क्रिस्टलकी

क्रिस्टलकी (Crystallography) या मणिविज्ञान एक प्रायोगिक विज्ञान है जिसमें ठोसों में परमाणों के विन्यास (arrangement) का अध्ययन किया जाता है। पहले क्रिस्टलिकी से तात्पर्य उस विज्ञान से था जिसमें क्रिस्टलों का अध्ययन किया जाता है। एक्स-किरण के डिफ्रैक्सन द्वारा क्रिस्टलोंके अध्ययनके पहले क्रिस्टलोंका अध्ययन केवल उनकी ज्यामिति (आकार-प्रकार) देखकर की जाती थी। किन्तु आजकल विविध-प्रकार के किरण-पुंजों (एक्स-किरण, एलेक्ट्रान, न्यूट्रान, सिन्क्रोट्रान आदि) के डिफ्रैक्सन से किया जाता है।

परिचय

एक क्रिस्टलीय ठोस (strontium titanate) की परमाणु आकार के रिजोल्युशन में ली गयी छबि : चमकीले परमाणु स्ट्रान्सियम के हैं और काले परमाणु टाइटेनियम के
मणिभविज्ञान, या क्रिस्टलकी वह विद्या है, जिसमें मणिभों या क्रिस्टलों की आकृति, गुण और संरचना का अध्ययन किया जाता है। 'क्रिस्टल' ग्रीक भाषा के शब्द क्रुस्टालॉस (Krustallos) से व्युत्पन्न है। क्रुस्टोलॉस का मूल अर्थ है "हिम", पर यह शब्द बाद में शैल-क्रिस्टल के लिये, जो क्वार्ट्ज की एक रंगहीन पारदर्शक किस्म है, प्रयुक्त किया जाने लगा। इसके विषय में प्राचीन काल में लोगों की धारणा थी कि यह अत्यधिक ठंढ के कारण पानी के जमने से बनता है। शनै: शनै: "क्रिस्टल" शब्द किसी भी ऐसे खनिज के लिये प्रयुक्त किया जाने लगा, जो स्वभाव से ही साधरण फलकों (faces) से घिरा होता है। यह शब्द अंगूठी में जड़े जानेवाले रत्नों तथा अन्य आभूषणों के लिये प्रयुक्त नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनमें जो सुव्यवस्थित समतल फलक दिखाई देते हैं वे प्राकृतिक रीति से नहीं बने हैं, वरन् कृत्रिम हैं। ये फलक काटकर पॉलिश करने के बाद बनाए जाते हैं। सच्चे क्रिस्टल के फलक प्राकृतिक क्रिस्टलन के फलस्वरूप बनते हैं, क्रिस्टलन क्रिया चाहे भूपटल में हुई हो या प्रयोगशाला में। दूसरी अवस्था में किस्टलन के लिये पदार्थ और वातावरण तो मनुष्य द्वारा तैयार किया जाता है, लेकिन क्रिस्टल की वास्तविक रचना तथा उसके विशिष्ट फलकों का विकास मनुष्य के हस्तक्षेप के बिना होता है। ये फलक एक विशेष आंतरिक परमाणु संरचना के फलस्वरूप निर्मित होते हैं। इसी संरचना पर क्रिस्टल के भौतिक गुण निर्भर करते हैं। काँच के बने एक कृत्रिम रत्न में नियमित आंतरिक संरचना नहीं होती है, अत: बाह्य रूप में क्रिस्टल के समान होते हुए भी उसकी गणना क्रिस्टल में नहीं की जाती। अत:, क्रिस्टल की सच्ची पहचान उसके अणुओं के परमाणुओं के नियमित विन्यास द्वारा होती है।
क्रिस्टल एक सम पिंड है, जो प्राय: ठोस होता है और चारों ओर से चिकने समतल फलकों से, विशिष्ट सिद्धांतों के आधार पर, घिरा रहता है। इसके भौतिक गुण निश्चित रहते हैं। इसके बाह्य रूप और भौतिक गुण दोनों ही नियमित आंतरिक संरचना के बाहरी परिचायक हैं। अधिकतर खनिज, जो उपयुक्त अवस्थाओं के अंतर्गत बनते हैं, क्रिस्टल होते हैं।
कुछ ऐसे पदार्थ हैं, जिन्हें हम तरल क्रिस्टल कहते हैं। यद्यपि इनमें नियमित परमाण्वीय विन्यास का प्रमाण मिलता है, तथापि ये सच्चे ठोस नहीं है। दूसरी ओर कुछ ऐसे ठोस खनिज हैं, जिनमें नियमित परमाण्वीय संरचना नहीं मिलती। इन्हें रवाहीन (Amorphous) कहते हैं। कुछ क्रिस्टल बहुत ही छोटे होते हैं। इनके फलकों का विकास सूक्ष्मदर्शी की सहायता से भी नहीं स्पष्ट होता। इन्हें गूढ़ क्रिस्टली (Cryptocrystalline) कहते हैं। साधारणत: क्रिस्टलीय शब्द किसी भी ऐसे पदार्थ के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है जिसमें परमाणु एक नियमित रूप में व्यवस्थित रहते हैं, लेकिन क्रिस्टल शब्द उन्हीं क्रिस्टलीय पदार्थों के लिये प्रयोग में लाया जाता है जो चारों ओर से समतल फलकों से घिरे होते हैं। क्रिस्टल का आकार क्रिस्टलन-समय पर निर्भर करता है। क्रिस्टलन जितना धीरे-धीरे होगा, क्रिस्टल उतने ही बड़े बनेंगे। जब क्रिस्टजन जल्दी होता है, तब अणुओं को विकास केंद्र की ओर अधिक संख्या में जाने का अवसर नहीं मिलता। इस कारण बड़े-बड़े क्रिस्टलों की रचना नहीं हो पाती है। साथ ही श्यानता (viscoity) बढ़ने के कारण अणुओं की गतिविधि भी धीमी पड़ जाती है।
विलयन, गलन (fusion) और वाष्पन तीनों अवस्थाओं में क्रिस्टलन हो सकता है। एक विलयन में क्रिस्टल की रचना "विलायक" (solvent) के वाष्पीकरण से, विलायक का ताप गिर जाने से, अथवा दबाव कम हो जाने से होती है। इस प्रकार नमक के क्रिस्टल, सोडियम क्लोराइड के जलीय विलयन से, तीनों में से किसी भी विधि से बन सकते हैं। इसी प्रकार उसी संघटन के पिघले द्रव्य से क्रिस्टल की रचना हो सकती है। जल से हिम क्रिस्टल की रचना तथा पिघले हुए मैग्मा से आग्नेय शैल की रचना इसके साधारण उदाहरण हैं। पिछले उदाहरण में ज्यों-ज्यों तरल मैग्मा ठंडा होता जाता है, उसमें विद्यमान खनिज अणुओं के समुदाय बनाते हैं और अंतत: पिंडित शैल के खनिज अवयवों का निर्माण करते हैं। वाष्प से क्रिस्टल की रचना अपेक्षाकृत दुर्लभ है। इसके उदाहरण हैं, वायुमंडल के जलवाष्प से बने हिम क्रिस्टल और ज्वालामुखी से संबंधित गरम पानी के झरनों से निकले गंधकमय वाष्प से बने गंधक क्रिस्टल।

उपयोग

खनिज विज्ञान के अध्ययन में क्रिस्टलकी का महत्वपूर्ण योग है। भूपटल में पाए जानेवाले खनिज प्राय: समांग क्रिस्टलीय ठोस होते हैं। इनमें अधिकतर सुविकसित क्रिस्टल की आकृतियाँ, जो आंतरिक आण्विक संरचना से संबद्ध हैं, मिलती हैं। इनमें हीरा, लाल, नीलम, पन्न, पुखराज, ऐमिथिस्ट आदि रत्न खनिज विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन क्रिस्टलीय खनिजों को, जिनमें क्रिस्टल की आकृतियाँ नहीं दिखाई देती हैं, घिसकर पतले टुकड़े निकाले जाते हैं और उनका ध्रुवण सूक्ष्मदर्शी के द्वारा परीक्षण किया जाता है। इस परीक्षण द्वारा उन खनिजों में विद्यमान क्रिस्टलीय सममिति के कुछ तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है, जिसके आधार पर उन खनिजों की आंतरिक आणविक अव्यवस्था, जिसपर खनिज के क्रिस्टल की आकृति निर्भर करती है, खनिज के भौतिक और प्रकाशीय (optical) गुणों का आधार भी है।
यह विज्ञान ठोस कार्बनिक तथा अकार्बनिक यौगिकों के अध्ययन में समान रूप से उपयोगी है। इनमें से बहुत से यौगिकों में क्रिस्टलकी आकृतियाँ बनती हैं, जो उनके पहचानने में सहायता देती है।
उन क्रिस्टलीय पदार्थों का जिनमें आसानी से पहचान में आनेवाली क्रिस्टल आकृतियाँ नहीं दिखाई देतीं, या जो क्रिस्टलकोणमापी (goniometer) द्वारा अध्ययन के लिये बहुत छोटे हैं, एक्सरे (X-ray) द्वारा विश्लेषण किया जाता है। इस प्रकार कुछ विधियों से प्राप्त फोटोग्राफ के प्रतिरूपों (patterns) की, आतंरिक क्रिस्टलीय सममिति के आधार पर, व्याख्या की जाती है, जिससे उन्हें पहचानने में लाभ उठाया जाता है। क्रिस्टल किसी विशेष लाभ प्रतिरूप की इकाई की पुनरावृत्ति से बना एक नियमित समुदाय है। अत: इस इकाई की सममिति संबंधित पदार्थ के क्रिस्टल की बाहरी सममिति की द्योतक है।
क्रिस्टलन का अध्ययन धातुकर्म (metallurgy) के लिये अपरिहार्य है। कुछ धातुएँ, जैसे सोना, चाँदी और ताँबा, जो भूपटल में शुद्ध तत्वों के रूप में प्राप्त होती हैं, क्रिस्टलीय स्वरूप दिखलाती हैं, लेकिन उन कुछ धातुओं की, जो खनिजों से निकाली जाती हैं, बाह्य आकृतियाँ क्रिस्टलन विधि को नहीं बतलाती। इन धातुओं की आंतरिक संरचना और सममिति अध्ययन के लिये सरंचना क्रिस्अलकी (structural crystallography) की विधियों को उपयोग में लाया जाता है।
इन विधियों का उपयोग आजकल मृत्तिका खनिजों (clay minerals) के अध्ययन में भी किया जा रहा है, जिनकी उपस्थिति या अनुपस्थिति से मिट्टी के वे गुण ज्ञात होते हैं जिनसे निश्चित होता है कि वह मिट्टी पोर्सलीन और चीनी मिट्टी के बरतन बनाने के लिये उपयोगी है या नहीं। ये खनिज बहुत छोटे छोटे कणों से लेकर कोलाइडी (colloidal) माप के आकार में प्राप्त होते हैं तथा तीन वर्गों में विभाजित किए गए हैं। एक्स-रे विश्लेषण से ज्ञात हुआ है कि ये खनिज क्रिस्टलीय हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी के द्वारा, जिसमें एक लाख गुना आवर्धन होता है, इनमें से बहुत से क्रिस्टलों की बाह्य आकृतियाँ देखी गई हैं।
संरचना क्रिस्टलकी की बहुत सी विधियाँ तथाकथित द्रव क्रिस्टलों, जैसे कोलेस्टेराइल ऐसीटेट (cholestery1 acetate), ऐमोनियम ओलिएट (ammonium oleate) आदि, के अध्ययन में सफलता से उपयोग की गई हैं। इन क्रिस्टलों को प्राचीन काल में निश्चित रूप से द्रव माना गया था। पर ये मध्यरूपीय (mesomorphic) अवस्था में ठोस ही है। इनमें दिखाई देनेवाली द्रव प्रकृति, या दृढ़ता की कमी, क्रिस्टल के बलों की कमजोरी के कारण हैं, जो इतने शक्तिशाली नहीं हैं कि किसी एक निश्चित ज्यामितीय आकृति को बनाए रख सकें।

विकास का इतिहास

क्रिस्टलकी को सबसे पहली महत्वपूर्ण देन डेनमार्कवासी चिकित्सक निकोलस स्टैनों की है। सन् 1669 में आपने बतलाया कि एक क्रिस्टल के कुछ कोण सदा बराबर रहते हैं, चाहे फलकों के रूप और आकार में कितना ही अंतर क्यों न हो। कुछ वर्ष बाद हाइगेंज़ (Hughens, 1678 ई.) ने कैल्साइट की द्विअपवर्तन (double refraction) क्रिया को समझाने के लिये यह मान लिया कि वह छोटे-छोटे दीर्घवृत्तजीय कणों के नियमित रूप में सुव्यवस्थित होने से बना है और इस आधार पर आपने क्रिस्टल की आकृति, विदलन (cleavage), उसकी कठोरता में विभिन्नता और दिशाओं के साथ साथ द्विअपवर्तन की व्याख्या की।
18वीं शताब्दी में क्रिस्टलकी के क्षेत्र में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। केवल विलायकों के, जिनमें विलेय पदार्थ थे, वाष्पीकरण से क्रिस्टल तैयार किए गए। इन्हें 'कृत्रिम क्रिस्टल' कहा गया। रोमे दि ल आइल (Rome' de l' Isle) ने अनेक प्राकृतिक और कृत्रिम क्रिस्टलों का संस्पर्श क्रिस्टल कोणमापी नामक यंत्र की सहायता से अध्ययन किया। यह यंत्र उनके सहायक कारनग्यो (Carangeot) ने सन् 1780 में कोण मापने के लिये बनाया था। इस आधार पर आपने छह "प्राथमिक आकृतियाँ" स्थापित कीं : घन, सम अष्टफलक, समचतुष्फलक, समांतर षट्फलक, समचुतर्भुज आधार पर अष्ट फलक तथा दुहरा छह फलकों वाला पिरैमिड। अन्य आकृतियों के लिये यह कल्पना की गई है कि वे उपर्युक्त प्रत्येक आकृति के किनारों (edges) और घन कोणों के फलकों द्वारा प्रतिस्थापन से निर्मित हुई हैं। रोमे दि ल आइल की पहली कृति 1772 ई में प्रकाशित हुई। उसका दूसरा विस्तृत संस्करण 1783 ई में छपा। आपके कार्य के फलस्वरूप अंतराफलक कोण (interfacial angle) की स्थिरता का नियम, जिसकी नींव 100 वर्ष पूर्व स्टैनों द्वारा रखी जा चुकी थी, पूर्ण रूप से स्थापित हो गया।
यद्यपि क्रिस्टलविज्ञानी क्रिस्टल की संभाव्य आंतरिक संरचना के विषय में पहले से ही परिकल्पना कर रहे थे, पर इस संबंध में सुव्यस्थित वर्णन सबसे पहले सन् 1784 ई. में ऐबि औई (Abbe Haiiy) ने किया। क्रिस्टल की आकृति से संबद्ध विदलन की सतहों का निरीक्षण करते समय आपने यह विचार स्थापित किया कि एक क्रिस्टल सब से छोटी संभव अणु एकक (molecule intergrante) की पुनरावृत्ति से बना है। इस आधारभूत एकक की आकृति को उस क्रिस्टल की सममिति के अनुरूप माना गया। इसी एकक के आधार पर भिन्न भिन्न स्वभाव के क्रिस्टलों की रचना हो सकती थी, यदि चयन (stacking) की प्रगति के साथ साथ कुछ पंक्तियाँ नियमित रूप से छोड़ दी जातीं। इस प्रकार घनकों (cubelets) की इकाई से एक विषमलंबाक्ष द्वादशफलक (rhombic dodecahedron) बन सकता है, यदि घन नमूने का चयन करते समय किनारों पर के "घनकों" को छोड़ दिया जाय। यही इकाई एक अष्टफलक बना सकती है, यदि कोनों पर से घनकों का चयन छोड़ दिया जाय। पूर्ण क्रिस्टल और उसकी आधारभूत इकाई के संबंध के आधार पर औई ने "परिमेय घातांक" (rational indices) के नियम को, जो क्रिस्टलकी का सबसे महत्वपूर्ण नियम है, स्थापित किया। औई की इस खोज की महत्ता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें क्रिस्टलकी का जन्मदाता कहा जाता है।
औई के "परिमेय घातांक" के नियम के आधार पर सन् 1830 में हेज़ेल (Hessel) ने यह ज्ञात किया कि समतल फलकों वाले ठोस पिंडों में 32 प्रकार की सममितियाँ संभव हैं। आपका कार्य दीर्घकाल तक अनजाने में ही पड़ा रहा। स्वतंत्र रूप से गाडोलिन फॉन लैंग (Gadolin von Lang) भी उसी निष्कर्ष पर पहुंचे जिस पर हेज़ेल पहुँचे थे और उन्होंने 1870 ई. में इस तथ्य को पूर्ण रूप से स्थापित कर दिया।
औई की खोज के पश्चात क्रिस्टल की आंतरिक संरचना के कार्य में प्रगति होती रही और यह मान लिया गया कि बृहत् क्रिस्टल की संरचना क्रिस्टल की आणविक इकाई या बहुआणविक इकाइयों के क्रिस्टल द्वारा घिरे स्थान की पुनरावृत्ति के फलस्वरूप होती है। इस क्षेत्र में सीबर (Seeber, 1824 ई.), डेना (Dana, 1836 ई.), ब्रूस्टर (Brewster, 1839 ई.), देलाफॉस (Delafosse, 1843 ई.) आदि के नाम उल्लेखीय है। पर क्रिस्टल की इकाइयों की रचना और आकृति के संबंध में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
पिछले वर्षों में बहुत से गणितज्ञ और क्रिस्टलविज्ञानी उन भिन्न भिन्न विन्यासों की खोज में लगे रहे जिनके द्वारा विभिन्न समुदायों के क्रिस्टल अपनी इकाई कोशिकाओं (unit cells) से बने। इस दिशा में पहली कृति फ्रांकेनहाइम (Frankenhime, 1842 ई.) की थी। इनका विश्वास था कि 15 प्रकार के विभिन्न विन्यास संभव हैं। ये विन्यास त्रिविमजालक (space lattice) प्रकृति के थे। ब्रेवेस (Bravais, 1848 ई.) ने फ्रांकेनहाइम के त्रिविमजालकों के लिये पुष्ट प्रमाण दिए और यह भी दिखलाया कि उन 15 में से दो विन्यास बिल्कुल समान हैं। उसने इन 14 त्रिविमजालकों को, जो क्रिस्टल संरचना की नींव हैं, सात समुदायों में विभक्त कर दिया (इसमें त्रिकोणीय और षट्कोणीय पृथक समुदाय माने गए हैं)। ब्रेवैस ने यह भी सुझाव दिया कि प्रत्येक अणु के गुरुत्वकेंद्र के चारों ओर परमाणुओं की ज्यामितीय व्यवस्था समान है। दूसरे शब्दों में, ब्रेवेस के त्रिविमजालक में प्रत्येक बिंदु का पर्यावरण प्रत्येक दूसरे बिंदु के पर्यावरण के समान है और यह समान रूप से ही अभिविन्यस्त (oriented) है। उपर्युक्त बिंदु अणुओं के गुरुत्व केंद्र का द्योतक है। यही सिद्धांत वीनेर (Wiener, 1869 ई.) ने भी स्वतंत्र रूप से स्थापित किया। तुल्यरूप (analogous) परमाणुओं की व्यवस्था की नियमितता के अंतर्गत प्रत्येक ऐसा परमाणु आ जाता है, जिसके चारों ओर दूसरे परमाणु उसी तरीके से व्यवस्थित होते हैं। उसी वर्ष जॉर्डन (1869 ई.) ने क्रिस्टलों का सन्दर्भ न देकर, केवल गणित के आधार पर यह पता लगाया कि तथाकथित सर्वथा समभागों की नियमित आवृत्ति कितने प्रकार से संभव है। वीनेर के सिद्धांत को मानकर तथा जॉर्डन की विधि को क्रिस्टल में प्रयुक्त कर सोहंके (Sohancke, 1879-1892 ई.) ने ज्ञात किया कि 65 बिंदु (मूलत: 66, पर जिनमें से दो बाद को एक समान पाए गये) खास तरीकों से अवकाश (space) में व्यवस्थित हो सकते हैं, जबकि केवल समान पर्यावरण की आवश्यकता है न कि समान अभिविन्यास की, जैसा कि ब्रेवैस के त्रिविमजाल में। इन 65 बिंदुसमुदायों से ऐसी संरचनात्मक व्यवस्था प्राप्त हुई जिससे केवल विभिन्न समुदायों के पूर्णफलकीय (holohedral) वर्ग की ही नहीं, जैसा कि ब्रेवैस त्रिविमजालक में भी थी, वरन् उससे भी नीचे के बहुत से वर्गों की सममिति प्राप्त हुई।
त्रिविमदिक् में परावर्तन (reflection) तथा प्रतिलोमन (inversion) क्रियाओं का समावेश कर फ़ेडोरॉफ़ (Fedorow, 1885-1890 ई.), शौएनफ्लाइज़ (Schoenflies, 1891 ई.) और बार्लो (Barlow, 1894 ई.) ने स्वतंत्र रूप से तथा विभिन्न तरीकों से अध्ययन कर 195 संरचनात्मक अणुविन्यास व्यवस्थाएँ ज्ञात कीं। इस प्रकार सब बिंदु समुदाय या वर्ग 230 हो गए। अब नीचे की श्रेणी की सममिति को भी समझना संभव हो गया। इस प्रकार स्थापित 32 सममिति वर्ग (रचना के बिंदु वर्ग) क्रिस्टल सममिति के 32 वर्गों से, जो कि आकृतिक क्रिस्टलकी (morphological crystallography) में माने जाते हैं, मेल खाते हैं।
यद्यपि क्रिस्टल संरचना का ज्यामितीय सिद्धांत पिछली शताब्दी के अंतकाल में सफलतापूर्वक स्थापित हुआ, पर क्रिस्टल के विशेषज्ञ क्रिस्टल के मौलिक इकाई के आकार, माप और स्वभाव के बारे में अनभिज्ञ ही थे। इकाइयों को अब तक औई का घन समांतरफलक (parallelepipeda), या फेडोरॉफ (1904 ई.) का समातंर फलक (parallelohedra), समझा जाता था। पोप और बालों (1906 ई.) के विचार में ये बहुफलकीय इकाइयाँ प्रत्यास्थ (elastic), पर असंपीड्य (incompressible) और विरूपणीय (deformable) गोलों के संघनित समुच्चय से व्युत्पन्न हैं। रंटगेन (Roentgen, 1896 ई.), द्वारा एक्स किरण की खोज तथा फॉन लावे (1912 ई.) द्वारा क्रिस्टल की आतंरिक संरचना जानने के लिये उसका उपयोग होने के बाद ही, इन इकाइयों को परमाणु समुच्चय के रूप में प्रभाव क्षेत्र (spheres of influence) माना गया।
कुछ वैज्ञानिकों ने एक्स किरणपुंज के विवर्तन (diffracdtion) के लिये क्रिस्टल के क्रमबद्ध परमाणुओं को उचित ग्रटिंग (grating) के रूप में उपयोग करने की बात सोची। इस संबंध में पहले प्रयोग उनके साथियों, फ्रीडरिक (Friedrich) और निपिंग (Knipping), द्वारा किए गए। श्वेत एक्स किरणपुंज को एक क्रिस्टल में ले होकर भेजा गया और उसे एक फोटोग्राफिक प्लेट पर लिया गया। इस प्लेट को धोने पर एक केंद्रीय काले हिस्से के चारों ओर बहुत से काले धब्बे प्रकट हुए, जो एक नियमित पैटर्न में थे। इस प्रकार के फोटोग्राफ के अध्ययन से अपेक्षाकृत सरल क्रिस्टलों की संरचना को जान लेना संभव हुआ। लावे की खोज के बाद सुधारे हुए तकनीकों से दूसरे कार्यकर्ताओं ने शोध की गति बढ़ा दी। डब्ल्यू एच ब्रैग और डब्ल्यू एल ब्रैग (1913 ई.) ने क्रिस्टलों की ज्ञात दिशाओं में कटी प्लेटों को एक एक्स किरण स्पेक्ट्रोमीटर पर, जिसमें एकवर्णी (monochromatic) विकिरण प्रयोग करने की व्यवस्था थी, घुमाया। डिबाई और शेरर (Debye and Scherrer) ने क्रिस्टल के चूर्ण को दबाकर एक छोटे दंड में ठूँस और दंडाकृति देकर, उसे एक बेलनाकार सूक्ष्मग्राही फिल्म की नली के अक्ष में रखा और इस दंड पर एकवर्णीय एक्स किरणें डालीं। इस प्रकार से प्रभावित फिल्म को डिवेलप करने पर कुछ वक्र रेखाएँ प्राप्त हुईं। यही ऐक्स किरण व्यतिकरण आकृतियाँ (interference figures) थीं। शीबोल्ड (Schiebold, 1922 ई.) ने एक विधि निकाली, जिसमें पूरे क्रिस्टल को एक मुख्य मंडल (zone axis) में घुमाया जाता है और उसपर एकवर्णी विकिरण डाला जाता है। इसमें विवर्तन जानने के लिये या तो एक सपाट या एक बेलनाकार फोटोग्राफिक प्लेट काम में लाई जा सकती है। इस विधि के द्वारा क्रिस्टल की इकाई कोशिका (unit cell) की विमाएँ ठीक ठीक प्रकार मापी जा सकती हैं। इस घूर्णन विधि में वाइज़नवर्ग (Weissenberg) ने और सुधार किया। क्रिस्टल को एक छोटे कोण की सीमा के भीतर में इधर उधर दोलित किया जाता है और बेलनाकार कैमरा क्रिस्टल के साथ ही साथ इस तरह घूमता है कि उद्भासन (exposure) के समय बराबर उसके साथ रहता है।
एक्स किरण विश्लेषण द्वारा ज्ञात की गई इकाई कोशिका की विमाएँ प्राय: सभी खनिजों में क्रिस्टल कोणमापी द्वारा जाने हुए अक्षनुपात (axial ratio) से मेल खाती हैं। एक्स किरण विश्लेषण द्वारा हम क्रिस्टल की संरचना को पूर्णतया जान सकते हैं। पहले क्रिस्टल को उचित त्रिविम वर्ग में रखा जाता है, तत्पश्चात् उसकी इकाई कोशिका की अंर्तवस्तु की जानकारी की जाती है।

क्रिस्टलों के सामान्य लक्षण

क्रिस्टल चारों ओर से सतहों से घिरा होता है। इन सतहों को फलक (Faces) कहते हैं। फलक साधारणत: समतल और चिकने होते हैं। फलक एक ही प्ररूप (type) या भिन्न भिन्न प्ररूप के हो सकते हैं। यदि सब फलक एक तरह के होते हैं तथा समान रूप से विकसित होते हैं तब उनकी ज्यामितीय आकृतियाँ समान होती हैं। लेकिन इन्हीं एक किस्म के फलकों की आकृति भिन्न हो जाती है, यदि वे दूसरी किस्म के फलकों के संयोजन में प्राप्त होते हैं। एक ही प्ररूप के सभी फलक एक क्रिस्टल रूप (form) के सदस्य होते हैं। यह रूप उन फलकों का जोड़ है जिनकी उपस्थिति उस स्थिति में क्रिस्टल सममिति के लिये आवश्यक होती है जब कि उनमें से कोई एक उपस्थित हो। इन फलकों की संख्या उस क्रिस्टल सममिति के ऊपर निर्भर करती है। दो संलग्न को मिलानेवाली रेखा को क्रिस्टल का कोर (Crystal edge) कहते हैं। वह कोना जहाँ तीन या अधिक फलक मिलते हैं कोनिया (Coign), जिसे बहुत से लेखक घन कोण कहते हैं, कहलाता है। बहुफलक के समान क्रिस्टल में भी फलक संख्या और कोनिया की संख्या का जोड़ कोर की संख्या और दो के जोड़ के बराबर हो जाता है।
क्रिस्टलकी में दो फलकों पर खींचे गए अंतराफलक अभिलंबों के बीच के कोण को अंत:फलक कोण (Interfacial angle) कहते हैं। यह बात ध्यान में रखने की है कि यह कोण फलकों के बीच के वास्तविक कोण का पूरक (supplement) है। यह विशेष प्रकार का अंतराफलक कोण, कोण मापने की विधि के अनुरूप है। यह एक ओर गणितीय परिकलन (को कोणों के माप के आधार पर निर्भर है) और दूसरी ओर क्रिस्टल के फलकों के त्रिविम निरूपण और तदनंतर गोलीय त्रिकोणमिति द्वारा परिकलन के भी अनुकूल है।
अपेक्षाकृत बड़े क्रिस्टलों का अंतराफलक कोण मापने के लिये संस्पर्श क्रिस्टल कोणमापी, जिसे 1870 ई. में कारनग्यो (Carangeot) ने बनाया था, उपयोग में लाया जाता है।
क्रिस्टल में बहुत से फलक इस प्रकार व्यवस्थित हो सकते हैं कि उनकी सतह, जहाँ पर कि संलग्न जोड़े मिलते हैं, समांतर हों। ऐसे फलकों के समुदाय को मंडल (zone) कहते हैं। वह काल्पनिक रेखा, जो क्रिस्टल के केंद्र से होकर गुजरती है तथा जो कोरों के समांतर होती है, मंडल अक्ष (zone axis) कहलाती है और वह समतल, जिसमें मंडल के सभी फलकों के अभिलंब पड़ते हैं, मंडलतल (zone pkane) कहलाता है। फलक एक या अनेक रूप (forms) के हो सकते हैं।

प्रक्षेप (Projection)

क्रिस्टल को कागज पर प्रदर्शित करने के बहुत से तरीके हैं। एक सीधा और सरल तरीका क्रिस्टल के कोरों का एक वैसा ही नक्शा (plane) खींचना है, जैसा कि वे एक बिंदु से, जो ठीक उनके ऊपर परिमित दूरी पर हो, दिखाई देते हैं। दो समान दृश्य भी प्रदर्शित किए जा सकते हैं, पहला जैसा कि सामने से दिखाई दे और दूसरा जैसा कि दाईं ओर से दिखाई दे। ये तीनों दृश्य इंजीनियरिंग के नींव विन्यास (ground plane), सामने का उत्थापन (front elevation) और बगली उत्थापन (side elevation) को क्रमश: निरूपित करते हैं। निरूपण की यह विधि लंबकोणीय प्रक्षेप (orthographic projection) कहलाती है।
प्रवणता प्रक्षेप (clinographic projection) में क्रिस्टल को एक उदग्र समतल के ऊपर प्रक्षेपित किया जाता है। इसमें क्रिस्टल एक ऐसे बिंदु से देखा जाता है, जो सबसे ऊपर के फलक, या कोनिया, की सतह से अनंत दूरी पर (या कोण से) 9डिग्री 28" तथा दांई ओर 18डिग्री 26" पर होता है।

सममिति (Symmetry)

क्रिस्टलों के फलक, सममिति की निश्चत योजनाओं के अनुसार व्यवस्थित रहते हैं। कुछ आधार चिन्हों, का जिन्हें सममिति के मूल अवयव (elements of symmerty) कहते हैं, अध्ययन किया जाता है। ये अवयव निम्नलिखित हैं :
(१) सममिति समतल,
(२) सममिति, तथा
(३) सममिति केंद्र।
यदि क्रिस्टल में एक सममिति समतल उपस्थित है, तो वह क्रिस्टल को दो समरूप तथा बराबर भागों में इस प्रकार विभाजित करता है कि एक हिस्सा दूसरे का प्रतिबिंब होता है। यदि क्रिस्टल में एक सममिति अक्ष है, जो उस अक्ष पर क्रिस्टल को घुमाने से, एक पूरे चक्र में, क्रिस्टल का एक ही निर्दिष्ट रूप एक बार से अधिक, दो, तीन, चार बार दिखलाई पड़ता है। इस दृष्टि से सममिति अक्ष को द्विकोणीय (digonal), त्रिकोणीय (trigonal), चतुष्कोणीय (tetragonal), या षट्कोणीय (hexagonal) सममिति अक्ष कहते हैं। उपर्युक्त सममिति अक्षों के लिये क्रिस्टल को क्रमश: 180 डिग्री, 120 डिग्री, 90 डिग्री और 60 डिग्री घुमाना पड़ता है। षट्कोणीय सममिति अक्ष से अधिक की अक्षीय सममिति क्रिस्टलों में संभव नहीं है। और न पंचकोणीय अक्षीय सममिति ही संभव है। यदि क्रिस्टल में सममिति केंद्र उपस्थित है, तो क्रिस्टल के एक भाग में विद्यमान एक कोनिया (Coign), एक कोर या एक फलक की संगत (corresponding) कोनिया, कोर या फलक क्रिस्टल के विपरीत भाग में भी विद्यमान होता है।
किसी क्रिस्टल में सममिति अवयव और उनके गुणों को जानने के लिये क्रिस्टल को समरूप फलकों के असमान विकास से होनेवाली अनियमितताओं से, जैसा कि प्रकृति में साधारणत: होता है, मुक्त कल्पित किया जाता है। केवल ज्यामितीय सममिति की दशा में सममिति केंद्र या एक समतल के विपरीत पाश्र्व में विद्यमान कोनिया, कोर या फलक, समान दूरी पर स्थित होने चाहिए। इसमें विपरीत फलक भी एक ही आकार और रूप के होते हैं। क्रिस्टल संरचनात्मक सममिति में अंतराफलक कोण की सममिति ही निश्चयात्मक अवयव है, फलकों का विस्तार और आकृति प्राकृतिक विरूपण के कारण महत्व नहीं रखते हैं।
क्रिस्टल में विरूपण का कारण विलायकों की शुद्धता या क्रिस्टल की वृद्धि गति, ताप या संपीडन में प्रतिकूलता है। यही तथ्य क्रिस्टल के विशेष रूप (habit) को निश्चित करते हैं। क्रिस्टल का विशेष रूप उपस्थित रूपों तथा प्रत्येक रूप के फलकों के आपेक्षिक विस्तार के लक्षणों के योग का ही परिणाम है। क्रिस्टल में विद्यमान प्रधान फलक समष्टियों, अथवा क्रिस्टल में एक या दो दिशाओं में अधिक विकास के कारण बननेवाले प्रिज्मीय और सपाट रूपों के लिये प्रयुक्त शब्दों, के साथ ""विशेष रूप"" (habit) शब्द का प्रयोग किया जाता है।
क्रिस्टल की सममिति की विशेषताओं को पूर्ण रूप से अध्ययन करके प्राचीन कार्यकर्ताओं ने सममिति का नियम बनाया। यह सूत्र या नियम इस प्रकार है : एक क्रिस्टल के फलक सममिति के निश्चित अवयव के अनुसार स्थित होते हैं। उस क्रिस्टल के लिये फलकों की स्थिति निश्चत रहती है और इसी पर उसका बाह्यरूप तथा भौतिक गुण निर्भर करता है। पहले कार्यकर्ताओं ने भी यह ज्ञात किया था कि एक पदार्थ के क्रिस्टल चाहे कितना ही विभिन्न रूप दिखलाएँ, पर उनके संगत अंतरफलक कोण की स्थिरता (Law of Constancy of Interfacial Angnles) का मूल सूत्र है।

क्रिस्टलीय अक्ष

क्रिस्टलीय अक्ष वह कल्पित रेखा हैं, जो क्रिस्टल के केंद्र से होकर जाती है। क्रिस्टल के फलकों की स्थिति (attitude) बतलाने के लिये इन कल्पित रेखाओं का उपयोग सन्दर्भ अक्षों (axes of reference) के रूप में किया जाता है। साधारणत: ये अक्ष मुख्य सममिति अक्ष होते हैं, या कुछ कोरों के समांतर होते हैं। क्रिस्टल के स्वभाव के आधार पर तीन सममिति समतलों पर अभिलंब होते हैं या क्रिस्टल की कुछ या चार ऐसे अक्ष मान लिए जा सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि अक्ष एक दूसरे के बराबर हों, या दूसर पर समान रूप से झुके हों। इन अक्षों की आपेक्षिक लंबाइयों को ही 'अक्षीय अनुपात' कहते हैं। ये अधिकतर x, y, z द्वारा लिखी जाती हैं। इनमें से y को ही इकाई मानने की प्रथा है। वे आपेक्षिक दूरियाँ जिनपर क्रिस्टल फलक के (आवयकता पड़ने पर बढ़ाकर) क्रिस्टलीय अक्षों को काटते हैं उनका अंत:खंडी अनुपात (parameter) कहलाता है। वह फलक, जो अक्षों को इस प्रकार काटता है कि उन दूरियों का अनुपात क्रमिक अक्षों की इकाइयों के अनुपात के समान होता है, एकक फलक (unit face), या पैरामीटरी समतल (parametral plane) कहलाता है। एकक फलक निर्धारण करने के लिये साधारणत: सबसे अधिक मिलनेवाली फलक समष्टि को ही चुन लिया जाता है।
किसी भी फलक का आकार (attitude), या प्रवणता उनके इकाई अंतर्खंडों (unit intercepts) द्वारा बतलाई जा सकती है। यदि एक फलक तीन अक्षों x, y, z पर a, b, c अंतर्खंड काटता है, तब उनके संबंध को वाइस (Weiss, 1818 ई.) की विधि के अनुसार ax, by, cz द्वारा दिखलाया जा सकता है। वाइस की पैरामीटर विधि के स्थान पर घातांक विधि (index system), जिसे सबसे पहले मिलर (Miller, 1839 ई.) ने लोकप्रिय बनाया, अधिक प्रचलित है। इस विधि के व्युत्क्रमांक (reciproca) या घातांक यदि भिन्न (fraction) में हैं, तो गुणा कर इनको पूर्ण संख्या में बदलकर प्रयोग किया जाता है। अत: यदि एक फलक, X अक्ष को एकक दूरी (unit distance) से दुगने स्थान पर और Y को तिगुनी दूरी पर, काटता है तथा Z के समांतर है, तो इसका वाइस चिह्न 2 x, 3 y, ¥ z होगा। इनके व्युत्क्रमांक 1/2, 1/3 1/¥ होंगे। 6 से गुणा करने पर यह 3, 2, 0 हो जाएगा। अत: इस फलक का मिलरचिह्र 3, 2, 0 लिखा जाएगा और यह तीन, दो, शून्य पढ़ा जाएगा। कभी-कभी इसे छोटे कोष्ठक में (3 2 0) रखा जाता है, क्योंकि एक्स किरण क्रिस्टलकी में बिना कोष्ठक के चिन्ह्र रचना-समतलों के द्योतक होते हैं। मझले कोष्ठक में यह {3 2 0} फलक के पूरे रूप (form) को बतलाता है और बड़े कोष्ठकों में [3 2 0] यह एक मंडल (zone) को सूचित करता है। क्रिस्टलकी की सभी विधियों, गोनियोमीटरी पठन, त्रिविमीय प्रक्षेप तथा गणितीय परिकलन के लिये मिलन चिह्न महत्वपूर्ण है।
अनुभव से ज्ञात हुआ है कि सामान्यत: एक क्रिस्टल में केवल वे ही फलक रहते हैं, जिनके अक्षीय अंत:र्खंड इकाई के लघुगुणित (multiple), या अनंत (infinite) होते हैं। इसी प्रकार मिलर घातांक सरल परिमेय संख्या (rational number) या शून्य होते हैं। इसे परिमेय घातांक नियम (Law of Rational Indices) कहते हैं। इसमें ऐसे घातांक जैसे 20.5 या 1.327..... आदि, संभव नहीं है।

क्रिस्टल समुदाय (Crystal Systems)

भिन्न भिन्न प्रकार के क्रिस्टलों को समझाने के लिये सुविधानुसार क्रिस्टलीय अक्षों की भिन्न भिन्न अवस्थाएँ कल्पित की जाती हैं। इनका छह क्रिस्टल समुदायों में वर्गीकरण किया गया है। प्रत्येक समुदाय की व्याख्या अक्षों के स्वरूप के ऊपर निर्भर है। इन छह समुदायों में से पाँच में अक्षों की संख्या तीन तीन हैं तथा छठे में उपयोग के विचार से तीन की अपेक्षा चार अक्ष अधिक सुविधाजनक ज्ञात हुए हैं। समुदायों की विभिन्नता अक्षों के आपस में समान या असमान रूप से झुकाव पर और एकक फलक के भिन्न भिन्न अक्षों पर अंत:खंडी अनुपात के समान या असमान होने पर, निर्भर करती है। तीनों अक्षों को इस प्रकार अभिविन्यस्त किया जाता है कि तथाकथित ल अक्ष उदग्र रहता है, र प्रेक्षक के समांतरवाले उदग्र समतल में स्थित रहता है (अर्थात् दाईं ओर से बाईं ओर को जाता है) और तीसरा य अक्ष प्रेक्षक के संमुख रहता है। ल, र और य का क्रमश: ऊपरी, दायाँ तथा सामने को सिरा धन (positive) कहलाता है तथा इनके विपरीत सिरे ऋण (negative) कहलाते हैं। यदि किसी फलक द्वारा किसी अक्ष का ऋणभाग अंत:खंडित होता है, तब उससे संबंधित मिलतर घातांक के ऊपर ऋण (—) का चिह्र बना दिया जाता है।
त्रिनताक्ष (triclinic) समुदाय में तीनों अक्ष य, र ल असमान लंबाइयों के होते हैं तथा एक दूसरे पर तिर्यक् (oblique) कोण बनाते हुए झुके रहते हैं। एकनताक्ष (monoclinic) समुदाय में य, र, ल असमान हैं। य और ल एक दूसरे पर तिर्यक् कोण बनाते हैं, पर र उस समतल पर, जिसमें य और ल हैं, लंबवत् स्थित रहता है। विषमलंबाक्ष (orthorhombic) समुदाय में य, र ल असमान हैं, लेकिन एक दूसरे पर समान रूप से झुके हुए हैं। षट्कोणीय (hexagonal) समुदाय में तीन समान क्षैतिज अक्ष य1, य2, य3 होते हैं, जो एक दूसरे को 60रू के कोण पर काटते हैं तथा चौथा अक्ष ल असमान है और पहले तीनों अक्षों के समतल पर लंबवत् है। चतुष्कोणीय (tetragonal) समुदाय में दो समान क्षैतिज अक्ष य1 और य2 एक दूसरे पर समकोण बनाते हैं और उदग्र अक्ष ल असमान है। त्रिसमलंबाक्ष (isometric) समुदाय के तीन अक्ष समान हैं और एक दूसरे पर समकोण बनाते हैं। य1, य2 क्षैतिज हैं और य3 उदग्र है।

सममिति के वर्ग (Classes of Symmetry)

एक ही समुदाय के भिन्न भिन्न क्रिस्टलों में ऐसे रूप (forms) पाए जाते हैं, जो क्रिस्टलीय अक्ष की दृष्टि से समान दिखाई पड़ते हैं, पर वे अपने फलकों की संख्या तथा सममिति अवयवों के संमिलन पर भिन्न भिन्न होते हैं। वास्तव में इनमें से कुछ पूर्ण या पूर्णफलकीय रूप (holohedral) हैं, जिनमें उस समुदाय की पूर्ण सममिति के लिये आवश्यक सभी समतल विद्यमान रहते हैं। इनमें कुछ रूप आंशिक होते हैं, जैसे अर्धफलकीय (hemihedral) और चतुर्थांशफलकीय (tetartohedral) आकृतियाँ। अर्धफलकीय आकृतियों में उसी समुदाय की पूर्णफलकीय आकृतियों के आधे फलक और चतुर्थांशफलकीय आकृतियों में एक चौथाई फलक विद्यमान रहते हैं। इसके अतिरिक्त भी एक और आंशिक रूप होता है, जिसे अर्धाकृति रूप (hemimorphic form) कहते हैं। इसमें एक पूर्णफलकीय क्रिस्टल के आधे फलक क्रिस्टल के केवल एक ही ओर केंद्रित होते हैं, या बन जाते हैं, शेष आधा भाग या तो अनुपस्थित रहता है, या वहाँ पर दूसरे रूप का आधा भाग निरूपति रहता है। किसी भी समुदाय से संबद्ध, ये आंशिक रूप उस समुदाय के पूर्णफलकीय रूप (जिनसे कि वह बना है) की अपेक्षा निम्न श्रेणी की सममिति के होते हैं। अत: किसी भी समुदाय के क्रिस्टल भिन्न भिन्न सममिति वर्गों के अंतर्गत आते हैं। सममिति वर्गों का नामकरण उस वर्ग के सबसे अधिक साधारण रूप के आधार पर किया जाता है। सममिति के सभी संभाव्य संमिलन पर सैद्धांतिक रूप से विचार कर, सममिति के 32 वर्ग निर्धारित किए गए हैं। साधारणत: इनमें से केवल 11 ही खनिजों में मिलते हैं, अन्य 13 खजिनों तथा कृत्रिम क्रिस्टलों में दुर्लभता से मिलते हैं और अन्य 6 तो केवल कृत्रिम क्रिस्टलों में ही मिलते हैं। शेष दो और अभी भी अनिरूपित हैं।

रूपों का परिवर्तन

क्रिस्टलीय अक्षों से संबद्ध फलकों की स्थिति के आधार पर रूपों को कुछ निश्चित सामान्य नाम दिए गए हैं। पिनेकॉइड (pinacoid) में उनके रचक (constituent) फलक केवल एक ही क्रिस्टलीय अक्ष को काटते हैं तथा दोनों के समातंर होते हैं। प्रिज्म (prism) के फलक उदग्र अक्ष के समातंर होते हैं तथा अन्य दोनों अक्षों को काटते हैं। डोम (dome) के फलक उदग्र अक्ष और एक पाश्र्व अक्ष को काटते हैं तथा दूसरे पार्श्व अक्ष के समातंर होते हैं। पिरैमिड के फलक सभी अक्षों को काटते हैं।

क्रिस्टल समुच्चय

क्रिस्टल प्रकृति में सामान्यत: नहीं दिखाई पड़ते हैं और न प्रयोगशाला में ही उनका बनाना सरल है। अधिकतर वे समुच्चय में मिलते हैं, जो समांगी होते हैं (अर्थात् एक ही पदार्थ के बने होते हैं तथा समांतर रेखाओं में इनकी अणुव्यवस्था भी समान होती है), या विषमांगी होते हैं, जिसमें भिन्न भिन्न क्रिस्टलों का योग भिन्न भिन्न होता है। समांगी समुच्चय में बहुधा क्रिस्टलों का समांतर विकास दिखलाई पड़ता है, जैसे फिटकरी (alum), ताँबा, हेमाटाइट और हिम में। कभी कभी समांतरण आंशिक होता है, जैसे कि यमल क्रिस्टलों (twin crystals) में। बहुतेरों में तो समांतरण बिल्कुल ही नहीं दिखाई देता। इनमें क्रिस्टलीय इकाइयाँ अव्यवस्थित रूप से जुड़ी रहती हैं और इस प्रकार एक "अनियमित समुच्चय" की रचना होती है। इसी प्रकार "विषमांगी समुच्चय" में भी लगभग पूर्ण समांतरण हो सकता है झ्र्जैसा समाकृतिक वृद्धि (somoriphous growth) मेंट या आंशिक समांतरण हो सकता है, या समांतरण का पूर्ण अभाव हो सकता है।
यमल क्रिस्टल में दो या अधिक क्रिस्टल इस प्रकार आकार में जुड़े रहते हैं कि एक भाग संलग्न भाग के परावर्तन से बना दिखलाई पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यमल क्रिस्टल का एक भाग अपनी मौलिक स्थिति से अक्ष के ऊपर 180रू घुमाया गया है। ऊपर कथित परावर्तन समतल यमल क्रिस्टल के दोनों भागों से समान रूप से संबंधित रहता है, पर यह समतल उन दोनों भागों में से किसी का भी सममिति समतल नहीं होता है। यही कल्पित समतल यमल समतल और अक्ष यमल अक्ष कहलाता है। यह दोनों एक दूसरे पर समकोण बनाते हैं। वह समतल जहाँ पर दो संलग्न भाग आपस में मिले रहते हैं संमिलन तल (composition plane) कहलाता है। अधिकतर दशाओं में यह यमल समतल ही होता है। संस्पर्श यमलों में एक स्पष्ट संमिलन तल होता है, जैसे आर्थोक्लेज़ स्पिनेल और केसिटेराइट में। पर अंतर्वेशी यमल (penetration twins), जैसे स्टॉरोलाइट, फ्लोराइट तथा पाइराइट में ऐसा कोई समतल नहीं दिखलाई पड़ता। पिछले उदाहरण में क्रिस्टल परस्पर अंतर्वेंशी होते हैं। आवर्ती यमल (repeated twins) तीन या अधिक क्रिस्टलों से बनते हैं। इसी के अंतर्गत आते हैं, बहुसंश्लेषी यमल (polysynthetic twins) तथा चक्रीय युग्म। बहुसंश्लेषी यमल में क्रमागत संमिलन तल (composition planes) समांतर होते हैं, जैसे ऐल्बाइट में, तथा चक्रीय युग्म (cycle twins) में ये तल समांतर नहीं होते, जैसे रूटाइल में। चक्रीय यमल के द्वारा नीची श्रेणी की सममिति के क्रिस्टल कभी कभी अपेक्षाकृत ऊँची श्रेणी की सममिति के क्रिस्टलों का अनुकरण करते हैं।
क्रिस्टलों में यमलन का कारण अणुओं में पूर्ण समांतरण की कमी मानी जाती है, जो क्रिस्टलन के प्रक्रम में अणुबलों को यथोचित समय न मिलने के कारण होती है। चक्रीय यमलों में यमलन क्रिस्टलों की उच्च सममिति प्राप्त करने का असफल प्रयास ही प्रतीत होता है।

क्रिस्टल के भौतिक गुण

क्रिस्टल की आंतरिक अणुव्यवस्था पर केवल उसका बाह्य रूप ही नहीं वरन् उसके भौतिक गुण भी निर्भर करते हैं। इनमें से कुछ गुण तो क्रिस्टल की प्रतिरोधक शक्ति से ज्ञात होते हैं, जब उसे तोड़ा, खुरचा या झुकाया जाता है। क्रिस्टल के अन्य गुण प्रकाश और ऊष्मा तथा चुंबक और विद्युद्बलों से संबद्ध है।
गैलेना, पाइराइट, कैल्साइट तथा अन्य बहुत से खनिजों के क्रिस्टल निश्चित समतल सतहों पर से, जो क्रिस्टल के संभाव्य फलक या फलकों के समांतर होती हैं, टूटते हैं। इस गुण को विदलन (cleavage) कहते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ससंजक बल (cochesive force) कुछ दिशाओं में अन्य दिशाओं की अपेक्षा दुर्बल हैं। क्रिस्टलों, जिनमें विदलन सतह नहीं विद्यमान होती, विभंग (fracture) होता है। यह विभंग शंखाभ (conchoidal) होता है, अर्थात् सतह टूटने पर चिकनी तथा नतोदर होती हैं, या असम (uneven) हो सकती है। क्रिस्टल अधिकतर भंगुर होते हैं, अर्थात् ये सरलता से छोटे छोटे टुकड़ों में तोड़े जा सकते हैं, या सरलता से इनका चूर्ण तैयार किया जा सकता है। क्रिस्टलीय आकृति की धातुओं में से कुछ, जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, आघातवध्र्य (malleable) हैं, अर्थात् हथौड़े से पीटकर इनकी चादर तैयार की जा सकती है। कुछ छेद्य (sectile) होते हैं, अर्थात् पतली चादरों में काटे जा सकते हैं, जबकि अन्य कुछ तन्य (ductile) होते हैं, अर्थात् उनके तार खींचे जा सकते हैं। कुछ क्रिस्टल, जैसे क्लोराइट, नम्य (flexible) होते है, जबकि अन्य, जैसे अभ्रक, प्रत्यास्थ होते हैं।
खुरचने की क्रिया में क्रिस्टल जो प्रतिरोध शक्ति प्रकट करता है, वह उसकी कठोरता (hardness) कहलाती है। भिन्न भिन्न कठोरता के दस प्रकार के क्रिस्टलों से एक मापक तैयार किया गया है, जिसकी सहायता से क्रिस्टल की कठोरता की संख्या बतलाई जाती है। इस मापक पर क्रिस्टल की कठोरता जानने के लिये यह देखा जाता है कि क्रिस्टल उन दस में से किसको खुरचता है। सबसे कोमलतम (softest) क्रिस्टल टैल्क (talc) का तथा सबसे कठोर हीरे का है। मापक में 9 तक लगभग समान अंतराल (interval) है। हीरा, जिसकी इस पैमाने पर अपेक्षाकृत कठोरता 10 है, निरपेक्ष (absolute) माप के हिसाब से 42.4 है। अत: 9 (जो कोरंडम तथा उसकी रत्न किस्म, लाल और नीलम, द्वारा निरूपित है) और 10 के बीच में अपेक्षाकृत बहुत अधिक अंतराल है। कुछ क्रिस्टलों में दिशाओं के साथ साथ कठोरता बदलती रहती है। यह आंतरिक अणुव्यवस्था के अंतर के कारण है। यह बड़ी रोचक बात है कि ग्रैफाइट की, जिसका रासायनिक संघटन हीरे के समान है, कठोरता दो से भी कम है।
क्रिस्टल की विशेष प्रकार की आंतरिक अणुव्यवस्था निक्षारण आकृतियों (etch figures) में प्रकट हो जाती है। निक्षारण आकृतियाँ क्रिस्टल के फलकों पर किसी उचित विलायक की क्रिया के फलस्वरूप निर्मित होती हैं। इन आकृतियों की सममिति नीचे विद्यमान अणु रचना के अनुरूप होती है। ये आकृतियाँ छोटे-छोटे गडढों या अवनमन के रूप में होती हैं तथा निश्चित ज्यामितीय आकृति की होती हैं और ढालवाँ समतलों से घिरी रहती हैं।
क्रिस्टलों के कुछ गुण प्रकाश पर निर्भर रहते हैं। क्रिस्टल की चमक उसकी सतह से परावर्तित प्रकाश की मात्रा और गुण पर ही निर्भर है। एक धात्विक यौगिक के अपारदर्शक क्रिस्टल से सबसे उच्चतम क्रम की जो चमक दिखलाई पड़ती हैं, उसे दीप्तिमान (spendent) कहते हैं। यदि यह अपेक्षाकृत कम चमकदार हैं, तो इसे धात्मिक (metallic) कहते हैं। इन्हीं के अनुरूप पारदर्शक तथा अधातु क्रिस्टलों के लिये क्रमश: हीरकसम (adamantine) और काचाभ (vitreous) शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं। अन्य सामान्य चमक रेशमी (silky), रेज़िनी (resinous), मोतिया (pearly), चिकनी (greasy), या द्युतिहीन (dull) कहलाती है। क्रिस्टल भिन्न भिनन नमूनों में सर्वदा समान नहीं रहता है। एक धातु क्रिस्टल में, जिसका रंग गहरा होता है, उसके कस (streak) का अध्ययन करना लाभकारी होता है। कस के चूर्ण का रंग एक बिना चमकवाली चीनी मिट्ठी की सतह पर क्रिस्टल को रगड़ने से देखा जा सकता है।
प्रकाश की संचार करने की क्षमता के आधार पर क्रिस्टल पारदर्शक, अल्पपारदर्शक तथा अपारदर्शक होता है। कुछ क्रिस्टल बहुवर्णता (pleochroism), अर्थात् भिन्न भिन्न दशाओं में भिन्न भिन्न रंग, दिखलाते हैं। ऐसा भिन्न भिन्न क्रिस्टलीय दिशाओं में संचारित प्रकाश के वरणात्मक अवशोषण (selective absorption) के कारण होता है। प्रकाश वायु माध्यम से किसी अपारदर्शक क्रिस्टल में जाने पर अपवर्तित (refracted) हो जाता है, अर्थात् वेग के मंदन (retardation) के अनुपात में उसकी (प्रकाश की) दिशा बदल जाती है। वायु तथा क्रिस्टल में प्रकाश के वेग की निष्पत्ति को ही क्रिस्टल का अपवर्तनांक (index of refraction) कहते हैं। रत्न खनिजों के क्रिस्टल उच्च अपवर्तनांक के ही कारण, इतने अधिक चमकदार और आकर्षक होते हैं। हीरे की चमक उसके उच्च अपवर्तनांक 2.419, के ही कारण है, जबकि फ्लुओराइट की काचाभ चमक उसके निम्न अपवर्तनांक, 1.434, की द्योतक है। जल का अपवर्तनांक 1.33 तथा क्राउन शीशा (crown glass) का अपवर्तनांक 1.53 है। त्रिसमलंबाक्ष समुदाय के प्रत्येक क्रिस्टल का अपवर्तनांक सभी दिशाओं में समान होता है। अत: ऐसे क्रिस्टल समदैशिक (isotropic) होते हैं। अन्य समुदायों के क्रिस्टल विषमदैशिक (anisotropic) होते हैं। प्रकाश की एक किरण किसी विषमदैशिक क्रिस्टल में प्रवेश करने पर दो किरणों में विभाजित हो जाती है और इस प्रकार द्वि-अपवर्तन (double refraction) होता है। दोनों किरणें भिन्न भिन्न वेग से चलती हैं तथा अपनी यात्रा की भिन्न भिन्न दिशाओं में भी ये बदलती रहती हैं। चतुष्कोणीय और षट्कोणीय समुदायों के क्रिस्टलों में एक दिशा में, अर्थात् उदग्र क्रिस्टलीय अक्ष की दिशा में, अपवर्तन नहीं होता है। प्रकाशकीय दृष्टि से ऐसे क्रिस्टलों को एकाक्षीय (uniaxial) कहा जाता है। विषमलंबाक्ष, एकनताक्ष और त्रिनताक्ष क्रिस्टलों में दो दिशाओं में अपवर्तन नहीं होता। अत: ऐसे क्रिस्टलों को प्रकाशत: द्वि-अक्षीय (biaxial) कहते हैं। ये दो दिशाएँ, जिन्हें प्रकाशिक अक्ष कहा जाता है, क्रिस्टल संरचनात्मक अक्षों से मेल नहीं खाती हैं, वरन् ये अधिकतम और न्यूनतम वेग की दिशाओं वाले समतल में रहती है। अधिकतम और न्यूनतम वेगवाली दिशाओं में से एक प्रकाशीय अक्ष के लघुकोण को तथा दूसरी बृहद्कोण को अर्धित करती है।
कुछ क्रिस्टल स्वभावत: संदीप्तिशील (luminescent) कहते हैं। ये पीसने पर, खुरचने पर, या मलने पर, या लाल ताप (red heat) से नीचे तक गरम करने पर अँधेरे में प्रकाश फेकते हैं। ये क्रिस्टल, जो अदृश्य विकिरण में, जैसे पराबैंगनी (ultraviolet) प्रकाश या एक्स किरण, या कैथोड किरणों में, विगोपन पर अँधेरे में चमकने लगते हैं, प्रतिद्ीप्तिशील (fluorescent) कहलाते हैं। यदि विकिरण का स्रोत हटाने के बाद भी क्रिस्टल में चमक बनी रहती है, तो उसे स्फुरदीप्त (phosphorescent) क्रिस्टल कहते हैं। कुछ क्रिस्टल, जिनमें अधिक परमाणु भार वाले तत्व होते हैं, रेडियोऐक्टिव (radio-active) होते हैं। इनका बड़ी तेजी से तथा एक समगति से विघटन होता रहता है। तत्व, जैसे रेडियम, यूरेनियम, थोरियम, विघटित होकर हीलियम और सीसे में अपवर्तित हो जाते हैं तथा इनसे विकिरण के रूप में ऊर्जा निकलती है, जो सुविधापूर्वक गाइगेर काउंटर (Geiger counter) नामक यंत्र से ज्ञात की जा सकती है।
वह ताप जिसपर भिन्न भिन्न क्रिस्टल पिघलते हैं, विस्तृत सीमा में विचरता हैं। कुछ क्रिस्टल तो फुँकनी (blow pipe) की लौ में ही गलनीय हैं और कुछ उसमें नहीं गल पाते हैं। आपेक्षिक गलनीयता छह खनिजों की गलनीयता-मापक के आधार पर निश्चित की जा सकती है। इन खनिजों के द्रवणांक 525डिग्री से 1,400डिग्री सेंदल्सिअस तक हैं, जबकि अच्छी फुँकनी की लौ का ताप 1,500 डिग्री सेल्सिअस तक चला जाता है।
कुछ क्रिस्टलों में ताप परिवर्तन करने पर उनके विभिन्न भागों में एक ही साथ धन और ऋण विद्युत् उत्पन्न हो जाती है। संपीडन के प्रभाव में भी क्रिस्टल के भिन्न भिन्न फलकों में धन और ऋण विघुत् पैदा हो जाती है। इनमें से प्रथम घटना को तापविद्युत् (pyroelectricity) तथा दूसरी घटना को दाबविद्युत् (piezoelectricity) कहते हैं। यह बड़ी रोचक बात है कि यह घटना केवल उन्हीं क्रिस्टलों में पाई जाती है, जो उन सममिति वर्गों (32 में से 21) में आते हैं जिनमें सममिति केंद्र नहीं है। क्वाट्र्ज और टूरमैलीन इसके सामान्य उदाहरण है। आधुनिक काल में दाबविद्युत् क्रिस्टल रेडियो तथा ध्वानिक ध्वनित्र (sonic sounder) में उपयोग में आते हैं।
वे क्रिस्टल, जिनमें लोहा होता है, सामान्यत: चुंबकीय होते हैं, कुछ बिना लोहे वाले क्रिस्टल भी अल्प या मंद चुंबकीय होते हैं। इनमें से केवल मैग्नेटाइट और पिरोटाइट ही एक साधारण नाल या दंड चुंबक द्वारा आकर्षित किए जाते हैं। इनके अतिरिक्त बहुत से ऐसे क्रिस्टल हैं, जो विद्युत् चुंबक द्वारा आकर्षित किए जाते हैं। इनके अतिरिक्त बहुत से ऐसे हैं, जो विद्युत् चुंबक के द्वारा भिन्न भिन्न क्रम में आकर्षित होते हैं, अत: इस प्रकार उनका एक दूसरे से पृथक् करना सरल हो जाता है।

क्रिस्टल रूप और रासायनिक संघटन

जब एक रासायनिक पदार्थ क्रिस्टल का रूप धारण करता है, तब परमाणु, जिससे अणु बनते हैं, तथा अणु एक निश्चित प्रतिरूप में व्यवस्थित रहते हैं। क्रिस्टल संरचना सामान्यत: यौगिक की पहचान होती है। पर खनिजों में ऐसे भी बहुत से उदाहरण हैं जिनमें एक ही पदार्थ दो या अधिक पृथक्-पृथक् परमाणु सरंचनाओं, अत: पृथक् पृथक् क्रिस्टल रूपों में पाया जाता है। ऐसे पदार्थ अपने रूपों की संख्या (दो तीन या अधिक के आधार पर) द्विरूपी (dimorphous), त्रिरूपी (trimorphous) आदि कहलाते हैं। इस प्रकार कार्बन ग्रैफाइट (षष्ट्कोणीय) और हीरा (त्रिसमलंबाक्ष) के रूप में, तथा कैल्सियम कार्बोनेट, कैल्साइट (षट्कोणाक्ष) और ऐरोगोनाइट (विषमलंबाक्ष) के रूप में मिलता है।
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