा शुक्राणु साइकस का होता है, जो कि एक जिम्नोस्पर्म है।
आर्थिक महत्व -
1. साइकस (Cycas) के तनों से मण्ड (starch) निकालकर खाने वाला साबूदाना (sago) का निर्माण किया जाता है।
2. साइकस के बीज अण्डमान द्वीप के जनजातियों द्वारा खाए जाते हैं।
3. साइकस की पत्तियों से रस्सी तथा झाड़ू बनायी जाती है।
4 . इकस को सागो-पाम (sago palm) कहा जाता है।
5 . साइकस ताड़ जैसे (Palm like) मरुदभिद पौधा है, जिसमें तना लम्बा, मोटा तथा अशाखित होता है। इनके सिरों पर अनेक हरी पतियाँ गोलाकार ढंग से एक मुकुट जैसी रचना बनाती हैं।
6 . शैवाल युक्त साइकस की जड़ को कोरेलॉयड (Corranoid) जड़ कहते हैं।
7 . साइकस (Cycas) को जीवित जीवाश्म (Living fossils) कहा जाता है।
परिचय
विवृतबीज वनस्पति जगत् का एक अत्यंत पुराना वर्ग है। यह टेरिडोफाइटा (Pteridophyta) से अधिक जटिल और विकसित है और आवृतबीज (Angiosperm) से कम विकसित तथा अधिक पुराना है। इस वर्ग की प्रत्येक जाति या प्रजाति में बीज नग्न रहते हैं, अर्थात् उनके ऊपर कोई आवरण नहीं रहता। पुराने वैज्ञानिकों के विचार में यह एक प्राकृतिक वर्ग माना जाता था, पर अब नग्न बीज होना ही एक प्राकृतिक वर्ग का कारण बने, ऐसा नहीं भी माना जाता है। इस वर्ग के अनेक पौधे पृथ्वी के गर्भ में दबे या फॉसिल के रूपों में पाए जाते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि ऐसे पौधे लगभग चालिस करोड़ वर्ष पूर्व से ही इस पृथ्वी पर उगते चले आ रहे हैं। इनमें से अनेक प्रकार के तो अब, या लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व ही, लुप्त हो गए और कई प्रकार के अब भी घने और बड़े जंगल बनाते हैं। चीड़, देवदार आदि बड़े वृक्ष विवृतबीज वर्ग के ही सदस्य हैं।
इस वर्ग के पौधे बड़े वृक्ष या साइकस (cycas) जैसे छोटे, या ताड़ के ऐसे, अथवा झाड़ी की तरह के होते हैं। सिकोया जैसे बड़े वृक्ष (३५० फुट से भी ऊँचे), जिनकी आयु हजारों वर्ष की होती है, वनस्पति जगत् के सबसे बड़े और भारी वृक्ष हैं। वैज्ञानिकों ने विवृतबीजों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है। वनस्पति जगत् के दो मुख्य अंग हैं : क्रिप्टोगैम (Cryptogams) और फैनरोगैम (Phanerogams)। फैनरोगैम बीजधारी होते हैं और इनके दो प्रकार हैं : विवृतबीज और आवृतबीज; परंतु आजकल के वनस्पतिज्ञ ने वनस्पति जगत् का कई अन्य प्रकार का वर्गीकरण करना आरंभ कर दिया है, जैसे (१) वैस्कुलर पौधे (Vascular) या ट्रेकियोफाइटा (Tracheophyta) और (२) एवैस्कुलर या नॉन वैस्कुलर (Avascular or nonvascular) या एट्रैकियोफ़ाइटा (Atracheophyta) वर्ग। वैस्कुलर पौधों में जल, लवण लवण इत्यादि के लिए बाह्य ऊतक होते हैं। इन पौधों को (क) लाइकॉप्सिडा (Lycopsida), (ख) स्फीनॉप्सिडा (Sphenopsida) तथा (ग) टिरॉप्सिडा (Pteropsida) में विभाजित करते हैं। टिरॉप्सिडा के अंतर्गत अन्य फ़र्न, विवृतबीज तथा आवृतबीज रखे जाते हैं।
विवृतबीज के दो मुख्य उपप्रभाग हैं :
- (१) साइकाडोफाइटा (Cycadophyta) और
- (२) कोनिफेरोफाइटा (Coniferophyta)।
साइकाडोफाइटा में मुख्य तीन गण हैं :
- (क) टेरिडोस्पर्मेलीज़ या साइकाडोफिलिकेलीज़ (Pteridospermales or Cycadofilicales),
- (ख) बेनीटिटेलीज़ या साइकाडिऑइडेलीज (Bennettitales or Cycadeoidales) और
- (ग) साइकाडेलीज़ (Cycadales)।
कोनिफेरोफाइटा में चार मुख्य गण हैं :
- (क) कॉडेंटेलीज़ (Cordaitelles),
- (ख) गिंगोएलीज (Ginkgoa'es),
- (ग) कोनीफ़रेलीज (Coniferales) और
- (घ) नीटेलीज़ (Gnitales)।
इनके अतिरिक्त और भी जटिल और ठीक से नहीं समझे हुए गण पेंटोज़ाइलेलीज़ (Pentoxylales), कायटोनियेलीज़ (Caytoniales) इत्यादि हैं।
साइकाडोफाइटा
टेरिडोरपर्मेलीज़ या साइकाडोफिलिकेली
इस गण कें अंतर्गत आनेवाले पौधे भूवैज्ञानिक काल के कार्बनी (Carboniforous) युग में, लगभग २५ करोड़ वर्ष से भी पूर्व के जमाने में, पाए जाते थे। इस गण के पौधे शुरू में फर्न समझे गए थे, परंतु इनमें बीज की खोज के बाद इन्हें टैरिडोस्पर्म कहा जाने लगा। पुराजीव कल्प के टेरिडोस्पर्म तीन काल में बाँटे गए हैं -
- (१) लिजिनॉप्टेरिडेसिई (Lyginopteridaceae), (२) मेडुलोज़ेसिई (Medullosaceae) और कैलामोपिटिए सिई (Calamopiteyaceae)।
लिजिनाप्टेरिडेसिई की मुख्य जाति कालिमाटोथीका हानिंगघांसी (Calymmatotheca hoeninghansi) है। इसके तन को लिजिनॉप्टेरिस (Lyginopteris) कहते हैं, जो तीन या चार सेंटीमीटर मोटा होता था। इसके अंदर मज्जा (pith) में काले कड़े ऊतक गुच्छे, जिन्हें स्क्लेरॉटिक नेस्ट (Sclerotic nest) कहते हैं, पाए जाते थे। बाह्य वल्कुट (cortex) भी विशेष प्रकार से मोटे और पतले होते थे। तनों से निकलनेवाली पत्तियों के डंठल में विशेष प्रकार के समुंड रोम (capitate hair) पाए जाते थे। इनपर लगनेवाले बीज मुख्यत: लैजिनोस्टोमा लोमेक्साइ (Lagenostoma lomaxi) कहलाते हैं। ये छोटे गोले (आधा सेंटीमीटर के बराबर) आकार के थे, जिनमें परागकण एक परागकोश में इकट्ठे रहते थे। इस स्थान पर एक फ्लास्क के आकार का भाग, जिसे लैजिनोस्टोम कहते हैं, पाया जाता था। अध्यावरण (integument) और बीजांडकाय (nucellus) आपस में जुटे रहते थे। बीज एक प्रकार के प्याले के आकार की प्यालिका (cupule) से घिरा रहता था। इस प्यालिका के बाहर भी उसी प्रकार के समुंड रोम, जैसे तने और पत्तियों के डंठल पर उगते थे, पाए जाते थे। अन्य प्रकार के बीजों को कोनोस्टोमा (Conostoma) और फाइसोस्टोमा (Physostoma) कहते हैं। लैजिनॉप्टेरिस के परागकोश पुंज (poller bearing organ) को क्रॉसोथीका (Crossotheca) और टिलैंजियम (Telangium) कहते हैं। क्रॉसोथीका में निचले भाग चौड़े तथा ऊपर के पतले होते थे। टहनियों जैसे पत्तियों के विशेष आकार पर, नीचे की ओर किनारे से दो पंक्तियों में परागकोश लटके रहते थे। टिलैंजियम में परागकोश ऊपर की ओर मध्य में निकले होते थे।
कुछ नई खोज द्वारा लिजिनॉप्टेरिस के अतिरिक्त अन्य तने भी पाए गए हैं, जैसे कैलिस्टोफाइटॉन (Callistophyton), शाप फिएस्ट्रम (Schopfiastrum), या पहले से जाना हुआ हेटेरैंजियम (Heterangium)। इन सभी तनों में बाह्य वल्कुट में विशेष प्रकार से स्क्लेरेनकाइमेटस (sclerenchymatous) धागे (strands) पाए जाते हैं।
मेडुलोज़ेसिई (Medullosaceae) का मुख्य पौधा मेडुलोज़ा (Medullosa) है, जिसकी अनेकानेक जातियाँ पाई जाती थीं। मेडुलोज़ा की जातियों के तने बहुरंगी (polystelic) होते थे। स्टिवार्ट (Stewart) और डेलिवोरियस (Delevoryas) ने सन् १९५६ में मेडुलाज़ा के पौधे के भागों को जोड़कर एक पूरे पौधे का आकार दिया है, जिसे मेडुलोज़ा नोइ (Medullosa noei) कहते हैं। यह पौधा लगभग १५ फुट ऊँचा रहा होगा तथा इसके तने के निचले भाग से बहुत सी जड़ें निकलती थीं। मेडुलोज़ा में परागकोश के पुंज कई प्रकार के पाए गए हैं, जैसे डॉलिरोथीका (Dolerotheca), व्हिटलेसिया (Whittleseya), कोडोनोथीका (Codonotheca), ऑलेकोथीका (Aulacotheca) और एक नई खोज गोल्डेनबर्जिया (Goldenbergia)। डॉलिरोथीका एक घंटी के आकार का था, जिसके किनारे की दीवार पर परागपुंज लंबाई में लगे होते थे। ऊपर का भाग दाँतेदार होता था। कोडोनोथीका में ऊपर का दाँत न होकर, अंगुली की तरह ऊँचा निकला भाग होता था। मेडुलोज़ा के बीज लंबे गोल होते थे, जो बीजगण ट्राइगोनोकार्पेलीज़ (Trigonocarpales) में रखे जाते हैं। इनमें ट्राइगोनोकारपस (Trigonocorpus) मुख्य है। अन्य बीजों के नाम इस प्रकार हैं : पैकीटेस्टा (Pachytesta) और स्टीफैनोस्पर्मम (Stephanospermum)।
कैलामोपिटिएसिई (Calamopityaceae) कुल ऐसे तनों के समूह से बना है, जिन्हें अन्य टेरिडोस्पर्मस में स्थान नहीं प्राप्त हो सका। इनमें मुख्यत: सात प्रकार के तने है, जिनमें कैलामोपिटिस (Calamopitys), स्टीनोमाइलान (Sphenoxylon) अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मीसोज़ोइक टेरिडोस्पर्म (Mesozoic pteridosperm) के पौधे पेल्टैंस्पर्मेसिई (Peltaspermaceae) और कोरिस्टोस्पर्मेसिई (Corystospermaceae) कुलों में रखे जाते हैं। ये ६ करोड़ से १८ करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर उगते थे। इनके अवशेष कोयले या कुछ चिह्न के रूप में मिलते हैं हैं। इनके कुछ मुख्य पौधों के नाम इस प्रकार हैं : लेपिडॉप्टेरिस (Lepidopteris), उम्कोमेसिया (Umkomasia), पाइलोफोरोस्पर्मम (Pilophorospermum), स्परमैटोकोडॉन (Spermatocodon), टेरूचुस (Pteruchus), जुबेरिया (Zuberia) इत्यादि।
टेरिडोस्पर्मेंलीज़ से मिलते जुलते ही एक कुल काइटोनियेसी (Caytoniaceae) को भी गण का पद दिया गया है और इसे काइटोनियेलीज (Caytoniales) कहते हैं। इसके पौधे काइटोनिया (Caytonia) को शुरु में आवृतबीज समझा गया था, परंतु फिर अधिक अनुसंधान पर इन्हें विवृतबीज पाया गया।
इसके तना का एक छोटा टुकड़ा मिला है, जिसे कोई विशेष नाम दिया गया है। पत्ती को सैजिनॉप्टेरिस (Sagenopteris) कहते हैं, जो एक स्थान से चार की संख्या में निकलती हैं। पत्ती की शिराएँ जाल जैसा आकार बनाती हैं। इनमें रध्रों (stomata) के किनारे के कोश हैप्लोकीलिक (haplocheilic) प्रकार के होते हैं। परागकण चार या तीन के गुच्छों में लगे होते हैं, जिन्हें काइटोनैन्थस (Caytonanthus) कहते हैं। परागकण में दो हवा भरे, फूले, बैलून जैसे आकार के होते हैं। बीज की फल से तुलना की जाती है। ये गोल आकार के होते हैं और अंदर कई बीजांड (ovules) लगे होते हैं।
बेनीटिटेलीज़ या साइकाडिऑइडेलीज़ (Bennettitales or Cycadeoidales) गण
इसको दो कुलों में विभाजित किया गया है :
- (१) विलियमसोनियेसिई (Williamsoniaecae) और
- (२) साइकाडिऑइडेसिई (Cycadeoidaceae).
बिलियमसोनियेसिई कुल का सबसे अधिक अच्छी तरह समझा हुआ पौधा विलियमसोनिया सीवार्डियाना (Williamsonia sewardiana) का रूपकरण (reconstruction) भारत के प्रख्यात वनस्पति विज्ञानी स्व. बीरबल साहनी ने किया है। इसके तने को बकलैंडिया इंडिका (Bucklandia indica) कहते हैं। इसमें से कहीं कहीं पर शाखाएँ निकलती थीं, जिनमें प्रजनन हेतु अंग पैदा होते थे। मुख्य तने तथा शाखा के सिरों पर बड़ी पत्तियों का समूह होता है, जिसे टाइलोफिलम कटचेनसी (Tilophyllum cutchense) कहते हैं। नर तथा मादा फूल भी इस क्रम में रखे गए हैं जिनमें विलियमसोनिया स्कॉटिका (Williamsonia scotica) तथा विलियम स्पेक्टेबिलिस (W. spectabilis), विलियम सैंटेलेंसिस (W. santalensis) इत्यादि हैं। इसके अतिरिक्त विलियमसोनिएला (Williamsoniella) नामक पौधे का भी काफी अध्ययन किया गया है।
साइकाडिआइडेसी कुल में मुख्य वंश साइकाडिआइडिया (Cycadeoidea), जिसे बेनीटिटस (Bennettitus) भी कहते हैं, पाया जाता था। करोड़ों वर्ष पूर्व पाए जानेवाले इस पौधे का फ़ासिल सजावट के लिए कमरों में रखा जाता है। इसके तने बहुत छोटे और नक्काशीदार होते थे। प्रजननहेतु अंग विविध प्रकार के होते थे। सा. वीलैंडी (C. wielandi), सा. इनजेन्स (C. ingens), सा. डकोटेनसिस (C dacotensis), इत्यादि मुख्य स्पोर बनाने वाले भाग थे। इस कुल की पत्तियों में रध्रं सिंडिटोकीलिक (syndetocheilic) प्रकार के होते थ जिससे वह विवृतबीज के अन्य पौधों से भिन्न हो गया है और आवृतबीज के पौधों से मिलता जुलता है। इस गण के भी सभी सदस्य लाखों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो चुके है। ये लगभग २० करोड़ वर्ष पूर्व पाए जाते थे।
साइकडेलीज़
साइकडेलीज़ गण के नौ वंश आजकल भी मिलते हैं, इनके अतिरिक्त अन्य सब लुप्त हो चुके हैं।
आज कल पाए जानेवाले साइकैंड (cycad) में पाँच तो पृथ्वी के पूर्वार्ध में पाए जाते हैं और चार पश्चिमी भाग में। पूर्व के वंशों में साइकस सर्वव्यापी है। यह छोटा मोटा ताड़ जैसा पौधा होता है और बड़ी पत्तियाँ एक झुंड में तने के ऊपर से निकलती हैं। पत्तियाँ प्रजननवाले अंगों को घेरे रहती हैं। अन्य चार वंश किसी एक भाग में ही पाए जाते हैं, जैसे मैक्रोज़ेमिया (Macrozamia) की कुल १४ जातियाँ और बोवीनिया (Bowenia) की एकमात्र जाति आस्ट्रेलिया में ही पाई जाती है। एनसिफैलॉर्टस (Encephalortos) और स्टैनजीरिया (Stangeria) दक्षिणी अफ्रीका में पाया जाता है।
पश्चिम में पाए जानेवाले वंश में जेमिया (Zamia) अधिक विस्तृत है। इसके अतपिक्त माइक्रोसाइकस (Microcycas) सिर्फ पश्चिमी क्यूबा, सिरैटाज़ेमिया (Ceratozamia) और डियून (Dioon) दक्षिण में ही पाए जाते हैं। इन सभी वंशों में से भारत में भी पाया जानेवाला साइकस का वंश प्रमुख है।
साइकस भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका में स्वत: तथा बाटिकाओं में उगता है। इसकी मुख्य जातियाँ साइकस पेक्टिनेटा (Cycaspectinata), सा. सरसिनेलिस (C. circinalis), सा. रिवोल्यूटा (C. revoluta), इत्यादि हैं। इनमें एक ही तना होता है। पत्ती लगभग एक मीटर लंबी होती है। इस पौधे से एक विशेष प्रकार की जड़, जिसे प्रवालाभ मूल (Coralloid root) कहते हैं, निकलती है। इस जड़ के भीतर एक गोलाई में हरे, नीले शैवाल निवास करते हैं। तने मोटे होते हैं, परंतु कड़े नहीं होते। इन तनों के वल्कुट के अंदर से साबूदाना बनानेवाला पदार्थ निकाला जाता है, जिससे साबूदाना बनाया जाता है। पत्तियों में घुसने वाली नलिका जोड़े में स्तम्भ से निकल कर डंठल में जाती है, जहाँ कई संवहन पूल (vascular bundle) पाए जाते हैं। पत्तियों के आकार और अंदर की बनावट से पता चलता है कि ये जल को संचित रखने में सहायक हैं। रध्रं सिर्फ निचले भाग ही में घुसी हुई दशा में पाया जाता है। प्रजनन दो प्रकार के कोन (cone) या शंकु द्वारा होता है। लघु बीजाणु (microspore) पैदा करनेवाले माइक्रोस्पोरोफिल के मिलने से नर कोन, या नर शंकु (male cone और बड़े बीजांड (ovule) वाले गुरु बीजाणुवर्ण (megasporophyll) के संयुक्त मादा कोन (female cone), या मादा शंकु बनते हैं। समस्त वनस्पति जगत के बीजांड में सबसे बड़ा बीजांड साइकस में ही पाया जाता है। यह लाल रंग का होता है। इसमें अध्यावरण के तीन परत होते हैं, जिनके नीचे बीजांडकाय और मादा युग्मकोद्भिद (female gametophyte) होता है। स्त्रीधानी (archegonium) ऊपर की ओर होती है और परागकण बीजांडद्वार (micraphyle) के रास्ते से होकर, परागकक्ष तक पहुँच जाता है। गर्भाधान के पश्चात् बीज बनता है। परागकण से दो शुक्राणु (sperm) निकलते हैं, जो पक्ष्माभिका (cilia) द्वारा तैरते हैं।
पेंटाग्ज़िलेलीज़ एक ऐसा अनिश्चित वर्ग है जो साइकाडोफाइटा तथा कोनीफेरोफाइटा दोनों से मिलता जुलता है। इस कारण इसे यहाँ उपर्युक्त दोनों वर्गों के मध्य में ही लिखा जा रहा है। यह अब गण के स्तर पर रखा जाता है। इस गण की खोज भारतीय वनस्पतिशास्त्री आचार्य बीरबल साहनी ने की है। इसके अंतर्गत आनेवाले पौधों, या उनके अंगों के फॉसिल बिहार प्रदेश के राजमहल की पहाड़ियों के पत्थरों में दबे मिले हैं। तने को पेंटोज़ाइलान (Pentoxylon) कहते हैं, जो कई सेंटीमीटर मोटा होता था और इसमें पाँच रंभ (stoles) पाए जाते थे। इसके अतिरिक्त राजमहल के ही इलाके में निपानिया ग्राम से प्राप्त तना निपानियोज़ाइलान (Nipanioxylon) भी इसी गण में रखा जाता है। इस पौधे की पत्ती को निपानियोफिलम (Nipaniophyllum) कहते हैं, जो एक चौड़े पट्टे के आकार की होती थी। इसका रंभ आवृतबीज की तरह सिनडिटोकीलिक (syndetocheilic) प्रकार का होता है। बीज की दो जातियाँ पाई गई हैं, जिन्हें कारनोकोनाइटिस कॉम्पैक्टम (Carnoconites compactum) और का. लैक्सम (C. laxum) कहते हैं। बीज के साथ किसी प्रकार के पत्र इत्यादि नहीं लगे होते। नर फूल को सहानिया (Sahania) का नाम दिया गया है।
कोनिफेरोफाइटा
कॉर्डाइटेलीज
कोनीफेरोफाइटा का प्रथम गण कॉर्डाइटेलीज (cordaiteles) हैं, जो साइकाडोफाइटा के पौधों से कहीं बड़े और विशाल वृक्ष हुआ करते थे। पृथ्वी पर प्रथम वृक्षोंवाले जंगल इन्हीं कारडाइटीज के ही थे, जो टेरिडोस्पर्म की तरह, २५ करोड़ वर्ष से पूर्व, इस धरती पर राज्य करते थे। इनकी ऊँचाई कभी कभी १०० फुट से भी अधिक होती थी। इन्हें तीन कुलों में विभाजित किया गया है :
- (१) पिटिई (Pityeae), (२) कारडाइटी (Cordaiteae) और (३) पोरोज़ाइलीई (Poroxyleae)।
पिटिई मुख्यत: तने की अंदरूनी बनावट पर स्थापित किया गया है। इस कुल के पौधों में कैसी पत्ती या फूल थे, इसका ज्ञान अभी तक ठीक से नहीं हो पाया है। एक वंश कैलिजाइलान (Callixylon) का, अमरीका से प्राप्त कर, अच्छी तरह अध्ययन किया गया है, यह एक विशाल वृक्ष रहा होगा, जिसकी शाखा की चौड़ाई लगभग १७-१८ फुट की थी।
कॉर्डाइटी का मुख्य वंश कॉर्डांइटिज़ (Cordaites) है। इसकी लकड़ी को कॉर्डियोज़ालाइन (Cordioxylon) डैडोज़ाइलान (Dadoxylon), जड़ को एमिलान (Amyelon), पुष्पगुच्छ को कॉर्डाऐंथस (Cordaianthus) और बज को कॉर्डाइकार्पस (Cordaicarpus) और समारॉप्सिस (Samaropsis) कहते हैं। पत्ती भी लगभग ३-४ फुट लंबी और १ फुट चौड़ी होती थी। पत्ती के अंदर के ऊतकों की बनावट से ज्ञात है कि ये सूखे स्थानों पर उगते होंगे। कॉर्डाइटीज़ के तने के मध्य का पिथ या मज्जा विशेष रूप से विवाभ (discoid) लगता है। कॉर्डाइटीज़ के फूल एकलिंगी होते थे, जो अधिकतर अलग अलग वृक्ष पर, या कभी कभी एक ही वृक्ष की अलग शाखा पर, लगे होते थे। कॉर्डाइऐंथस पेजोनी के पुंकेसर (stamen), एक शाखा से ३-४ की संख्या में, सीधे ऊपर निकलते हैं। परागकण में दो परतें होती हैं। मादा कोन एक कड़े स्तंभ पर ऊपर की ओर लगा होता है।
पोरोज़ाइली कुल में सिर्फ एक ही प्रजाति पोरोज़ाइकलन है, जिसके तने में भीतर बृहत् मज्जा होती है।
गिंगोएलीज़
कोनीफेरोफाइटा का दूसरा गण हैं, गिंगोएलीज़ (Ginkgoales)। यह मेसोज़ोइक युग से, अर्थात् लगभग ५-७ करोड़ वर्ष पूर्व से, इस पृथ्वी पर पाया जा रहा है। उस समय में तो इसके कई वंश थे, पर आज कल सिर्फ एक ही जाति जीवित मिलती है। यह गिंगो बाइलोबा (Ginkgo biloba) एक अत्यंत सुंदर वृक्ष चीन देश में पाया जाता है। इसके कुछ इने गिने पौधे भारत में भी लगाए गए हैं। इसकी सुंदरता के कारण इसे 'मेडेन हेयर ट्री' (Maiden-hair tree) भी कहा जाता है।
फॉसिल जिंकगोएजीज़ में जिंकगोआइटीज (Ginkgoites) और बइरा (Baiera) अधिक अध्ययन किए गए हैं। इनके अतिरिक्त ट्राइकोपिटिस (Trichopitys) सबसे पुराना सदस्य है। जिंकगो को वैज्ञानिकों ने शुरु में आवृतबीज का पौधा समझा था, फिर इसे विबृतबीज कोनिफरेल् समझा गया, परंतु अधिक विस्तार से अध्ययन करने पर इसका सही आकार समझ में आया और इसे एक स्वतंत्र गण, गिंगोएलीज़ का स्तर दिया गया। यह वृक्ष छोटी अवस्था में काफी विस्तृत और चौड़े गोले आकार का होता है, जैसे आम के वृक्ष होते हैं, परंतु आय बढ़ने से वह नुकीले पतले आकार का, कुछ चीड़ के वृक्ष या पिरामिड की शक्ल का हो जाता है। इसके तने, दो प्रकार के होते हैं : लंबे तने, जो बनावट में कोनीफेरोफाइटा की तरह होते हैं और बौने प्ररोह (dwarf shoots), जो साइकेडोफाइटा जैसे अंदर के आकार के होते हैं। इनकी पत्ती बहुत ही सुंदर होती है, जो दो भागों में विभाजित होती है। पत्ती में नसें भी जगह जगह दो में विभाजित होती रहती हैं। नर और मादा कोन अलग अलग निकलते हैं। बीजांड के नीचे एक 'कॉलर' जैसा भाग होता है।
ऐसा अनुमान है कि इस गण के पौधे कॉर्डाइटी वर्ग से ही उत्पन्न हुए होंगे। इसमें नरयुग्मक तैरनेवाले होते हैं, जिससे यह साइकड से भी मिलता जुलता है। कुछ वैज्ञानिकों के विचार हैं कि ये पौधे सीधे टेरीडोफाइटा (Pteridophyta) से ही उत्पन्न हुए होंगे।
कोनीफरेलीज़
कोनीफरेलीज़ गण, न केवल कोनिफेरोफाइटाका ही बल्कि पूरे विवृत बीज का, सबसे बड़ा और आज कल विस्तृत रूप से पाया जानेवाला गण है। इसमें लगभग ५० प्रजातियाँ और ५०० से अधिक जातियाँ पाई जाती हैं। इनमें अधिकांश पौधे ठंडे स्थान में उगते हैं। छोटी झाड़ी से लेकर संसार के सबसे बड़े और लंबी आयुवाले पौधे इस गण में रखे गए हैं। कैलिफॉर्निया के लाल लकड़ीवाले वृक्ष (red wood tree), जिन्हें वनस्पति जगत् में सिकोया (sequoia) कहते हैं, लगभग ३५० फुट गगनचुंबी होते हैं और इनके तने ३०-३५ फुट चौड़े होते हैं। यह संसार का सबसे विशालकाय वृक्ष होता है। इसकी आयु ३,०००-४,००० वर्ष तक की होती है।
कोनीफरेलीज़ गण को मुख्य दो कुल पाइनेसी और टैक्सेसी में विभाजित किया गया है। इनमें फिर कई उपकुल हैं परंतु बहुत से विद्वानों ने सभी उपकुलों को कुल का ही स्तर दे दिया है।
पाइनेसी कुल के अंतर्गत चार उपकुल हैं :
- (१) एबिटिनी (Abietineae), (२) टैक्सोडिनी, (Taxodineae), (३) क्यूप्रेसिनी (Cupressineae) और (४) अराकेरिनी (Araucarineae)
टैक्सेसी के अंतर्गत दो उपकुल हैं-
- (१) पोडोकारपिनी (Podocarpineae) और (२) टैक्सिनी (taxineae)
कई वनस्पति शास्त्रियों ने टेक्सिनी को कुल का नहीं, गण (टैक्सेल्स) का स्तर दे रखा है।
पाइनेसी
(१) एबिटिनी में बीजांड पत्र (oruliferous bract) एक विशेष प्रकार का होता है और परागकण में दोनों तरफ हवा में तैरने के लिए हवा भरे गुब्बारे जैसे आकार होते हैं। इस उपकुल के मुख्य उदाहरण हैं : पाइनस या चीड़, सीड्रस या देवदार, लैरिक्स (Larix), पीसिया (Picea) इत्यादि।
(२) टैक्सोडिनी में बीजांड पत्र और अन्य पत्र आपस में सटे होते हैं और परागकण में पंख जैसे आकार नहीं होते। इनके मुख्य उदाहरण हैं : सियाडोपिटिस (Sciadopitys), सिकोया (Sequoia), क्रिप्टोमीरिया (Cryptomeria), कनिंघेमिया (Cuninghamia) इत्यादि।
क्यूप्रेसिनी के मुख्य पौधे कैलिट्रिस (Callitirs), थूजा (Thuja), जिसे मोरपंखी भी कहते हैं, क्यूप्रेसस (Cupressus), जूनिपेरस (Juniperus) इत्यादि हैं।
अरोकेरिनी के अंतर्गत वाटिकाओं में लगाए जानेवाले सुंदर पौधे अरोकेरिया (Araucaria) और एगैथिस (Agathis) हैं।
पाइनेसी कुल के पौधों में एक मध्य स्तंभ जैसा लंबा, सीधा तना होता है, जिससे नीचे की ओर बड़ी और ऊपर छोटी शाखाएँ निकलती हैं। फलस्वरूप पौधे का आकार एक कोन या पिरामिड का रूप धारण करता है। तने के शरीर (anatomy) का काफी अध्ययन किया गया है। वैस्कुलर ऊतक बहुत बृहत् होता है। वल्कुट (cortex) तथा मज्जा दोनों ही पतले होते हैं। वल्कुट के बाहर कार्क (cork) पाए जाते हैं। जड़ की रचना एक द्विबीजी संवृतबीज से मिलती जुलती है।
इस कुल में अन्य कोनीफरेलीज की तरह दो प्रकार की पत्तियाँ पाई जाती हैं। एक पत्ती के रूप की और दूसरी छोटे पतले कागज के टुकड़े जैसे शल्क पत्र (scale leaf) सी होती है। पाइनस में यह अलग प्रकार की पत्तियाँ अलग शाखा पर निकलती हैं, परंतु ऐबीस (Abies) के पौधे में, दोनों पत्र हर डाल पर भी पाए जा सकते हैं। पत्तियों की आयु काफी लंबी होती है और कोई कोई १०-२२ वर्ष तक नहीं झड़तीं। इनका आकार एक सूखे स्थान में उगनेवाले पौधों की पत्ती जैसा होता है। बाह्यचर्म के कोश लंबे होते हैं, जिनके बाहर के भाग पर मोम जैसा क्यूटिन (cutin) पदार्थ जमा रहता है। र्घ्रां अंदर की ओर घुसा होता है। मीज़ोफिल (mesophyll) भाग के कोश पटूटे की भाँति अंदर को लिपटे (infolded) से रहते हैं। एक प्रकार के कोश द्वारा वैस्कुलर ऊतक घिरे रहते हैं, जिसे छाद (sheath) कहते हैं।
प्रजनन मुख्यत: बीज द्वारा होता है। यह एक विशेष प्रकार के अंग में, जिसे कोन (cone) या शंकु कहते हैं, बनता है। कोन दो प्रकार के होते हैं, नर और मादा। नर कोन में पराग बनते हैं, जो हवा द्वारा उड़कर मादा कोन के बीजांड तक पहुंचते है, जहाँ गर्भाधान होता है। दोनों लिंगी कोन अलग अलग पौधों में पाए जाते हैं, जैसे पाइनस में, या एक ही पौधे में जैसे ऐबिस या कभी कभी क्यूप्रसेसी उफ्कुल के पौधों में। लघुबीजाणुधानी (microsporangium) के निकलने का स्थान स्थिर नहीं रहता। किसी में यह डंठल के सिरे पर और किसी में पत्ती के कोण से निकलती है। पाइनस में तो बौने प्ररोह (dwarf shoot) पर ही यह प्रजनन अंग निकलते हैं। लघुबीजाणुधानी जिस पत्र में लगी रहती है, उसे लघुबीजाणु पर्ण (Microsporophyll) कहते हैं। लघुबीजाणुधानी के बाह्यचर्म से नीचे अधस्त्वचा (hypodermis) के कुछ कोश बढ़ते तथा जीव द्रव से भरे रहते हैं और विभाजित होकर, बीजाणुजन ऊतक बनाते हैं और फिर इन्हीं कोशों के कई बार विभाजन होने पर परागकण और अन्य ऊतक बनते हैं।
बीजांड पैदा करनेवाले अंगों को गुरुबीजाणुपर्ण (megasporophyll) कहते हैं। इनके एक स्थान पर झुंड में होने से एक कोन या मादा शंकु बनता है। बीजांड एक प्रकार के शल्क बीजांडघर शल्क पर, नीचे की ओर लगे होते हैं। योनिका भ्रूणपोष (endosperm) से नीचे की ओर से घिरा रहता है और दो आवरण होते हैं। ऊपर की ओर से घिरा रहता है और दो आवरण होते हैं। ऊपर की ओर एक अंडद्वार होता है जिससे होकर परागकण योनिका के पास पहुंच जाते हैं। यहाँ ये कण जमते हैं और पराग नलिका बनता है, जिसमें नलिका केंद्रक (tube nucleus) नर युग्मक पाए जाते हैं। नर युग्मक और मादा युग्मक के संयोग से अंडबीजाणु बनते हैं, जो फिर विभाजन द्वारा बीज को जन्म देते हैं।
ऐसा अनुमान है कि पाइनेसी कुल का जन्म पृथ्वी के प्रथम बड़े वृक्षवाले गण कारडाईटेलीज़ (Cordaitales) द्वारा ही हुआ है।
टैक्सेसी
दूसरा कोनीफरेलीज़ का कुल है टैक्सेसी। इसके दो उपकुल हैं - पोडोकारपिनी और टैक्सिनी। पोडोकारपिनी में भी परागकण में हवा भरे पक्ष (wings) पाए जाते हैं। इसके उदाहरण हैं, पोडोकारपस तथा डैक्रीडियम। टैक्सिनी के परागकण में पक्ष (wing) नहीं होता। टैक्सस, टोरेया और सिफैलोटेक्सस इसके मुख्य उदाहरण हैं। इनमें भी पाइनस जैसे वैस्कुलर ऊतक होते हैं, परंतु कुछ विशेष उंतर भी होता है।
पत्तियाँ कई प्रकार की पाई जाती हैं। कुछ में छोटे नुकीले (जैसे टैक्सस) या चौड़े पत्ते (पोडौकारपस में) होते हैं, या नहीं भी होते हैं, जैसे फाइलोक्लैडस में। प्रजनन हेतु लघुबीजाणुधानी तथा गुरुबीजाणुधानी नर तथा मादा शंकु में लगी होती हैं। इन शंकुओं में शल्क (scales) के अध्ययन काफी किए गए हैं। प्रत्येक बीजाणुपर्ण (sporophyll) में बीजाणुधानी (sporangium) की संख्या भिन्न भिन्न प्रजातियों में भिन्न होती है, जैसे टैक्सस में चार से सात, टोरेया (torreya) में शुरू में सात, परंतु बीजाणुधानी पकने तक १ या २ ही रह जाती हैं। मादा शंकु इस कुल में (अन्य कोनीफर से) बहुत छोटे रूप का होता है। अधिकतर यह शंकु पत्तीवाले तने के सिरे पर उगता है। बीजांड की संख्या एक या दो होती है। इनमें अध्ययन गण और बीजांडकाय की परतें अलग रहती हैं। पराग दो केंद्रक की दशा में, हवा में झड़कर, मादा शंकु तक पहुंचते हैं और बीजाणु पर पहुँचकर जमते हैं। वहाँ ये बढ़कर एक नलिका बनाते हैं और संसेचन का कार्य संपन्न करते हैं।
इस कुल का संबंध अन्य कुल या गण से कई प्रकार से रखा गया है। ऐसा विचार भी है कि इस कुल के पौधे जीवित कोनीफर में सबसे जमाने से चले आ रहे हैं। इनका संबंध विंकगो या अराकेरिया या कारडाइटीज़ से हो सकता है। ऐसा भी कई वैज्ञानिकों का विचार है कि यह स्वतंत्र रूप से (अन्य कोनीफर से नहीं) उत्पन्न हुए होंगे।
कोनीफरलीज़ गण काफी गूढ़ और विस्तृत है, जिसमें बहुत से आर्थिक दृष्टि से अच्छे पौधे पाए जाते हैं, जैसे चीड़, चिलगोज़ा, देवदार, सिकोया तथा अन्य, जो अच्छी लकड़ी या तारपीन का तेल देनेवाले हैं।
नीटेलीज़
कोनीफेरोफाइटा का सबसे उन्नत गण है, नीटेलीज़। इस गण में तीन जीवित पौधे हैं : नीटम (Gnetum), एफिड्रा (Ephedra) और वेलविट्शिया (Welwetschia) आज के कई वैज्ञानिकों ने इन तीनों प्रजातियों की रूपरेखा तथा पाए जानेवाले स्थान की भिन्नता के कारण अलग अलग आर्डर का स्तर दे रखा है। फिर भी कुछ गुण ऐसे हैं जैसे वाहिका (Vessel) का होना, संयुक्त शंकु (compound cone), अत्यंत लंबी माइक्रोपाइल, पत्तियों का आमने सामने (opposite) होना इत्यादि, जो तीनों प्रजातियों में मिलते हैं। इस गण के पौधों को कोनीफेरफ्रोाइटा से इसीलिए हटाकर एक नए ग्रुप क्लेमाइढोस्पर्मोफाइटा में रखा जाने लगा है।
एफिड्रा, जिससे एफिड्रीन जैसी ताकत की औषधि निकलती है, एक झाड़ी के आकार का पौधा है। इसकी लगभग चालीस जातियाँ पृथ्वी के अनेक भागों में पाई जाती हैं। पश्चिम में मेक्सिको, ऐंडीज़ परगुए, फ्रांस, तथा पूर्व में भारत, चीन इत्यादि, में यह उगता है। भूमध्य रेखा के दक्षिण में यह नहीं पाया जाता। इसकी मूसली जड़ (tap root) मजबूत और बड़ी होती है। इसके तने पतले हरे रंग के होते हैं, जिनपर पत्तियाँ नहीं के बराबर होती हैं। ये पत्तियाँ इतनी छोटी होती हैं कि आहार बनाने का कार्य तने द्वारा ही होता है। इनके तन में गौण ऊतक में वाहिनियाँ पाई जाती हैं। मज्जारश्मि (medullary ray) चौड़ी और लंबी होती है। संवहन (vascular) नलिका एंडार्क साइफोनोस्टील (endarch siphonostele) होता है। इनमें एक प्रकार का रासायनिक पदार्थ टैनिन पाया जाता है। वल्कुट में क्लोरोफिल पाए जाते हैं। इनके बाहर रध्रं होते हैं, जो गैसों के आदान प्रदान तथा भाप के बाहर निकलने के लिए मार्ग प्रदान करते हैं।
एफिड्रा में नर और मादा शंकु अलग अलग पौधे पर निकलता है। केवल एफिड्रा की एक जाति, ए. फोलिपेटा, में ही एक पौधे पर दोनों प्रकार के शंकु पाए जाते हैं। नर शंकु से दो, तीन अथवा चार चक्र में लघुबीजाणुधानियाँ (microsporangiums) निकलती हैं। जहाँ से ये निकलती हैं, वहाँ चार-पाँच से आठ जोड़े तक शुल्क होते हैं, जिसमें दो जोड़े बाँझ होते हैं। बीजाणुधानी की संख्या ४-५ या ६ तक होती है। मादा शंकु काफी लंबा तथा २-३ या ४ चक्र में हरे रंग का होता है। सहपत्रों (bracts) की संख्या भी नर से अधिक होती है। अंडकोशिका (egg cell) के चारों ओर कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) भरा होता है। परागकण चिपचिपे द्रव के बूंद में फंस जाता है और लंबे बीजांडद्वार द्वारा खिंचकर अंड तक पहुँचता है। तीन या चार भ्रूण तक एक बीजांड में देखे गए हैं।
वेल्विशिया (Welwitschia) दक्षिण अफ्रीका के पश्चिम तट पर ही उगता है और कहीं भी नहीं पाया जाता। यह तट के कुछ मील के भीतर ही सीमित है। प्रथम इसे टमबोआ मिरैविलिस कहा गया था, परंतु बाद में इसके आविष्कारक डॉ॰ वेल्विश के नाम पर इसे वेल्विश या मिरैविसि कहा गया। यह अत्यंत मरुद्भिदी (xerophytic), अर्थात् सूखे स्थान पर उगनेवाले पौधों जैसा, होता है। जहाँ यह उगता है वहाँ वर्ष भर की पूरी वर्षा लगभग एक इंच ही होती है। शक्ल सूरत तो गाजर जैसी होती है, पर इससे बहुत बड़ा, लगभग ३-४ फुट चौड़ा, होता है। पौधे के ऊपर एक मोदा आवरण बाह्यवल्क (periderm) होता है। मुख्यत: दो ही पत्तियाँ होती हैं, जो बहुत मोटे चमड़े के पट्टे की तरह होती हैं। मध्य भाग में लैंगिक जनन के अंग, जो पकने पर झड़कर गिर जाते हैं, निकलते हैं और वे निकलने के स्थान पर एक क्षतचिन्ह छोड़ देते हैं। पौधे की प्रथम दो पत्तियाँ ही, संपूर्ण जीवन भर बिना झड़े, लगभग ६०-७० या १०० वर्ष तक, लगी रहती हैं। तेज हवा के झोंके से पत्तियाँ लंबाई में, शिराओं की सीधी लाइन में, फट जाती हैं। शिखा से पत्ती सूखती चलती है और नीचे से बढ़ती चलती है। जड़ तो बहुत गहराई तक जाती है।
वेल्विशिया के पौधे के काटने से पता चलता है कि तने तथा जड़ में कैल्शियम ऑक्सैलेट की बहुमुखी सूई के आकार की कंटिका (spicule) की तरह की कोशिकाएँ होती हैं। संवहन ऊतक (vascular tissue) भी कई प्रकार के पाए जाते हैं। नर शंकु और मादा शंकु अलग अलग बनते हैं। बीजांड प्रारंभ में हरे होते हैं, पर पकने पर चमकीले लाल हो जाते हैं। प्रत्येक शंकु में ६०--७० बीजांड होते हैं। उत्पत्ति और अन्य रूप से भी यह पौधा अपना साथी नहीं रखता और ऐसा लगता है कि इसने पौधे की किसी अन्य जाति को भी उत्पन्न नहीं किया है। यह एक जीवित फॉसिल है।
नीटेलीज़ (Gnetales) गण का मुख्य वंश नीटम (Gnetum) है। यह द्विबीजी है तथा आवृतबीज से बहुत मिलता जुलता है। यह लता तथा वृक्ष के रूप में उगता है। यह देश भूमध्य सागरीय नम स्थानों में ही पाया जाता है और इसकी लगभग ३० जातियाँ मिलती हैं। विवृतबीज में यह वंश सबसे अधिक विकसित माना जाता है। माहेश्वरी और वाणिल ने अपनी पुस्तक 'नीटम' में लिखा है कि भारत में नीटम निमोन (G. gnemon) आसाम में, नी. उलवा (G. ulva) पश्चिम तथा पूर्वी तट पर, नी. आबलांगम बंगाल में, नीटम कंट्रैक्टम केरल में, नी. लैटिफोलियम अंडमान, निकोबार में तथा नीटम ऊला अन्य भागों में पाया जाता है।
नीटम के तने की बनावट काफी जटिल होती है। बाह्य त्वचा के बाहर का भाग मोटी दीवार से बना होता है। रध्रं गहरे गड्ढे में बनता है, वल्कुट की कोशिकाएँ पतली होती हैं और उनमें क्लोरोफिल कभी कभी पाया जाता है। मज्जा पतली कोशिका की दीवार होती है। नीटम नीमोन में गौण वृद्धि साधारण ढंग की होती है, परंतु लतरवाली जातियों में ऐसी वृद्धि एक विशेष प्रकार की होती है, जिसमें वल्कुट ही एधा सक्रियता (ambial activity) उत्पन्न करता है। संवहन ऊतक २--३ चक्र में बन जाते हैं, जैसे नीटम ऊला में। संवाहिनी (vessel) के छोर की दीवार एक ही छिद्र से मिली रहती है। ट्रकीड (trachied) के किनारे की दीवारों पर गर्त (pit) होती हैं। मज्जका रश्मि (medullary ray) काफी चौड़ी और ऊँची होती है।
पत्ती बड़े अंडे के आकार की होती है, जिसमें शिराएँ द्विबीज शल्क पत्ती की भाँति जाल बनाती हैं। ये छोटे तने पर अधिक निकलती हैं। ऐसा समझा जाता था कि इनके रध्रं आवृतबीज जैसे सिनडिटोकीलिक होते हैं, पर हाल ही में माहेश्वरी और वासिल (१९६१) ने इसे अन्य विवृतबीज जैसा ही, हैप्लोकीलिक, पाया हैं, जिसमें गौण कोशिका की उत्पत्ति द्वारकोशिका (guard cell) से स्वतंत्र होती है।
सभी जातियों में नर तथा मादा प्रजनन अंग अलग अलग पौधे पर उगते हैं। नर फूल, जिनकी संख्या ३ स ६ या ७ तक होती है, एक गोलाई में निकलते हैं। परागकोश की संख्या प्रति पुष्प १, २, या चार होती है। मादा शंकु में भी 'कॉलर' (स्कंध मूल संधि) जैसा भाग होता है, जिसके ऊपर ४ से १० तक बीजांड लगे होते हैं। ये भी एक गोलाई में निकलते हैं। नीटम का संवृतबीजों का पूर्वज भी कहा गया है।
इन सभी गणों के अतिरिक्त कुछ फॉसिल (fossil) विवृतबीज भी मिले हैं, जिन्हें नए गण, या समूह, में रखा गया है, जैसे वॉजनोवस्किएलीस (Vojonovkyales) और ग्लॉसॉप्टरिस विवृतबीज।
वाजनोवस्किएलीज गण की स्थापना सन् १९५५ में न्यूवर्ग (Neuburg) ने रूस के परमियन और अंगारा फ्लोरा से की।
इसका मुख्य पौधा वाजनोवस्किया पैरेडाक्सा (Vojnovskya paradoxa) है, जो झाड़ी जैसा वृक्ष था और पंखे जैसी जिसकी पत्तियाँ थीं। चेकेनोवस्किया (Czekanowskia) भी एक ऐसा ही पौधा था।
ग्लॉमॉप्टरिस के कई पौधे भारत तथा अफ्रीका के गोंडवाना भूमि से अनुसंधान द्वारा प्राप्त हुए हैं। इनके मुख्य उदाहरण हैं : ग्लासॉप्टरिस (Glossopteris) तथा गैंगमॉप्टरिस की पत्ती (Gangamopteris), ओटोकैरिया (Ottokaria) इत्यादि।
अनावृतबीजी या विवृतबीज (gymnosperm, जिम्नोस्पर्म, अर्थ: नग्न बीज)
Reviewed by rajyashikshasewa.blogspot.com
on
10:01 PM
Rating:
No comments:
Post a Comment