बिन्दुसार-अशोक |
बिन्दुसार (298 ई.पू.- 273 ई.पू.) [BINDUSAR (298 B.C.-273 B.C.)]
बिन्दुसार मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र था। चन्द्रगुप्त के पश्चात् 298 ई.पू. में वह मगध के राजसिंहासन पर आसीन हुआ। बिन्दुसार के प्रारम्भिक जीवन के विषय भी अत्यन्त अल्प जानकारी उपलब्ध है। जैन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उसकी माता का नाम दुर्धरा था। तिब्बती लामा तारानाथ के विवरण से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार का प्रधानमंत्री चाणक्य ही था। किन्तु बाद में खल्लाटक व भी उसके प्रधानमंत्री रहे। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि बिन्दुसार की परिषद में 500 सदस्य थे, जो शासन कार्य में राजा की सहायता करते थे।
बिन्दुसार ने अपने पिता से प्राप्त सम्पूर्ण साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाए रखा। उसके शासनकाल में उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में दो बार विद्रोह हुआ। उसका पुत्र सुसीम, जो तक्षशिला का सूबेदार था, विद्रोह को दबाने में सफल न हुआ। तब बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को, जो उस समय उज्जैन का सूबेदार था, तक्षशिला भेजा। अशोक ने सफलतापूर्वक विद्रोह को शान्त किया।
बिन्दुसार ने अपने पिता को भाँति शान्तिपूर्ण वैदेशिक नीति का पालन करते हुए अन्य देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध कायम रखे। बिन्दुसार के समकालीन यूनानी राजाओं ने भी भारत के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखे। स्ट्रैबो के अनुसार सेल्यूकस के उत्तराधिकारी एण्टियोकस ने डायमेकस नामक राजदूत बिन्दुसार के दरबार में भेजा था।
एथिनियस नमक एक यूनानी विद्वान ने लिखा है कि भारतीय शासक बिन्दुसार ने सीरिया के शासक एन्टीयोकस से अंगूर की शराब, सूखी अंजीर व एक दार्शनिक को भेजने का निवेदन किया था। सीरिया के शासक ने अंजीर और शराब भेज दी और यह लिख भेजा कि यूनानी कानून के अनुसार दार्शनिकों का विक्रय सम्भव नहीं है।
इस विवेचन से बिन्दुसार के विदेशों से सम्बन्धों के अतिरिक्त यह भी ज्ञात होता है कि बिन्दुसार की दर्शन में अभिरुचि थी। बिन्दुसार को मृत्यु 273 ई.पू.में हुई थी।
अशोक (269 ई. पू.-232 ई.पू.) [ASHOKA (269 B.C.-232 B.C.)]
अशोक का साम्राज्य |
बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अशोक शासक बना। अशोक का शासनकाल भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। वह विश्व इतिहास का महानतम सम्राट था। उसने विश्व में सभ्यता का प्रचार करने के लिए अथक प्रयत्न किए।
अशोक के जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अल्प जानकारी उपलब्ध है। अशोक बिन्दुसार का पुत्र था। बौद्ध ग्रन्थ दीपवंश व महावंश में बिन्दुसार की 16 रानियाँ एवं 101 पुत्रों का उल्लेख किया गया है। बौद्ध प्रन्थ 'अशोकावदान' के अनुसार अशोक की माता का नाम शुभ्रदांगी था। सुसीम बिन्दुसार का सबसे बड़ा पुत्र था।
बिन्दुसार ने अपने सभी पुत्रों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था की थी, किन्तु समस्त राजकुमारों में अशोक सबसे योग्य था। अशोक को प्रशासनिक शिक्षा प्रदान करने हेतु बिन्दुसार ने उसे उज्जैन का सूबेदार नियुक्त किया था। बिन्दुसार के शासनकाल में ही तक्षशिला में विद्रोह हुआ, जिसे दबाने में सुसीम अक्षम रहा, तब बिन्दुसार ने सहोक को इस विद्रोह को दबाने व तक्षशिला में शान्ति की स्थापना करने के लिए भेजा था। अशोक इस उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल रहा। इस प्रकार अशोक ने अपने पिता के शासनकाल में ही काफी प्रशासनिक अनुभव
प्राप्त कर लिया था।
उत्तराधिकार के लिए युद्ध तथा सिंहासनारोहण- 273 ई.पूमें जब बिन्दुसार बीमार पड़ा, तब अशोक उज्जैन में सूबेदार के रूप में कार्यरत् था। पिता के बीमार होने का समाचार पाकर उसने पाटलिपुत्र के लिए प्रस्थान किया, परन्तु जब वह मार्ग में ही था, तभी उसके पिता की मृत्यु हो गई। पाटलिपुत्र पहुचने पर उसने मगध के राज-सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास किया। युवराज न होने के कारण संभवतः उसे अपने बड़े भाई सुसीम या उत्तराधिकार के इच्छुक अन्य भाईयों से संघर्ष करना पड़ा था। इस संघर्ष में अशोक को सफलता प्राप्त हुई । यह संघर्ष लगभग चार वर्ष तक चला और अन्ततः अशोक को विजयश्री मिली, तत्पश्चात् 269 ई.पू. में अशोक ने औपचारिक रूप से अपना राज्याभिषेक कराया।
कलिंग पर विजय- अशोक की एकमात्र विजय कलिंग की विजय थी। कलिंग मौर्य साम्राज्य की सीमाओं से लगा हुआ एक शक्तिशाली राज्य था। साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से उसकी विजय अशोक द्वारा आवश्यक समझी गई। इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत से व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने के लिए कलिंग की भूमि और उसके समुद्र तट पर अधिकार करना लाभदायक समझा गया। उसने अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष अर्थात 261 ई.पू. में अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया। यह युद्ध बहुत भीषण हुआ, परन्तु इस युद्ध में अशोक की विजय हुई। युद्ध का वर्णन तेरहवें शिलालेख मिलता है। अभिलेख के अनुसार, "राज्याभिषेक के आठ वर्ष पश्चात् देवताओं के प्रिय सम्राट प्रियदर्शी (अशोक) ने कलिंग पर विजय प्राप्त की। इस युद्ध में 1,50,000 व्यक्ति व पशु बन्दी बनाकर कलिंग से लाए गए व 1,00,000 व्यक्ति युद्ध भूमि में मारे गए तथा उसके कई गुना अन्य करने से नष्ट हो गए। पश्चात् महामना सम्राट ने दया के धर्म (बौद्ध धर्म) की शरण ली, इस धर्म से अनुराग किया और इसका सारा सामान में प्रचार किया। इस विनाश की ताण्डव लीला ने जो कि कलिग राज्य को जीतने में हुई, सम्राट के ह्रदय को द्रवित कर दिया व पश्चाताप से भर दिया।
विजित कलिंग राज्य मगध साम्राज्य का अंग बन गया तथा उसको राजवंश के ही एक राजकुमार के अधीन कर दिया गया। इस प्रदेश की राजधानी तोशाली बनाई गई। जो पूरी जिले में स्थित थी।
कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार तथा वहां की जनता के कष्ट को देखकर अशोक का ह्रदय आवीभूत हो गया। युद्ध की इस भीषणता का अशोक पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। अशोक ने युद्ध की नीति को सदैव के लिए त्याग दिया तथा दिग्विजय के स्थान पर 'धम्म विजय' को अपनाया। कलिग की प्रजा व सीमावर्ती प्रदेशों में रहने वाले लोगों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाए, इस सम्बन्ध में अशोक ने दो आदेश जारी किए। ये आदेश धोली (पुरी जिला) को व जोगडा (गंजाम जिला) के शिलालेखों पर अंकित हैं। इन शिलालेखों में अंकित विवरण इस प्रकार है - "सम्राट का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत् व्यवहार, जनता को प्यार किया जाये, अकारण लोगो को दंड व यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिए। सीमान्त जातियों को आश्वासन दिया गया कि उन्हें सम्राट से कोई भय नही करना चाहिए। उन्हें राजा के साथ व्यवहार करने से सुख ही मिलेगा, कष्ट नहीं। राजा यथाशक्ति उन्हें क्षमा करेगा, वे धम्म का पालन करें। यहाँ उन्हें सुख मिलेगा तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग।"
इस प्रकार कलिंग युद्ध के परिणामस्वरूप अशोक में महान परिवर्तन हुए। कलिंग का युद्ध अशोक के जीवन की अन्तिम सैनिक विजय थी। अशोक की इस शांतिप्रिय नीति ने ही उसे सदैव के लिए अमर बना दिया।
अशोक का साम्राज्य विस्तार- कलिग पर विजय प्राप्त हो जाने के कारण अशोक के शासनकाल में मौर्य साम्राज्य की सीमा बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत हो गई। नेपाल तथा कश्मीर भी मगध साम्राज्य के अन्तर्गत थे। अशोक के शासनकाल में दक्षिण में मौर्य साम्राज्य की सीमा पन्नार नदी तक विस्तृत थी। उत्तर-पश्चिम में उसके राज्य की सीमा ऐण्टियोकस द्वितीय के राज्य की सीमा से मिलती थी, जिसमें अफगानिस्तान व बलूचिस्तान के प्रदेश भी शामिल थे। पश्चिम में मौर्य साम्राज्य की सीमा पश्चिमी समुद्र तट तक विस्तृत थी।
अशोक ने धम्म सम्बन्धी सिद्धान्त को अपने अभिलेखों में अभिव्यक्त किया । अशोक ने अपने प्रथम शिलालेख में लिखा है, "यज्ञ अथवा भोजन के लिए पशुओं की हत्या न करना ही उचित है।” धम्म के एक अन्य सिद्धान्त जिस पर अशोक ने बहुत जोर दिया था, वह था, माता-पिता, गुरु व बड़े बुजुर्गों का उचित आदर करना। मित्र, पड़ौसी और जाति सम्बन्धियों के साथ सम्यक् व्यवहार करना भी धम्म का मुख्य सिद्धान्त था। अपने सप्तम् शिलालेख में अशोक ने संयम, भाव शुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्ति पर जोर दिया है। इसी प्रकार अशोक के सप्तम स्तम्भ लेख में मोद (प्रसन्नता) और साधुता (सज्जनता) पर जोर दिया गया है। इस प्रकार उसके धम्म प्रचार का मुख्य उद्देश्य समाज में शान्ति और सौहार्द्र की वृद्धि करना था, क्योंकि राष्ट्र की उन्नति के लिए सामाजिक जीवन को उन्नत बनाना जरूरी था।
अशोक का धम्म मानव मात्र के कल्याण तक ही सीमित न था, वह तो प्राणी मात्र को सुख पहुँचाना चाहता था। इसीलिए उसने छायादार वृक्ष लगवाए ताकि मनुष्यों और पशुओं दोनों को सुख मिल सके। इसलिए उसने पशु हत्या का निषेध किया और पशुओं के लिए भी चिकित्सालय स्थापित कराए। अशोक की मुख्य विशेषता इस बात में है कि उसने जिस धम्म का प्रचार किया, उसका स्वयं अपने जीवन में भी व्यवहार किया। इसके अतिरिक्त उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी इसी धम्म का अनुसरण करने की सम्मति दी।
(1) बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को आचरण में लाना—अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सर्वप्रथम स्वयं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का पालन उचित ढंग से किया, उसने स्वयं माँस खाना तथा शिकार करना छोड़ दिया। उसने यद्ध न करने का भी संकल्प किया तथा अन्त तक निभाया। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 9वें वर्ष में बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया था। वह बौद्ध संघ का सदस्य बन गया तथा भिक्षु की भाँति सादा जीवन व्यतीत करने लगा।
(2) बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित करना- बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के पश्चात अशोक ने बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित कर दिया तथा समस्त राजकीय साधनों को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। इससे प्रजा बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगी।
(3) धर्म महामात्रों की नियुक्ति- बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्तियाँ की। धर्म-महामात्रो का प्रमुख कार्य जनता में धर्म के सिद्धांतों का प्रचार कर लोगों को चरित्रवान बनाना था।
(4) धर्म यात्राएँ - अशोक ने अपनी आमोद-प्रमोद के उदेश्य से की जाने वाली यात्राएं समाप्त कर दीं, इनके स्थान पर वह धर्म यात्राएँ करने लगा। इन धर्म यात्राओं के उद्देश्य के विषय में अशोक ने अपने 8वें शिलालेख में लिखा है , कि इनका उद्देश्य ब्राह्मण व् श्रमण साधुओं का दर्शन और उन्हें उपहार-दान, वृद्धों दर्शन और उन्हें स्वर्ण-वितरण तथा जनपद के लोगों से मिलना, उन्हें धर्म सम्बन्धी उपदेश देना और उनसे धर्म सम्बन्धी प्रश्न करना व उनके उत्तर देना था।
(5) धार्मिक सिद्धान्तों को शिलाओं और स्तम्भों आदि पर अंकित करना- बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को अपने साम्राज्य में विभिन्न स्थानों पर उत्कीर्ण कराया, जिससे कि सभी इन्हें पढ़ सकें और इनके अनुकूल आचरण कर सकें।
(6) जनसाधारण की भाषा का प्रयोग - महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों को जनसाधारण द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली पाली भाषा दिया था, जिससे जनता इन्हें सुगमता से ग्रहण कर सकी। इसीलिए अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया, जो उस समय जनसाधारण की भाषा थी। इससे बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ।
(7) सदआचरण तथा धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर बल देना- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ सद्आचरण तथा धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर भी बल दिया। उसने कर्मकाण्डों, आडम्बरों तथा अनैतिक सिद्धान्तों आलोचना की तथा नैतिक व्यवहार पर बल दिया। अशोक का कथन था कि मनुष्य का सबसे प्रमुख कर्तव्य माता-पिता की सेवा करना है; मित्रों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा श्रमिकों के प्रति उदार बनना है; जीवों की हत्या न करना और थोड़ा धन संग्रह और उसी के अनुसार थोड़ा व्यय करना मनुष्य का धर्म है।
(8) बौद्ध मठों, स्तूपों व विहारों का निर्माण- बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने अनेक मठों, स्तूपों व विहारों का निर्माण करवाया । इन मठों, स्तूपों व विहारों में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ निवास करते थे व धर्मोपदेश देते थे, जिससे बौद्ध धर्म का प्रचार होता था।
(9) लोककल्याणकारी कायों का आयोजन- अशोक धर्म को व्यावहारिक रूप देना चाहता था। अतः इस उद्देश्य से उसने लोककल्याणकारी कार्य कराए। अपने 7वें स्तम्भ लेख में अशोक ने कहा है, "मार्गों पर मैंने बरगद के वृक्ष लगवा दिए हैं उनसे मनष्यों व पशुओं को छाया मिलेगी। मैने आमों के बाग लगवाए हैं। प्रत्येक आठ कोस पर मैंने कुंए खुदवाए हैं और विश्रामगृह बनवाए हैं। मनुष्यों और पशुओं के सुख के लिए मैने विभिन्न स्थानों पर प्याऊ लगवाई है........... मैने यह इस अभिप्राय किया है कि लोग धर्म का आचरण करें।" इस प्रकार अशोक ने लोककल्याणकारी कायों के द्वारा भी बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
(10) तृतीय बौद्ध-संगीति का आयोजन- अशोक के शासनकाल में तृतीय बौद्ध-संगीति का पाटलिपुत्र में आयोजन किया गया। इस बौद्ध-संगीति के अध्यक्ष मुगलिपुत्त तिष्य थे। इस बौद्ध-संगीति में बौद्ध संघ में उत्पन्न दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया, जिससे बौद्ध धर्म की उन्नति की गति तीव्र हो गयी।
(11) अहिंसा का प्रचार- बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा का अशोक ने प्रचार व पालन किया। उसने अनेक पशु-पक्षियों की हत्या करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। पशु-पक्षियों की हत्या प्रतिबन्धित करने के आदेश के द्वारा चिरकाल से चली आ रही यज्ञ में पशुओं की आहुति देने की प्रथा को भी निषेध कर दिया गया।
(12) दान व्यवस्था- बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार करने के लिए अशोक ने दान व्यवस्था को विशेष महत्व प्रदान किया। असहाय, दीन-दुखियों, निर्धनों तथा रोगियों को राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था प्रारम्भ की गई। अनेक राजकीय संस्थाएँ असहायों को दान देने के साथ-साथ धर्म प्रचार का कार्य भी करती थीं।
(13) धर्म-श्रवण की व्यवस्था- बौद्ध धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के साथ-साथ उसके व्यापक प्रसार के लिए अशोक ने धर्म श्रवण की व्यवस्था की । इस व्यवस्था में धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए प्रवचन तथा धार्मिक सम्भाषण दिए जाते थे। अशोक के सातवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह समय-समय पर अपनी प्रजा को धार्मिक सन्देश देता था। अशोक जनता से सीधे सम्पर्क कर धार्मिकता का उपदेश देकर तथा उनकी आध्यात्मिक उन्नति के बारे में प्रश्न पूछकरधर्म का प्रचार करता था। राजा द्वारा स्वयं उपदेश देने से प्रजा के मन पर निश्चित रूप से गम्भीर प्रभाव पड़ता होगा तथा इससे धर्म की तीव्र उन्नति हुई होगी ।
(14) बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार- अशोक ने भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के अतिरिक्त विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रसार करने का प्रयास किया। उसने लंका, नेपाल, मिस्र, सीरिया, बर्मा आदि देशों में बौद्ध प्रचारक भेजे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि लंका में तो अशोक ने स्वयं अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को भेजा था। इसके परिणामस्वरूप दूर-दूर तक बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार केवल भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी कराया। इसके साथ ही अशोक ने अपनी प्रजा का अपने उपदेशों द्वारा नैतिक उत्थान कर मानव मात्र का कल्याण किया ।
(1) चौदह शिलालेख - अशोक द्वारा शिलालेखों पर लिखवाये गए ये अभिलेख शाहबाजगढ़ी (पेशावर), मनसेहरा (हजारा), कालसी (देहरादून), गिरनार (काठियावाड़), सोपरा (ठाणे, महाराष्ट्र), धौली (उड़ीसा), जौगढ़ (उड़ीसा) और एरागुड़ी (कुर्नूल) नामक स्थानों पर पाए गए है। इन शिलालेखों की कुल संख्या चौदह है।
(2) लघु-शिलालेख - अशोक द्वारा लिखवाये गए लघु-शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर), गुजर्रा (दतिया), सहसराम (शाहबाद, बिहार), भाब्रू (जयपुर), मास्की (रायपुर), ब्रह्मागिरी (मैसूर), सिद्धपुर (मैसूर), जतिंग रामेश्वर (मैसूर), एरागुडी (कुर्नूल), गोविमठ (मैसूर), पालकिगुण्ड (मैसूर), राजुल मांडगिरि (कुर्नूल), अहरौरा (मिर्जापुर), सारो-मारो (शहडोल, मध्य प्रदेश), नेन्नुर (मैसूर) में पाए गए है।
(3) स्तम्भ-अभिलेख- अशोक के स्तम्भ-अभिलेखों की संख्या सात है। ये स्तम्भ अभिलेख पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण कराये गये हैं। ये स्तम्भ अभिलेख मूल रूप से सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) , मेरठ (उत्तर प्रदेश), लोरिया अरराज (बिहार), लौरिया नन्दनगढ़ (बिहार), रामपुरपा (बिहार) तथा कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश) में स्थित थे।
(4) लघु स्तम्भ अभिलेख- अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण है, उन्हें साधारण तौर से लघु स्तम्भ अभिलेख कहा जाता है। ये लघु स्तम्भ अभिलेख साँची, सारनाथ, रुम्मिनदेई (नेपाल), कौशाम्बी व निग्लीवा (नेपाल) नामक स्थानों पर पाये गये हैं।
(1) अशोक का व्यक्तित्व एवं आदर्शवादिता- अशोक बचपन से ही अत्यन्त योग्य एवं मेधावी था। बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भिक जीवन में अशोक अत्यन्त क्रूर था तथा उसने यातना-गृह का भी निर्माण कराया था, यद्यपि बौद्ध साहित्य का वर्णन सन्देहास्पद है, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि कलिंग-युद्ध के पश्चात् उसकी विचारधारा और व्यक्तित्व में आकस्मिक परिवर्तन हुआ। उसके व्यक्तित्व में हुए परिवर्तन ने ही उसे विश्व का महानतम सम्राट बना दिया। अशोक ने हिंसा के स्थान पर अहिंसा का सहारा लिया तथा वह युद्ध विजेता के स्थान धम्म-विजेता बन गया। कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक का जीवन सरल, पवित्र, त्यागमयी व आदर्शमयी हो गया।
अशोक एक महान आदर्शवादी सम्राट था। अशोक ने सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्रों में महान् आदर्शों का पालन किया। अशोक ने सामाजिक क्षेत्र में जनकल्याण के कार्यों को करते हुए समाज को सुख एवं समृद्धि के पथ पर अग्रसारित किया। अशोक ने धार्मिक क्षेत्र में उदारता एवं सहिष्णता का परिचय दिया। अशोक ने राजनीतिक क्षेत्र में भी उच्च आदर्शवादी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया। ऐसे उच्च आदर्शों का पालन करके अशोक का महान बनना स्वाभाविक ही था।
(2) महान् शासक- अशोक की गणना विश्व के महानतम शासकों में की जाती है। अशोक ने प्रशासकीय क्षेत्र में जिस त्याग, बलिदान, दानशीलता तथा उदारता का परिचय दिया और मानव को अपना नैतिक स्तर ऊंचा उठाने की प्रेरणा दी, वैसा विश्व के इतिहास में हमें कहीं और देखने को नहीं मिलता है। अशोक ने शासन को कुशल व सुचारु बनाने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था में अनेक सुधार किए तथा 'धर्म-महामात्रों' की नियुक्ति की। इसके अतिरिक्त अशोक ने 'राजकों को भी नियुक्त किया। 'राजकों' को नियुक्त करने के उद्देश्य के विषय में अशोक ने लिखा है, "जिस प्रकार अपनी संतान को एक कुशल आया को सुपुर्द कर देने के पश्चात् मनुष्य स्वयं निश्चिन्त हो जाता है, उसी मैंने भी प्रांतीय जनता के हितों के लिए इन राजुको को नियुक्त किया है।" अशोक ने अपने शासनकाल में ऐसे अनेक कार्य बन्द करा दिये जिससे प्रजा का अहित होता था। अशोक ने सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्सवों में मद्यपान, माँस-सेवन, नृत्य आदि को समाप्त कर 'धम्म-समाज' व 'धम्म-यात्रा' के महत्व को समझाया। अशोक प्रजा को अपनी सन्तान के समान ही चाहता था, इसका प्रमाण इस तथ्य से भी मिलता है कि उसने घोषणा कराई कि प्रजा के विषय में उसे किसी भी समय सूचना दी जा सकती है। अपने छठे शिलालेख में अशोक ने कहा है, "प्रत्येक समय चाहे में भोजन कर रहा होऊँ या शयनागार में हूँ, प्रतिवेदक प्रजा की दशा से मुझे अवगत करें। मैं सर्वत्र प्रजा-कार्य करूंगा ............ सब लोगों का हित करना मेरा कर्तव्य है और इसका मूल उद्योग तथा कार्य-तत्परता है।" अशोक के इन विचारों ने देश को नवजीवन एवं स्फूर्ति प्रदान की। विद्वान लेखक डॉ.व्ही.ए.स्मिथ ने लिखा है, "यदि अशोक योग्य न होता तो वह अपने विशाल साम्राज्य पर 40 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन न कर सका होता तथा अपना ऐसा नाम न छोड़ गया होता,जिसे लोग दो हजार वर्षों के पश्चात् भी नहीं भूले हैं।"
(3) महान् विजेता- अशोक एक युद्धविजेता के रूप में उतना प्रसिद्ध नहीं है,जितना कि एक 'धम्म-विजेता' के रूप में प्रसिद्ध है कलिंग विजय के पश्चात् अशोक ने 'युद्धघोष' के स्थान पर 'धम्म-घोष’ से विजयें प्राप्त कीं। अशोक ने अन्य शासकों की भांति तलवार से नहीं वरन् शान्ति व अहिंसा के सुदृढ़ अस्त्रों से साम्राज्य विस्तार किया। विश्व इतिहास में ऐसा कोई भी अन्य उदाहरण प्राप्त नहीं होता है। निःसन्देह अशोक एक महान् विजेता था, जो रक्तपात के स्थान पर विजित व विजेता दोनों को ही ‘धम्म' से लाभान्वित करता था।
(4) उदारता एवं लोकहित कार्य- अशोक न केवल मानव वरन् सम्पूर्ण प्राणी जगत के प्रति उदारता का दृष्टिकोण रखता था। इसी कारण अशोक ने पशु-पक्षियों के वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उदारता के अतिरिक्त अशोक ने अनेक लोकहित के कार्य भी किए। अशोक ने लोकहित के लिए छायादार वृक्ष लगवाए, धर्मशालाएँ बनवाई और कुएं खुदवाए। इसके अतिरिक्त अशोक ने मनुष्यों व पशुओं के लिए उपयोगी औषधियों व औषधालयों की भी व्यवस्था की।
(5) कर्तव्यनिष्ठ शासक- अशोक में कर्तव्यनिष्ठा का प्रबल भाव था। उसका मानना था कि उसके लिए सम्पूर्ण प्रजा के कल्याण साधन से अधिक महत्व का कोई दूसरा कार्य नहीं है। अशोक का साम्राज्य काफी विशाल था, फिर भी वह उसके प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक वर्ग की जनता से स्वयं सम्पर्क रखने को बहुत महत्व देता था। उसने घोषणा की थी, "मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ, वह उस ऋण को चुकाने के लिए है, जो सभी प्राणियों का मुझ पर है।" वह अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को भी यही कहता था कि प्रजा की समुचित रक्षा करना उनका धर्म है। अशोक के सन्दर्भ में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "उसको अपने कर्तव्य का गहरा ध्यान रहता था, जिस कारण उसने अपने पद और स्थान से सम्बन्धित सुख तक को त्याग दिया। हर घड़ी व् हर स्थान पर शासन का कार्य और प्रजा के कल्याण संपन्न करने को वह तत्पर रहता था। अपने साम्राज्य के समस्त साधन उसने मनुष्य-मात्र के दुःखमोचन व् अपने धम्म के प्रचार लिए लगा दिए। "
(6) राष्ट्रीय एकता प्र5दान करना- चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधने के प्रयत्न को अशोक ने पूर्ण किया। अशोक ने धर्म प्रचार के लिए जो महान प्रयत्न किए, उससे एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में सम्प्रेषण अधिक तीव्र हो गया। परिणामतः सम्पूर्ण देश में एक ऐसी सामान्य भाषा की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, जो न केवल धार्मिक मामलों में बल्कि आचार-व्यवहार में भी विचार-विनिमय का माध्यम बन सके। अतः अशोक ने सम्पूर्ण देश में एक ही भाषा का प्रयोग करने का आदेश दिया। इस प्रकार पाली भारत की राष्ट्र बन गई। अशोक ने भाषा के अतिरिक्त अन्य सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के द्वारा भी राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ता प्रदान की।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अशोक नि:सन्देह एक महान शासक था। उसका चरित्र महान था और उसके आदर्श विश्व की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पूंजी है। डॉ. राधकुमुद मुखर्जी ने लिखा है, "राजाओं के इतिहास में मनुष्य और शासक के रूप में किसी के रिकॉर्ड की तुलना अशोक से नहीं की जा सकती है।" अशोक ने अहिंसा के सिद्धान्त का उस समय यदों में हिंसा आदि का नियम था। विद्वान इतिहासकार डॉ. रायचौधरी ने अशोक की प्रशंसा करते हुए लिखा है, "अशोक भारतीय इतिहास के सर्वाधिक रोचक व्यक्तियों में से एक है। वह चन्द्रगुप्त के समान प्रबल, समुद्रगुप्त के समान प्रतिभा सम्पन्न व अकबर के समान निष्पक्ष था। अपने में वह अथक तथा उत्साह में सुदृढ़ था। उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति प्रजा की आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति के लिए लगा दी, जिसे (प्रजा) वह अपने बच्चों के समान समझाता था।"
इस प्रकार 184 ई.पू. में मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
मौर्य साम्राज्य के पतन के लिए निम्नांकित कारण मुख्यतः उत्तरदायी थे-
(1) निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारी- मौर्यों के पतन के लिए उत्तरदायी कारणों में सर्वप्रथम अशोक के उत्तराधिकारियों का निर्बल एवं अयोग्य होना था। राजतन्त्रीय शासन प्रणाली में राज्य की सफलता एवं विफलता उसके शासक की योग्यता पर निर्भर करती है। अशोक के उत्तराधिकारियों के अयोग्य होने पर उनका पतन स्वाभाविक ही था। इस सन्दर्भ में विद्वान इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है, "सत्य यह है कि साम्राज्य अपने विधान की दुर्बलताओं के फलस्वरूप नष्ट हुआ। शासक अपने व्यक्तिगत गुण विरासत में अपने उत्तराधिकारियों को नहीं दे सकता। अशोक के बाद मौर्य सिंहासन पर बहुत छोटे स्तर के व्यक्ति आये, जो उसके महान व्यक्तित्व की संयोजक शक्ति के हट जाने पर इतने विस्तृत साम्राज्य को एक सूत्र में बाँधकर न रख सके।" इसी प्रकार डॉ. रोमिला थापर ने भी अशोक के उत्तराधिकारियों को मौर्यों के पतन का प्रमुख कारण माना है।
(2) केन्द्रीय शासन की निर्बलता- अशोक के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण केन्द्रीय शासन निर्बल हो गया था। केन्द्रीय शासन की निर्बलता का लाभ उठाकर मौर्य साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित करनी प्रारम्भ कर दी थी। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी से स्पष्ट है कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके एक पुत्र जलौक ने कश्मीर में अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था। इसी प्रकार तारानाथ के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि वीरसेन नामक एक अन्य राजपुत्र ने गान्धार पर स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लिया था।
(3) साम्राज्य का विभाजन- कुछ विद्वान इतिहासवेत्ताओं का विचार है कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य का दो भागों में विभाजन भी मौयों के पतन के लिए उत्तरदायी था। इनके अनुसार साम्राज्य के पूर्वी भाग पर दशरथ तथा पश्चिमी प्रदेश पर कुणाल का अधिकार था। इस प्रकार के विभाजन से मौर्य साम्राज्य की शक्ति निर्बल हो गयी थी। सही सन्दर्भ में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य की शक्ति नष्ट हो चूकी थी और जब तफान उठा, तब उसके प्रान्त शीघ्र ही तितर-बितर हो गये।"
विद्वान इतिहासकार डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने भी साम्राज्य के विभाजन को मौयों के पतन का प्रमुख कारण माना है ।
(4) प्रान्तीय शासकों के अत्याचार- ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मौर्य साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों का शासन सन्तोषजनक नहीं था। प्रान्तीय शासक बहुधा प्रजा का उत्पीड़न करते थे। प्रान्तीय प्रजा ने समय-समय पर अपने शासकों के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर विद्रोह किए। बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यावदान' में इस प्रकार के दो विद्रोहों का उल्लेख है। दिव्यावदान के अतिरिक्त अशोक के कलिंग अभिलेख में भी राजकीय कर्मचारियों द्वारा प्रजा का उत्पीड़न के किए जाने का उल्लेख है। इस प्रकार राजकीय कर्मचारियों के अत्याचारों से पीड़ित जनता मौर्य शासन के विरुद्ध हो गयी। विद्वान इतिहासकार डॉ.राधाकुमुद मुखर्जी ने प्रांतीय शासकों के अत्याचारपूर्ण शासन और तत्जनित जन-विद्रोह को मौर्य वंश के पतन का मुख्य कारण माना है।
(5) अत्याचारी शासक- प्रान्तीय शासकों के अतिरिक्त अशोक के अनेक उत्तराधिकारी भी अत्यंत अत्याचारी थे। 'गार्गी संहिता' में मौर्य शासक शालिशुक के विषय में लिखा है की वह निरंकुश व अत्याचारी शासक था, वह कथन में सदाचारी और व्यवहार में पूर्णतः दुराचारी था। अतः ऐसे शासकों का विरोध होना स्वाभाविक था।
(6) दरबार के षड्यन्त्र- मौर्य दरबार के सदस्य भी अनेक गुटों में विभक्त थे तथा पारस्परिक षड्यन्त्रों में रत् रहते थे । ये लोग अपने निहित स्वार्थों में रत् रहने के कारण राष्ट्रीय हितों को भूल जाते थे। विभिन्न षड्यन्त्रों के कारण मौर्य साम्राज्य को अनेक बार कठिनाई के सामना करना पड़ा। 'मालविकाग्निमित्रम’ से ज्ञात होता है कि राज्य सभा में भी दो दल अपनी-अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए निरन्तर खींचातानी कर रहे थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अशोक द्वारा राजसिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास व उसके कारण हुआ गृह-युद्ध है। इसके अतिरिक्त वृहद्रथ के शासनकाल में उसके सेनापति पुष्यमित्र द्वारा वृहद्रथ की हत्या करना, दरबार
में होने वाले षड्यन्त्रों का दूसरा प्रमुख प्रमाण है। इस प्रकार दरबार में व्याप्त गुटबन्दी ने नि:सन्देह मौर्यों के पतन में सहयोग दिया।
(7) विदेशी आक्रमण- मौयों के पतन का एक अन्य कारण विदेशी आक्रमण थे। मध्य व पश्चिमी एशिया के जिन यूनानियों को अशोक ने अपना मित्र व शान्तिवादी बनाने का प्रयास विशृंखलित पाते ही आक्रमण कर दिया। शालिशुक के शासनकाल में ही यवनों ने भारत पर आक्रमण की तैयारी प्रारम्भ कर दी थी तथा उसके पश्चिमी द्वारों को खटखटाने लगे थे। इस सन्दर्भ में विद्वान इतिहासकार डॉ. डी. आर.भण्डारकर ने लिखा है, "अशोक की मृत्यु को 25 वर्ष भी नहीं हुए थे कि भारत के उत्तरी-पश्चिमी आकाश पर काले बादल छाने लगे तथा यूनानी आक्रमणकारियों ने हिन्दुकुश को पार कर लियाजो मौयों की उत्तरीपश्चिमी सीमा था; और उस मौर्य साम्राज्य का ह्रास होने लगा, जो किसी समय एक महान साम्राज्य था।"
(8) अशोक की अहिंसात्मक नीति- विद्वान इतिहासकार डॉ. राय चौधरी ने अशोक की अहिंसात्मक नीति की आलोचना करते हुए लिखा है, "अशोक ने इस नीति को इतने उत्साह और दृढ़ संकल्प के साथ अपनाया कि सैनिक दृष्टिकोण से राष्ट्र एकदम दुर्बल हो गया।" अशोक की यह नीति प्रत्यक्ष रूप से उसकी मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य के तीव्र विघटन के लिए उत्तरदायी थी। अशोक की अहिंसा की नीति न केवल सैनिक अवनति का कारण बनी, अपितु इसने सम्राट की नियन्त्रण शक्ति को भी कम कर दिया।
यद्यपि उपरोक्त कथन को पूर्णतः सत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने हिंसा का पूर्णतः त्याग नहीं किया था। परन्तु फिर भी उसकी अहिंसात्मक नीति से मौर्य साम्राज्य कमजोर अवश्य हुआ था।
(9) आर्थिक कारण- कुछ इतिहासकारों ने मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था को मौयों के पतन के लिए उत्तरदायी माना है। विद्वान इतिहासकार प्रो. आर.डी. कोशाम्बी का मत है, "उत्तरकालीन मौर्यों के समय में अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। इसी कारण नये-नये कर लगाये गये थे और करों की अधिकता से प्रजा में अवश्य ही रोष उत्पन्न हुआ होगा।"
(10) ब्राह्मण प्रतिक्रिया- मौर्य साम्राज्य के पतन का यह कारण सूक्ष्म किन्तु गम्भीर था। महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री ने इस विषय में लिखा है, "पुष्यमित्र का विद्रोह अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति व उसके उत्तराधिकारियों को जैन-मत के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति व उसके प्रति ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया का परिणाम था। " इस कथन के समर्थन में अनेक तर्कों के आधार पर हर प्रसाद शास्त्री ने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की है कि ब्राह्मण प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप ही मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ था।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि मौर्य वंश का पतन आकस्मिक नहीं था और न ही कोई एक कारण उसे कमजोर बना रहे थे तथा एक समय ऐसा आया, जब इन कारणों ने संयुक्त रूप से मौर्य साम्राज्य को समाप्त कर दिया।
अशोक का धम्म (Asholka's Dhamma)
अशोक ने अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान हेतु जिन आचार-विचारों को प्रस्तुत किया था, उसे उसके अभिलेखों में ‘धम्म' कहा गया है। अशोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म था, परन्तु अपनी प्रजा के नैतिक तथा आध्यात्मिक स्तर को उन्नत बनाने के लिए उसने जिस धर्म पर जोर दिया और उसका प्रचार किया, उसे अभिलेखों में धम्म की संज्ञा दी गई है।अशोक ने धम्म सम्बन्धी सिद्धान्त को अपने अभिलेखों में अभिव्यक्त किया । अशोक ने अपने प्रथम शिलालेख में लिखा है, "यज्ञ अथवा भोजन के लिए पशुओं की हत्या न करना ही उचित है।” धम्म के एक अन्य सिद्धान्त जिस पर अशोक ने बहुत जोर दिया था, वह था, माता-पिता, गुरु व बड़े बुजुर्गों का उचित आदर करना। मित्र, पड़ौसी और जाति सम्बन्धियों के साथ सम्यक् व्यवहार करना भी धम्म का मुख्य सिद्धान्त था। अपने सप्तम् शिलालेख में अशोक ने संयम, भाव शुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़ भक्ति पर जोर दिया है। इसी प्रकार अशोक के सप्तम स्तम्भ लेख में मोद (प्रसन्नता) और साधुता (सज्जनता) पर जोर दिया गया है। इस प्रकार उसके धम्म प्रचार का मुख्य उद्देश्य समाज में शान्ति और सौहार्द्र की वृद्धि करना था, क्योंकि राष्ट्र की उन्नति के लिए सामाजिक जीवन को उन्नत बनाना जरूरी था।
अशोक का धम्म मानव मात्र के कल्याण तक ही सीमित न था, वह तो प्राणी मात्र को सुख पहुँचाना चाहता था। इसीलिए उसने छायादार वृक्ष लगवाए ताकि मनुष्यों और पशुओं दोनों को सुख मिल सके। इसलिए उसने पशु हत्या का निषेध किया और पशुओं के लिए भी चिकित्सालय स्थापित कराए। अशोक की मुख्य विशेषता इस बात में है कि उसने जिस धम्म का प्रचार किया, उसका स्वयं अपने जीवन में भी व्यवहार किया। इसके अतिरिक्त उसने अपने उत्तराधिकारियों को भी इसी धम्म का अनुसरण करने की सम्मति दी।
अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का प्रसार (Expansion of Buddhlsm by Ashoka)
प्राचीन भारत के इतिहास में मौर्य सम्राट अशोक का इसलिए भी उल्लेख है कि उसने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में सर्वाधिक योगदान दिया। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी ने लिखा है, "अशोक केवल महान् समर विजेता ही न था, बल्कि विद्वान भिक्षुओं के साथ वह धर्म की सूक्ष्म बातों की चर्चा भी कर सकता था। उसने धर्म-प्रचार के ऐसे कार्य किए जो तीन महाद्वीपों तक फैले हुए थे.............और जिसके कारण गंगा घाटी का सम्प्रदाय (बौद्ध धर्म) संसार के महान धर्म में बदल गया।” अशोक ने बौद्ध धर्म का विशेष प्रचार-प्रसार ही नहीं किया,वरन अन्य धर्मों के श्रेष्ठ गुणों को भी बौद्ध धर्म में समाहित कर उसने अपनी प्रजा को उनका अनुसरण करने का उपदेश दिया। अशोक ने धर्म के लिए बौद्ध प्रचारप्रसार निम्नांकित कार्य किए-(1) बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को आचरण में लाना—अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सर्वप्रथम स्वयं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का पालन उचित ढंग से किया, उसने स्वयं माँस खाना तथा शिकार करना छोड़ दिया। उसने यद्ध न करने का भी संकल्प किया तथा अन्त तक निभाया। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 9वें वर्ष में बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया था। वह बौद्ध संघ का सदस्य बन गया तथा भिक्षु की भाँति सादा जीवन व्यतीत करने लगा।
(2) बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित करना- बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के पश्चात अशोक ने बौद्ध धर्म को राजकीय धर्म घोषित कर दिया तथा समस्त राजकीय साधनों को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। इससे प्रजा बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगी।
(3) धर्म महामात्रों की नियुक्ति- बौद्ध धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने धर्म महामात्रों की नियुक्तियाँ की। धर्म-महामात्रो का प्रमुख कार्य जनता में धर्म के सिद्धांतों का प्रचार कर लोगों को चरित्रवान बनाना था।
(4) धर्म यात्राएँ - अशोक ने अपनी आमोद-प्रमोद के उदेश्य से की जाने वाली यात्राएं समाप्त कर दीं, इनके स्थान पर वह धर्म यात्राएँ करने लगा। इन धर्म यात्राओं के उद्देश्य के विषय में अशोक ने अपने 8वें शिलालेख में लिखा है , कि इनका उद्देश्य ब्राह्मण व् श्रमण साधुओं का दर्शन और उन्हें उपहार-दान, वृद्धों दर्शन और उन्हें स्वर्ण-वितरण तथा जनपद के लोगों से मिलना, उन्हें धर्म सम्बन्धी उपदेश देना और उनसे धर्म सम्बन्धी प्रश्न करना व उनके उत्तर देना था।
(5) धार्मिक सिद्धान्तों को शिलाओं और स्तम्भों आदि पर अंकित करना- बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को अपने साम्राज्य में विभिन्न स्थानों पर उत्कीर्ण कराया, जिससे कि सभी इन्हें पढ़ सकें और इनके अनुकूल आचरण कर सकें।
(6) जनसाधारण की भाषा का प्रयोग - महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेशों को जनसाधारण द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली पाली भाषा दिया था, जिससे जनता इन्हें सुगमता से ग्रहण कर सकी। इसीलिए अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार पाली भाषा में किया, जो उस समय जनसाधारण की भाषा थी। इससे बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ।
(7) सदआचरण तथा धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर बल देना- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ सद्आचरण तथा धर्म के व्यावहारिक पक्ष पर भी बल दिया। उसने कर्मकाण्डों, आडम्बरों तथा अनैतिक सिद्धान्तों आलोचना की तथा नैतिक व्यवहार पर बल दिया। अशोक का कथन था कि मनुष्य का सबसे प्रमुख कर्तव्य माता-पिता की सेवा करना है; मित्रों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा श्रमिकों के प्रति उदार बनना है; जीवों की हत्या न करना और थोड़ा धन संग्रह और उसी के अनुसार थोड़ा व्यय करना मनुष्य का धर्म है।
(8) बौद्ध मठों, स्तूपों व विहारों का निर्माण- बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने अनेक मठों, स्तूपों व विहारों का निर्माण करवाया । इन मठों, स्तूपों व विहारों में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ निवास करते थे व धर्मोपदेश देते थे, जिससे बौद्ध धर्म का प्रचार होता था।
(9) लोककल्याणकारी कायों का आयोजन- अशोक धर्म को व्यावहारिक रूप देना चाहता था। अतः इस उद्देश्य से उसने लोककल्याणकारी कार्य कराए। अपने 7वें स्तम्भ लेख में अशोक ने कहा है, "मार्गों पर मैंने बरगद के वृक्ष लगवा दिए हैं उनसे मनष्यों व पशुओं को छाया मिलेगी। मैने आमों के बाग लगवाए हैं। प्रत्येक आठ कोस पर मैंने कुंए खुदवाए हैं और विश्रामगृह बनवाए हैं। मनुष्यों और पशुओं के सुख के लिए मैने विभिन्न स्थानों पर प्याऊ लगवाई है........... मैने यह इस अभिप्राय किया है कि लोग धर्म का आचरण करें।" इस प्रकार अशोक ने लोककल्याणकारी कायों के द्वारा भी बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
(10) तृतीय बौद्ध-संगीति का आयोजन- अशोक के शासनकाल में तृतीय बौद्ध-संगीति का पाटलिपुत्र में आयोजन किया गया। इस बौद्ध-संगीति के अध्यक्ष मुगलिपुत्त तिष्य थे। इस बौद्ध-संगीति में बौद्ध संघ में उत्पन्न दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया, जिससे बौद्ध धर्म की उन्नति की गति तीव्र हो गयी।
(11) अहिंसा का प्रचार- बौद्ध धर्म के प्रमुख सिद्धान्त अहिंसा का अशोक ने प्रचार व पालन किया। उसने अनेक पशु-पक्षियों की हत्या करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। पशु-पक्षियों की हत्या प्रतिबन्धित करने के आदेश के द्वारा चिरकाल से चली आ रही यज्ञ में पशुओं की आहुति देने की प्रथा को भी निषेध कर दिया गया।
(12) दान व्यवस्था- बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार करने के लिए अशोक ने दान व्यवस्था को विशेष महत्व प्रदान किया। असहाय, दीन-दुखियों, निर्धनों तथा रोगियों को राज्य की ओर से दान देने की व्यवस्था प्रारम्भ की गई। अनेक राजकीय संस्थाएँ असहायों को दान देने के साथ-साथ धर्म प्रचार का कार्य भी करती थीं।
(13) धर्म-श्रवण की व्यवस्था- बौद्ध धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के साथ-साथ उसके व्यापक प्रसार के लिए अशोक ने धर्म श्रवण की व्यवस्था की । इस व्यवस्था में धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए प्रवचन तथा धार्मिक सम्भाषण दिए जाते थे। अशोक के सातवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि वह समय-समय पर अपनी प्रजा को धार्मिक सन्देश देता था। अशोक जनता से सीधे सम्पर्क कर धार्मिकता का उपदेश देकर तथा उनकी आध्यात्मिक उन्नति के बारे में प्रश्न पूछकरधर्म का प्रचार करता था। राजा द्वारा स्वयं उपदेश देने से प्रजा के मन पर निश्चित रूप से गम्भीर प्रभाव पड़ता होगा तथा इससे धर्म की तीव्र उन्नति हुई होगी ।
(14) बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार- अशोक ने भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार करने के अतिरिक्त विदेशों में भी बौद्ध धर्म का प्रसार करने का प्रयास किया। उसने लंका, नेपाल, मिस्र, सीरिया, बर्मा आदि देशों में बौद्ध प्रचारक भेजे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि लंका में तो अशोक ने स्वयं अपने पुत्र महेन्द्र व पुत्री संघमित्रा को भेजा था। इसके परिणामस्वरूप दूर-दूर तक बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार केवल भारत में ही नहीं वरन विदेशों में भी कराया। इसके साथ ही अशोक ने अपनी प्रजा का अपने उपदेशों द्वारा नैतिक उत्थान कर मानव मात्र का कल्याण किया ।
अशोक के अभिलेख ( Inscriptions of Ashoka)
अशोक ने अपने शासनकाल में जगहजगह अभिलेखों को अंकित कराया। उसने विभिन्न स्थानों पर शिलाओं तथा स्तम्भों पर अपने विचारों को लिखवाया। उसके द्वारा स्थापित शिला-अभिलेख और स्तम्भ-अभिलेख उसके धम्म प्रचार का साधन भी थे। अशोक द्वारा लिखवाये गए अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं, लेकिन कुछ अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि व आरमेइक लिपि को भी प्रयोग किया गया है। सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सफलता हासिल की थी। अशोक द्वारा लिखवाये गये अभिलेखों को हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं, जिनका वर्णन अग्रांकित है-(1) चौदह शिलालेख - अशोक द्वारा शिलालेखों पर लिखवाये गए ये अभिलेख शाहबाजगढ़ी (पेशावर), मनसेहरा (हजारा), कालसी (देहरादून), गिरनार (काठियावाड़), सोपरा (ठाणे, महाराष्ट्र), धौली (उड़ीसा), जौगढ़ (उड़ीसा) और एरागुड़ी (कुर्नूल) नामक स्थानों पर पाए गए है। इन शिलालेखों की कुल संख्या चौदह है।
(2) लघु-शिलालेख - अशोक द्वारा लिखवाये गए लघु-शिलालेख रूपनाथ (जबलपुर), गुजर्रा (दतिया), सहसराम (शाहबाद, बिहार), भाब्रू (जयपुर), मास्की (रायपुर), ब्रह्मागिरी (मैसूर), सिद्धपुर (मैसूर), जतिंग रामेश्वर (मैसूर), एरागुडी (कुर्नूल), गोविमठ (मैसूर), पालकिगुण्ड (मैसूर), राजुल मांडगिरि (कुर्नूल), अहरौरा (मिर्जापुर), सारो-मारो (शहडोल, मध्य प्रदेश), नेन्नुर (मैसूर) में पाए गए है।
(3) स्तम्भ-अभिलेख- अशोक के स्तम्भ-अभिलेखों की संख्या सात है। ये स्तम्भ अभिलेख पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण कराये गये हैं। ये स्तम्भ अभिलेख मूल रूप से सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) , मेरठ (उत्तर प्रदेश), लोरिया अरराज (बिहार), लौरिया नन्दनगढ़ (बिहार), रामपुरपा (बिहार) तथा कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश) में स्थित थे।
(4) लघु स्तम्भ अभिलेख- अशोक की राजकीय घोषणाएँ जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण है, उन्हें साधारण तौर से लघु स्तम्भ अभिलेख कहा जाता है। ये लघु स्तम्भ अभिलेख साँची, सारनाथ, रुम्मिनदेई (नेपाल), कौशाम्बी व निग्लीवा (नेपाल) नामक स्थानों पर पाये गये हैं।
अशोक का मूल्यांकन एवं उसकी महानता के कारण (Evaluation of Asholaand the causes of his Greatness)
अशोक एक महान सम्राट था। अनेक इतिहासकारों ने अशोक को संसार का महानतम सम्राट कहा है। अशोक मानव-सभ्यता का अग्रदूत, समाज-सेवक तथा प्राचीन भारतीय इतिहास का दैदीप्यमान सितारा था। उसका प्रारम्भिक जीवन चाहे कैसा भी रहा हो, लेकिन कलिंग युद्ध के बाद उसने जिस आदर्श का परिचय दिया, उससे मानवता का महान हित हुआ। अशोक बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न व्यक्ति था। उसने अपनी प्रजा के भौतिक, आध्यात्मिक तथा नैतिक उत्थान के लिए अथक प्रयत्न किए। उसने 'वसुधैवकुटुम्बकम्' की जो ज्योति जलाई,वह आज भी विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत है। इसीलिए अशोक को महान सम्राट कहा जाता है। अशोक को महान सम्राट क्यों कहा जाता है? इसके लिए निम्नांकित कारण उत्तरदायी है -(1) अशोक का व्यक्तित्व एवं आदर्शवादिता- अशोक बचपन से ही अत्यन्त योग्य एवं मेधावी था। बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि प्रारम्भिक जीवन में अशोक अत्यन्त क्रूर था तथा उसने यातना-गृह का भी निर्माण कराया था, यद्यपि बौद्ध साहित्य का वर्णन सन्देहास्पद है, किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं है कि कलिंग-युद्ध के पश्चात् उसकी विचारधारा और व्यक्तित्व में आकस्मिक परिवर्तन हुआ। उसके व्यक्तित्व में हुए परिवर्तन ने ही उसे विश्व का महानतम सम्राट बना दिया। अशोक ने हिंसा के स्थान पर अहिंसा का सहारा लिया तथा वह युद्ध विजेता के स्थान धम्म-विजेता बन गया। कलिंग युद्ध के पश्चात् अशोक का जीवन सरल, पवित्र, त्यागमयी व आदर्शमयी हो गया।
अशोक एक महान आदर्शवादी सम्राट था। अशोक ने सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्रों में महान् आदर्शों का पालन किया। अशोक ने सामाजिक क्षेत्र में जनकल्याण के कार्यों को करते हुए समाज को सुख एवं समृद्धि के पथ पर अग्रसारित किया। अशोक ने धार्मिक क्षेत्र में उदारता एवं सहिष्णता का परिचय दिया। अशोक ने राजनीतिक क्षेत्र में भी उच्च आदर्शवादी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया। ऐसे उच्च आदर्शों का पालन करके अशोक का महान बनना स्वाभाविक ही था।
(2) महान् शासक- अशोक की गणना विश्व के महानतम शासकों में की जाती है। अशोक ने प्रशासकीय क्षेत्र में जिस त्याग, बलिदान, दानशीलता तथा उदारता का परिचय दिया और मानव को अपना नैतिक स्तर ऊंचा उठाने की प्रेरणा दी, वैसा विश्व के इतिहास में हमें कहीं और देखने को नहीं मिलता है। अशोक ने शासन को कुशल व सुचारु बनाने के लिए प्रशासनिक व्यवस्था में अनेक सुधार किए तथा 'धर्म-महामात्रों' की नियुक्ति की। इसके अतिरिक्त अशोक ने 'राजकों को भी नियुक्त किया। 'राजकों' को नियुक्त करने के उद्देश्य के विषय में अशोक ने लिखा है, "जिस प्रकार अपनी संतान को एक कुशल आया को सुपुर्द कर देने के पश्चात् मनुष्य स्वयं निश्चिन्त हो जाता है, उसी मैंने भी प्रांतीय जनता के हितों के लिए इन राजुको को नियुक्त किया है।" अशोक ने अपने शासनकाल में ऐसे अनेक कार्य बन्द करा दिये जिससे प्रजा का अहित होता था। अशोक ने सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्सवों में मद्यपान, माँस-सेवन, नृत्य आदि को समाप्त कर 'धम्म-समाज' व 'धम्म-यात्रा' के महत्व को समझाया। अशोक प्रजा को अपनी सन्तान के समान ही चाहता था, इसका प्रमाण इस तथ्य से भी मिलता है कि उसने घोषणा कराई कि प्रजा के विषय में उसे किसी भी समय सूचना दी जा सकती है। अपने छठे शिलालेख में अशोक ने कहा है, "प्रत्येक समय चाहे में भोजन कर रहा होऊँ या शयनागार में हूँ, प्रतिवेदक प्रजा की दशा से मुझे अवगत करें। मैं सर्वत्र प्रजा-कार्य करूंगा ............ सब लोगों का हित करना मेरा कर्तव्य है और इसका मूल उद्योग तथा कार्य-तत्परता है।" अशोक के इन विचारों ने देश को नवजीवन एवं स्फूर्ति प्रदान की। विद्वान लेखक डॉ.व्ही.ए.स्मिथ ने लिखा है, "यदि अशोक योग्य न होता तो वह अपने विशाल साम्राज्य पर 40 वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन न कर सका होता तथा अपना ऐसा नाम न छोड़ गया होता,जिसे लोग दो हजार वर्षों के पश्चात् भी नहीं भूले हैं।"
(3) महान् विजेता- अशोक एक युद्धविजेता के रूप में उतना प्रसिद्ध नहीं है,जितना कि एक 'धम्म-विजेता' के रूप में प्रसिद्ध है कलिंग विजय के पश्चात् अशोक ने 'युद्धघोष' के स्थान पर 'धम्म-घोष’ से विजयें प्राप्त कीं। अशोक ने अन्य शासकों की भांति तलवार से नहीं वरन् शान्ति व अहिंसा के सुदृढ़ अस्त्रों से साम्राज्य विस्तार किया। विश्व इतिहास में ऐसा कोई भी अन्य उदाहरण प्राप्त नहीं होता है। निःसन्देह अशोक एक महान् विजेता था, जो रक्तपात के स्थान पर विजित व विजेता दोनों को ही ‘धम्म' से लाभान्वित करता था।
(4) उदारता एवं लोकहित कार्य- अशोक न केवल मानव वरन् सम्पूर्ण प्राणी जगत के प्रति उदारता का दृष्टिकोण रखता था। इसी कारण अशोक ने पशु-पक्षियों के वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उदारता के अतिरिक्त अशोक ने अनेक लोकहित के कार्य भी किए। अशोक ने लोकहित के लिए छायादार वृक्ष लगवाए, धर्मशालाएँ बनवाई और कुएं खुदवाए। इसके अतिरिक्त अशोक ने मनुष्यों व पशुओं के लिए उपयोगी औषधियों व औषधालयों की भी व्यवस्था की।
(5) कर्तव्यनिष्ठ शासक- अशोक में कर्तव्यनिष्ठा का प्रबल भाव था। उसका मानना था कि उसके लिए सम्पूर्ण प्रजा के कल्याण साधन से अधिक महत्व का कोई दूसरा कार्य नहीं है। अशोक का साम्राज्य काफी विशाल था, फिर भी वह उसके प्रत्येक भाग तथा प्रत्येक वर्ग की जनता से स्वयं सम्पर्क रखने को बहुत महत्व देता था। उसने घोषणा की थी, "मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ, वह उस ऋण को चुकाने के लिए है, जो सभी प्राणियों का मुझ पर है।" वह अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को भी यही कहता था कि प्रजा की समुचित रक्षा करना उनका धर्म है। अशोक के सन्दर्भ में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "उसको अपने कर्तव्य का गहरा ध्यान रहता था, जिस कारण उसने अपने पद और स्थान से सम्बन्धित सुख तक को त्याग दिया। हर घड़ी व् हर स्थान पर शासन का कार्य और प्रजा के कल्याण संपन्न करने को वह तत्पर रहता था। अपने साम्राज्य के समस्त साधन उसने मनुष्य-मात्र के दुःखमोचन व् अपने धम्म के प्रचार लिए लगा दिए। "
(6) राष्ट्रीय एकता प्र5दान करना- चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा भारत को एक राजनीतिक सूत्र में बांधने के प्रयत्न को अशोक ने पूर्ण किया। अशोक ने धर्म प्रचार के लिए जो महान प्रयत्न किए, उससे एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में सम्प्रेषण अधिक तीव्र हो गया। परिणामतः सम्पूर्ण देश में एक ऐसी सामान्य भाषा की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, जो न केवल धार्मिक मामलों में बल्कि आचार-व्यवहार में भी विचार-विनिमय का माध्यम बन सके। अतः अशोक ने सम्पूर्ण देश में एक ही भाषा का प्रयोग करने का आदेश दिया। इस प्रकार पाली भारत की राष्ट्र बन गई। अशोक ने भाषा के अतिरिक्त अन्य सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के द्वारा भी राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ता प्रदान की।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अशोक नि:सन्देह एक महान शासक था। उसका चरित्र महान था और उसके आदर्श विश्व की महत्वपूर्ण आध्यात्मिक पूंजी है। डॉ. राधकुमुद मुखर्जी ने लिखा है, "राजाओं के इतिहास में मनुष्य और शासक के रूप में किसी के रिकॉर्ड की तुलना अशोक से नहीं की जा सकती है।" अशोक ने अहिंसा के सिद्धान्त का उस समय यदों में हिंसा आदि का नियम था। विद्वान इतिहासकार डॉ. रायचौधरी ने अशोक की प्रशंसा करते हुए लिखा है, "अशोक भारतीय इतिहास के सर्वाधिक रोचक व्यक्तियों में से एक है। वह चन्द्रगुप्त के समान प्रबल, समुद्रगुप्त के समान प्रतिभा सम्पन्न व अकबर के समान निष्पक्ष था। अपने में वह अथक तथा उत्साह में सुदृढ़ था। उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति प्रजा की आध्यात्मिक तथा भौतिक उन्नति के लिए लगा दी, जिसे (प्रजा) वह अपने बच्चों के समान समझाता था।"
अशोक के उत्तराधिकारी (Successor of Ashoka)
अशोक की मृत्यु 232 ई. पू. में हुई। उसके बाद लगभग 50 वर्ष तक उसके अनेक उत्तराधिकारियों ने शासन किया। अशोक के उत्तराधिकारियों के बारे में हमारा ज्ञान अपर्याप्त और अनिश्चित है। विभिन्न पुराण, बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में अशोक के इन उत्तराधिकारियों के नामो की जो सूची दी गई है, वे एक-दूसरे से मेल नहीं खाती। लेकिन इतना निश्चित है कि अशोक के उत्तराधिकारियों में ऐसा योग्य कोई नहीं हुआ, जो इतने परिश्रम से निर्मित साम्राज्य की रक्षा कर पाता। कुणाल, दशरथ, सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन, शतधनुष और वृहद्रथ मौर्य वंश के उत्तरकालीन शासक माने गए हैं। मौर्य वंश का अन्तिम शासक वृहद्रथ था, वह अत्यंत अयोग्य और विलासी प्रवृत्ति का व्यक्ति था। वृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर 184 ई. पू. में उसकी हत्या कर दी और मगध में एक नवीन राजवंश की नींव डाली, जिसे शुंग राजवंश के नाम से जाना गया।इस प्रकार 184 ई.पू. में मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण (CAUSES OF THE DECLINE OF MAURYAN EMPIRE)
चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य को अशोक ने उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचाया, परंतु अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य का पतन शीघ्र ही हो गया। अन्य वंशो के पतन के समान ही मौर्य वंश का पतन न तो आकस्मिक था और न ही कोई एक कारण उसके लिया उत्तरदायी था। विद्वान इतिहासवेत्ता डॉ. रोमिला थापर ने मौर्यों के पतन केे लिए उत्तरदायी कारणों के विषय में लिखा है, "मौर्य साम्राज्य के पतन की सतोषजनक व्याख्या सैनिक अकर्मण्यता, ब्राह्मण, सार्वजनिक विद्रोह या आर्थिक दबाव के आधार पर नहीं की जा सकती। कारण कहीं अधिक मूलभूत थे और इनमें उपयुक्त कारणों से कहीं अधिक मौर्य जीवन का विस्तृत परिप्रेक्ष्य सम्मिलित। "(1) निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारी- मौर्यों के पतन के लिए उत्तरदायी कारणों में सर्वप्रथम अशोक के उत्तराधिकारियों का निर्बल एवं अयोग्य होना था। राजतन्त्रीय शासन प्रणाली में राज्य की सफलता एवं विफलता उसके शासक की योग्यता पर निर्भर करती है। अशोक के उत्तराधिकारियों के अयोग्य होने पर उनका पतन स्वाभाविक ही था। इस सन्दर्भ में विद्वान इतिहासकार डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी ने लिखा है, "सत्य यह है कि साम्राज्य अपने विधान की दुर्बलताओं के फलस्वरूप नष्ट हुआ। शासक अपने व्यक्तिगत गुण विरासत में अपने उत्तराधिकारियों को नहीं दे सकता। अशोक के बाद मौर्य सिंहासन पर बहुत छोटे स्तर के व्यक्ति आये, जो उसके महान व्यक्तित्व की संयोजक शक्ति के हट जाने पर इतने विस्तृत साम्राज्य को एक सूत्र में बाँधकर न रख सके।" इसी प्रकार डॉ. रोमिला थापर ने भी अशोक के उत्तराधिकारियों को मौर्यों के पतन का प्रमुख कारण माना है।
(2) केन्द्रीय शासन की निर्बलता- अशोक के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण केन्द्रीय शासन निर्बल हो गया था। केन्द्रीय शासन की निर्बलता का लाभ उठाकर मौर्य साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित करनी प्रारम्भ कर दी थी। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी से स्पष्ट है कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् उसके एक पुत्र जलौक ने कश्मीर में अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था। इसी प्रकार तारानाथ के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि वीरसेन नामक एक अन्य राजपुत्र ने गान्धार पर स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लिया था।
(3) साम्राज्य का विभाजन- कुछ विद्वान इतिहासवेत्ताओं का विचार है कि अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य का दो भागों में विभाजन भी मौयों के पतन के लिए उत्तरदायी था। इनके अनुसार साम्राज्य के पूर्वी भाग पर दशरथ तथा पश्चिमी प्रदेश पर कुणाल का अधिकार था। इस प्रकार के विभाजन से मौर्य साम्राज्य की शक्ति निर्बल हो गयी थी। सही सन्दर्भ में डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने लिखा है, "अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य की शक्ति नष्ट हो चूकी थी और जब तफान उठा, तब उसके प्रान्त शीघ्र ही तितर-बितर हो गये।"
विद्वान इतिहासकार डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार ने भी साम्राज्य के विभाजन को मौयों के पतन का प्रमुख कारण माना है ।
(4) प्रान्तीय शासकों के अत्याचार- ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मौर्य साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तों का शासन सन्तोषजनक नहीं था। प्रान्तीय शासक बहुधा प्रजा का उत्पीड़न करते थे। प्रान्तीय प्रजा ने समय-समय पर अपने शासकों के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर विद्रोह किए। बौद्ध ग्रन्थ 'दिव्यावदान' में इस प्रकार के दो विद्रोहों का उल्लेख है। दिव्यावदान के अतिरिक्त अशोक के कलिंग अभिलेख में भी राजकीय कर्मचारियों द्वारा प्रजा का उत्पीड़न के किए जाने का उल्लेख है। इस प्रकार राजकीय कर्मचारियों के अत्याचारों से पीड़ित जनता मौर्य शासन के विरुद्ध हो गयी। विद्वान इतिहासकार डॉ.राधाकुमुद मुखर्जी ने प्रांतीय शासकों के अत्याचारपूर्ण शासन और तत्जनित जन-विद्रोह को मौर्य वंश के पतन का मुख्य कारण माना है।
(5) अत्याचारी शासक- प्रान्तीय शासकों के अतिरिक्त अशोक के अनेक उत्तराधिकारी भी अत्यंत अत्याचारी थे। 'गार्गी संहिता' में मौर्य शासक शालिशुक के विषय में लिखा है की वह निरंकुश व अत्याचारी शासक था, वह कथन में सदाचारी और व्यवहार में पूर्णतः दुराचारी था। अतः ऐसे शासकों का विरोध होना स्वाभाविक था।
(6) दरबार के षड्यन्त्र- मौर्य दरबार के सदस्य भी अनेक गुटों में विभक्त थे तथा पारस्परिक षड्यन्त्रों में रत् रहते थे । ये लोग अपने निहित स्वार्थों में रत् रहने के कारण राष्ट्रीय हितों को भूल जाते थे। विभिन्न षड्यन्त्रों के कारण मौर्य साम्राज्य को अनेक बार कठिनाई के सामना करना पड़ा। 'मालविकाग्निमित्रम’ से ज्ञात होता है कि राज्य सभा में भी दो दल अपनी-अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए निरन्तर खींचातानी कर रहे थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अशोक द्वारा राजसिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास व उसके कारण हुआ गृह-युद्ध है। इसके अतिरिक्त वृहद्रथ के शासनकाल में उसके सेनापति पुष्यमित्र द्वारा वृहद्रथ की हत्या करना, दरबार
में होने वाले षड्यन्त्रों का दूसरा प्रमुख प्रमाण है। इस प्रकार दरबार में व्याप्त गुटबन्दी ने नि:सन्देह मौर्यों के पतन में सहयोग दिया।
(7) विदेशी आक्रमण- मौयों के पतन का एक अन्य कारण विदेशी आक्रमण थे। मध्य व पश्चिमी एशिया के जिन यूनानियों को अशोक ने अपना मित्र व शान्तिवादी बनाने का प्रयास विशृंखलित पाते ही आक्रमण कर दिया। शालिशुक के शासनकाल में ही यवनों ने भारत पर आक्रमण की तैयारी प्रारम्भ कर दी थी तथा उसके पश्चिमी द्वारों को खटखटाने लगे थे। इस सन्दर्भ में विद्वान इतिहासकार डॉ. डी. आर.भण्डारकर ने लिखा है, "अशोक की मृत्यु को 25 वर्ष भी नहीं हुए थे कि भारत के उत्तरी-पश्चिमी आकाश पर काले बादल छाने लगे तथा यूनानी आक्रमणकारियों ने हिन्दुकुश को पार कर लियाजो मौयों की उत्तरीपश्चिमी सीमा था; और उस मौर्य साम्राज्य का ह्रास होने लगा, जो किसी समय एक महान साम्राज्य था।"
(8) अशोक की अहिंसात्मक नीति- विद्वान इतिहासकार डॉ. राय चौधरी ने अशोक की अहिंसात्मक नीति की आलोचना करते हुए लिखा है, "अशोक ने इस नीति को इतने उत्साह और दृढ़ संकल्प के साथ अपनाया कि सैनिक दृष्टिकोण से राष्ट्र एकदम दुर्बल हो गया।" अशोक की यह नीति प्रत्यक्ष रूप से उसकी मृत्यु के पश्चात् साम्राज्य के तीव्र विघटन के लिए उत्तरदायी थी। अशोक की अहिंसा की नीति न केवल सैनिक अवनति का कारण बनी, अपितु इसने सम्राट की नियन्त्रण शक्ति को भी कम कर दिया।
यद्यपि उपरोक्त कथन को पूर्णतः सत्य स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अशोक के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने हिंसा का पूर्णतः त्याग नहीं किया था। परन्तु फिर भी उसकी अहिंसात्मक नीति से मौर्य साम्राज्य कमजोर अवश्य हुआ था।
(9) आर्थिक कारण- कुछ इतिहासकारों ने मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था को मौयों के पतन के लिए उत्तरदायी माना है। विद्वान इतिहासकार प्रो. आर.डी. कोशाम्बी का मत है, "उत्तरकालीन मौर्यों के समय में अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त थी। इसी कारण नये-नये कर लगाये गये थे और करों की अधिकता से प्रजा में अवश्य ही रोष उत्पन्न हुआ होगा।"
(10) ब्राह्मण प्रतिक्रिया- मौर्य साम्राज्य के पतन का यह कारण सूक्ष्म किन्तु गम्भीर था। महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री ने इस विषय में लिखा है, "पुष्यमित्र का विद्रोह अशोक की बौद्ध धर्म के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति व उसके उत्तराधिकारियों को जैन-मत के प्रति पक्षपातपूर्ण नीति व उसके प्रति ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया का परिणाम था। " इस कथन के समर्थन में अनेक तर्कों के आधार पर हर प्रसाद शास्त्री ने यह प्रमाणित करने की चेष्टा की है कि ब्राह्मण प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप ही मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ था।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि मौर्य वंश का पतन आकस्मिक नहीं था और न ही कोई एक कारण उसे कमजोर बना रहे थे तथा एक समय ऐसा आया, जब इन कारणों ने संयुक्त रूप से मौर्य साम्राज्य को समाप्त कर दिया।
इतिहास: बिन्दुसार - अशोक का साम्राज्य [BINDUSAR - ASHOKA]
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8:24 PM
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