इतिहास- जैन धर्म [JAINISM]

JAINISM
महावीर स्वामी 

जैन धर्म [JAINISM]

"जैन दर्शन को एक वाक्य ही संग्रहीत किया जा सकता है। जीव तथा अजीव के पारस्परिक संपर्क से ऊर्जाओं का निर्माण होता है जिसके कारण जन्म, मृत्यु तथा जीवन के विभिन्न अनुभवों का आविर्भाव होता है। इस प्रक्रिया को रोका जा सकता है तथा पूर्व निर्मित ऊर्जा का भी विनाश हो सकता है, यदि निर्वाण को प्राप्त करने के लिए आवश्यक संयमित जीवन व्यतीत किया जाए।"          - डॉ. हीरा लाल जैन

जैन धर्म की प्राचीनता के विषय में कुछ समय पूर्व तक विद्वानों में मतभेद था, पहले विद्वानों का विचार था कि महावीर स्वामी ही जैन धर्म के संस्थापक थे, किन्तु अब नवीन शोध कार्यों से यह प्रमाणित हो चुका है कि जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन है,सम्भवतः वैदिक काल में ही इसकी स्थापना हो गयी थी । महावीर स्वामी जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर थे। इनसे पूर्व 23 तीर्थकर जैन धर्म का प्रचार कर चुके थे। जैन जनश्रुतियों के अनुसार जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर  ॠषभदेव थे। इस प्रकार जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक ऋषभदेव थे।

जैन धर्म के 24 तीर्थकर निम्नांकित थे-
1. ऋषभदेव, 2. अजितनाथ, 3. सम्भवनाथ, 4. अभिनन्दन, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभु, 7. सुपार्श्र्वनाथ, 8. चन्द्रप्रभु , 9. सुविधि, 10. शीतल, 11. श्रेयांस, 12. वासुपूज्य, 13. विमल, 14. अनन्त, 15. धर्म, 16. शान्ति, 17. कुन्थ, 18. अर, 19. मल्लि, 20. मुनि सुबत, 21. नेमिनाथ, 22. अरिष्टनेमि, 23. पार्श्वनाथ,  24. महावीर स्वामी ।

महावीर स्वामी, 599 ई.पू. - 527 ई.पू. [MAHAVIR SWAMI, 599 B.C. - 527 B.C.]

महावीर स्वामी, जैन धर्म के संस्थापक नहीं ,वरन् वह जैन धर्म के चौबीसवें व अन्तिम तीर्थकर थे। महावीर स्वामी ने जैन धर्म में अपेक्षित सुधार करके इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया था। महावीर स्वामी का जन्म वैशाली (बिहार) के निकट कुण्डग्राम में क्षत्रिय परिवार में हुआ था। महावीर स्वामी के बचपन का नाम 'वर्धमान' था। महावीर स्वामी के पिता का नाम का नाम सिद्धार्थ था, जो कुण्डग्राम के राजा थे। महावीर स्वामी की माँ का नाम त्रिशला था,जो लिच्छवि शासक चेटक की बहिन थीं । राज परिवार उत्पन्न होने के कारण महावीर स्वामी का प्रारम्भिक जीवन सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण व्यतीत हुआ। महावीर स्वामी बचपन से ही गम्भीर एवं चिन्तनशील प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। पिता की मृत्यु के समय महावीर स्वामी की आयु 30 वर्ष थी, तभी उन्होंने संन्यास धारण कर लिया तथा ज्ञान प्राप्ति के लिए तपस्या करने लगे। तेरह माह पश्चात जाडे के मौसम में उन्होंने वस्त्र त्यागकर नग्नावस्था में तप किया। कल्पसूत्र और 'आचरांग सूत्र' के अनुसार महावीर स्वामी
ने ज्ञान-प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या की। तपस्वी जीवन के 12 वर्ष पश्चात जम्भियग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के चित्र पर साल वृक्ष के नीचे महावीर स्वामी को ‘कैवल्य ज्ञान' (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हुई जिसके कारण उन्हें ‘केवलिन' पुकारा गया। अपनी इन्द्रियों को जीतने के कारण वे ‘जिन’ कहलाए और अपने पराक्रम के कारण 'महावीर के नाम से विख्यात हुए।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महावीर स्वामी ने धर्म प्रचार का कार्य प्रारम्भ किया। महावीर स्वामी को 42 वर्ष की आयु में ज्ञान प्राप्त हुआ था, उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम 30 वर्ष धर्म प्रचार में ही व्यतीत किए। महावीर स्वामी ने अनेक राज्यों में स्वयं जाकर जैन धर्म का प्रचार किया। उन्होंने काशी, अंग, मगघ, मिथिला व कौशल आदि राज्यों में घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार किया। 527 ई.पू. में 72 वर्ष की अवस्था में पावापुरी (जिला—पटना) में महावीर स्वामी की मृत्यु हुई। 

जैन धर्म के सिद्धान्त अथवा महावीर स्वामी की शिक्षाएँ (Principles of Jainism or the Teachings of Mahavir Swami)

महावीर स्वामी जैन धर्म के प्रवर्तक नहीं थे, वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर थे, उन्होंने जैन धर्म का पुनरुद्धार किया था। महावीर स्वामी ने जैन धर्म के सिद्धान्तों को सुव्यवस्थित किया तथा जैन संघ की स्थापना की थी। महावीर स्वामी ने सत्य का पता लगाने में वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार किया तथा तीर्थकरों के कैवल्य ज्ञान और उनके वचनों को ही प्रामाणिक माना।
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों एवं महावीर स्वामी की शिक्षाओं का अध्ययन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) त्रिरत्न-  जैन धर्म में मोक्ष की प्राप्ति के लिए त्रिरत्नों का पालन करना आवश्यक बतलाया गया है । ये त्रिरत्न हैं- (अ) सम्यक-दर्शन-- सत्य ज्ञान के प्रति श्रद्धा ही सम्यक-दर्शन है। सम्यक-दर्शन का तात्पर्य जैन तीर्थकरों में विश्वास रखने से है।
(ब) सम्यक् ज्ञान-  सम्यक ज्ञान, सत्य व असत्य के अन्तर को स्पष्ट करता है। जब मनुष्य परोक्ष तथा अपरोक्ष दोनों प्रकार की वस्तुओं का  ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब वह ज्ञानसम्यक-ज्ञान  के नाम से पुकारा जाता है।
(स) सम्यक्-चरित्र- अहितकारी कार्यों का निषेध तथा हितकारी कार्यों का आचरण ही सम्यक्-चरित्र है।

जैन धर्म के अनुसार यदि व्यक्ति इन त्रिरत्नों को प्राप्त कर लेता है, तो वह अपनी आत्मा को बन्धन मुक्त कर सकता है।

(2) पंच महाव्रत- महावीर स्वामी ने जैन धर्म के अनुयायियों को पंच महाव्रत का उपदेश दिया था। इन पंच महाव्रतों में प्रथम चार व्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह) का प्रतिपादन के जैन धर्म के तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ ने किया था तथा पाँचवें व्रत (ब्रह्मचर्य) का प्रतिपादन महावीर स्वामी ने किया था। जैन धर्म के पंच महाव्रत निम्नांकित हैं- 

(अ) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ है- जीव मात्र के प्रति दया का व्यवहार करना, जीवों की हत्या न करना।
(ब) सत्य- सत्य के अन्तर्गत मिथ्या का वचन का परित्याग करना आवश्यक था। इस व्रत के अनुसार व्यक्ति को सदैव सत्य बोलना चाहिए । सत्य बोलने के लिए व्यक्ति को लोभ, मोह, माया एवं क्रोध से दूर रहना चाहिए।
(स) अस्तेय- चोरी करना, बिना चुंगी दिए माल बेचना, चोरी का माल बेचना, कम तोलना आदि सभी अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं। इनसे बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
(द) अपरिग्रह- अपरिग्रह व्रत के अन्तर्गत उन सभी वस्तुओं का परित्याग है जिनके द्वारा इन्द्रिय सुख की उत्पत्ति होती है ।
(य) ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य का तात्पर्य वासनाओं के परित्याग से है। सभी इन्द्रिय या विषय-वासनाओं को त्यागकर संयम का जीवन व्यतीत करना ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है।

(3) अनीश्वरवादिता- जैन धर्म ईश्वर को सृष्टि के रचयिता एवं पालनकर्ता के रूप में ही स्वीकार नहीं करता है। जैन धर्म के अनुसार संसार अनादि और अनंत है तथा छह द्रव्यों- धर्म, अधर्म, पुदगुल व जीव द्वारा स्थिर है। जैन धर्म के अनुसार ईश्वर नाम की कोई ऐसी सत्ता नहीं है. जो जीव-जन्तुओं के सुख या दु:ख की निर्धारक हो । जैन धर्म के अनुसार केवल स्वकर्मों से ही सुखदु:ख मिलता है ।

(4) आत्मवादिता- जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। जैन धर्म के अनुसार न केवल मनुष्यों व जानवरों में बल्कि प्रत्येक जीव, यहाँ तक कि पेड़-पौधों में भी आत्मा होती है। प्रत्येक जीव में अलग-अलग आत्मा होती है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा सर्वदृष्टा है परन्तु कर्म-जाल तथा मोह के बन्धन इसकी शक्ति को क्षीण कर देते हैं। आत्म सुख-दुख अनुभव करती है। यदि आत्मा को मुक्त करना है तो उसे कर्म के बन्धनों से भी मुक्त करना होगा। 

(5) वेदों में अविश्वास- जैन धर्म के अनुयायी वेदों में विश्वास नहीं करते हैं। वेदों में ईश्वर और सृष्टि के बारे में, जो  कुछ कहा  गया है, उस पर इनका विश्वास नहीं है। जैन धर्म ने  ब्राह्मण धर्म में व्याप्त कुरीतियों की भी आलोचना की है। अहिंसात्मक नीति का पालन करने के कारण जैन धर्म, ब्राह्मण धर्म में प्रचलित पशु-बलि व यज्ञों का भी घोर विरोधी है।

(6) कर्म व पुनर्जन्म में विश्वास- जैन धर्म कर्म को प्रधानता देता है तथा पुनर्जन्म में विश्वास करता है। जैन धर्म के अनुसार, इस संसार में जो भी जन्म लेता है, उसे अपने वर्तमान जीवन के कर्मों और पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। कर्म का पुनर्जन्म के साथ सीधा सम्बन्ध है। कर्मों के आधार पर ही अगला जन्म होता है । मोक्ष अथवा निर्वाण प्राप्त करके ही जन्म-पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हुआ जा सकता है ।

(7) निवृत्ति मार्ग- जैन धर्म में निवृत्ति मार्ग को प्रधानता दी गई है । जैन धर्म के अनुसार संसार दु:खों से परिपूर्ण है, अतः दुःखों से निवृत्ति आवश्यक है। जैन धर्म में दु:खों का वास्तविक कारण तृष्णा माना गया है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को तृष्णा त्यागकर निवृत्ति का मार्ग अपनाना चाहिए। 

(8) अहिंसा- कर्म और पुनर्जन्म के समान ही अहिंसा का सिद्धान्त भी जैन धर्म में विशेष महत्व रखता है। 'अहिंसा परमो धर्म'  यह विचार जैन धर्म का मूलमन्त्र है। जैन धर्म के अनुसार जड़ व चेतन दोनों प्रकार की वस्तुओं में जीव का अस्तित्व है। जैन धर्म के अनुसार जीव की हत्या न करना ही पर्याप्त नहीं है वरन् हिंसा के विषय में सोचना, बोलना व दूसरों को हिंसा करने देना भी अधर्म है।

(9) समानता व सदाचार पर बल- जैन धर्म, ब्राह्मण धर्म की प्रचलित जाति प्रथा (वर्ण-व्यवस्था) का विरोध करता है। जैन धर्म के अनुसार शूद्र व ब्राह्मण में कोई अन्तर नहीं है। निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है, चाहे वह शूद्र हो अथवा ब्राह्मण। इसके अतिरिक्त जैन धर्म सदाचारी एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने पर बल देता है।

(10) निर्वाण- जैन धर्म में निर्वाण अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति को ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य माना जाता है। महावीर स्वामी के अनुसार कर्म-बन्धन से मुक्ति पाना ही मोक्ष अथवा निर्वाण है। कर्मबन्धन से मुक्ति पाने के लिए यह आवश्यक है कि पूर्व-जन्म के दुष्कर्मों का नाश किया जाए और वर्तमान जन्म में सत्कर्म किए जाएँ। जैन धर्म निर्वाण प्राप्त करने के लिए 'त्रिरत्न' को भी आवश्यक मानता है।

जैन धर्म का प्रसार (Expansion of Jainism)

महावीर स्वामी ने समाज के सभी वर्गों में अपने धर्म का प्रचार करने का प्रयास किया था। महावीर स्वामी के राजघराने से सम्बन्धित होने के कारण अनेक राजवंशों ने जैन धर्म को आश्रय प्रदान किया था, जिससे जैन धर्म का व्यापक प्रचार और प्रसार हुआ था। जैन धर्म का संगठित करने एवं इसके और अधिक प्रसार करने के लिए महावीर स्वामी ने ‘जैन संघ' की स्थापना की थी। महावीर स्वामी के समय में जैन धर्म कोशल, विदेह, मगध, अंग, काशी, मिथिला गया था। महावीर स्वामी के पश्चात् जैन संघ और प्रचारकों ने जैन धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। महावीर स्वामी की मृत्यु के पश्चात भी जैन धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त होता रहा । कालान्तर में जैन धर्म के प्रसार का मुख्य आधार जैन धर्म के अनुयायियों का भारत के विभिन्न प्रदेशों में जाकर बसना था। इस प्रकार जैन धर्म का प्रसार उड़ीसा, दक्षिण भारत, मथुरा, उज्जयिनी, जूनागढ़ और गुजरात तक हुआ। मौर्यवंश व गुप्त वंश के शासनकाल के मध्य में जैन धर्म पूर्व में उड़ीसा से लेकर पश्चिम में मथुरा तक फैला हुआ था।

महावीर स्वामी की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् जैन धर्म मुख्यत: दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया- (1) दिगम्बर जैन और (2) श्वेताम्बर जैन, ये दोनों सम्प्रदाय आज तक विद्यमान हैं। श्वेताम्बर जैन-मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं जबकि दिगम्बर जैन-मुनियों के लिए नग्न रहना आवश्यक है। इस विभाजन के बावजूद भी जैन धर्म की प्रगति होती रही और उत्तर भारत, काठियावाड़, गुजरात, राजस्थान, मैसूर और हैदराबाद आदि प्रदेशों में उसका प्रसार हुआ। किन्तु जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या सदैव सीमित रही, आज भी उनकी संख्या अधिक नहीं

जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन (Contribution of Jainism to Indian Culture)

यद्यपि जैन धर्म का प्रचा-रप्रसार अधिक नहीं हो पाया, फिर भी जैन धर्म ने भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को बहुत प्रभावित किया और भारतीय दर्शन, साहित्य तथा कला के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन विषय का अध्ययन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
(1) अहिंसा का सिद्धान्त- अहिंसा का सिद्धान्त जैन धर्म की मुख्य देन है। यह सत्य है कि जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का सिद्धान्त कोई नवीन सिद्धान्त नहीं था, परन्तु यह भी सत्य है कि अहिंसा का प्रचार जितना जैन धर्म द्वारा किया गया, उतना किसी अन्य धर्म ने नहीं किया। महावीर स्वामी ने पशु-पक्षी तथा पेड़-पौधों तक की हत्या न करने का अनुरोध अपने अनुयायियों से किया था। जैन धर्म के इस सिद्धान्त का हिन्दुओं पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। यह अहिंसा के सिद्धान्त का ही प्रभाव है कि समस्त देश में 'दया' ही धर्म का प्रधान अंग माना जाता है ।

(2) कर्म व पुनर्जन्म का सिद्धान्त- जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को दूसरी देन 'कर्म व पुनर्जन्म' का सिद्धान्त है। कर्म व पुनर्जन्म के सिद्धान्त में भारतीय जैन धर्म से पहले भी विश्वास करते थे, किन्तु जैन धर्म के प्रवर्तकों तथा प्रचारकों ने इस सिद्धान्त को इतना वैज्ञानिक और सुबोध से बना दिया कि भारत का जन-जन यह जान गया कि "जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे" अर्थात् जैसा कर्म तुम करोगे, उसका फल तुमको अवश्य मिलेगा। यह सिद्धान्त अब भारत में इतना प्रचलित हो गया है कि यह भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया है।

(3) दर्शन के क्षेत्र में देन- जैन धर्म ने भारतीय दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दर्शनशास्त्र में जैन धर्म का 'स्यादवाद' अपना विशिष्ट महत्व रखता है। 'स्यादवाद' जैन धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । इसका अभिप्राय यह है कि जो बात कही जा रही है, वह किसी विशेष अपेक्षा से कही जा रही है, परन्तु यह बात अन्य दृष्टिकोणों से या अपेक्षाओं से भी कही जा सकती है और नहीं भी कही जा सकती है। ‘स्यादवाद’ के अतिरिक्त भी अनेक मौलिक सिद्धान्तों को जैन धर्म ने भारतीय संस्कति को प्रदान किया है।

(4) सामाजिक देन- समाज के क्षेत्र में भी जैन धर्म की देन महत्वपूर्ण है। जैन धर्म को आश्रय प्रदान करने वाले शासकों ने जैन धर्म से प्रेरित होकर समाज के निर्धन वर्ग के लिए अनेक औषधालयों, विश्रामालयों  व पाठशालाओं का निर्माण कराया। शासकों के इन समाजकार्यों से प्रेरित होकर समाज के अन्य वर्गों में भी निर्धनों के प्रति दया-भाव जाग्रत हुए। जैन धर्म ने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए भी सार्थक प्रयत्न किए। महावीर स्वामी ने समाज में प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जाति प्रथा) का भी विरोध किया, जिससे सामाजिक समानता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ।

(5) साहित्यिक देन- जैन धर्म में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की गयी । श्वेताम्बर तथा दिगम्बर जैन सम्प्रदायों ने अनेक धार्मिक ग्रन्थों का सृजन किया, जिनमें अंग और कल्पसत्र प्रमुख ग्रन्थ हैं। हेमचन्द्र सूरी नामक विद्वान ने व्याकरण कोष, छन्द, शास्त्र तथा व्याकरण पर अनेक ग्रन्थ लिखे। जैन विद्वानों ने अपने साहित्य की रचना मुख्यत: प्राकृत नामक लोकभाषा में की । प्राकृत भाषा को समृद्ध बनाने में जैन धर्म का विशेष योगदान रहा।

(6) कला के क्षेत्र में देन- जैन धर्म का कला के क्षेत्र में भी अपूर्व योगदान रहा। जैन धर्म के अनुयायियों ने अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तथा तीर्थकरों की स्मृति को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए कलात्मक मन्दिरों, स्तूपों, मठों, स्तम्भ,प्रवेश-द्वार, गुफाओं और निर्माण कराया। मध्य प्रदेश में खजुराहो में अनेक जैन मन्दिर हैं। इनमें पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ तथा आदिनाथ के मन्दिर विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।

(7) धार्मिक देन- जैन धर्म के प्रचारकों ने तत्कालीन प्रचलित ब्राह्मण धर्म के अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों की व्यापक आलोचना की, जिससे ब्राह्मणों को अपने धर्म की कुरीतियों और दोषों का ज्ञान हुआ। अपने धर्म के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए यह  आवश्यक हो गया कि वे (ब्राह्मण) उसमें सुधार करें। अतः जैन धर्म के कारण तत्कालीन प्रचलित ब्राह्मण धर्म पहले की अपेक्षा अधिक सरल और आडम्बरहित हो गया।
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1 comment:

Nina said...

शत्रुंजय मंदिर, को दुनिया के सबसे खूबसूरत मंदिरों में से कई पुरातत्वविदों और धार्मिक वास्तुकला के विद्वानों द्वारा माना जाता है। अलंकृत ढंग से और त्रुटिहीन रूप से बनाए गए मंदिरों के भीतर चौबीस तीर्थंकरों की कई सैकड़ों मूर्तिकला संगमरमर की मूर्तियां मिली हैं।

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