गौतम बुद्ध |
बौद्ध धर्म [BUDDHISM]
महात्मा बुद्ध का जीवन परिचय [LIFE SKETCH OF MAHATMA BUDDHA]
महात्मा बद्ध के जीवन की घटनाओं का विवरण अनेक बौद्ध ग्रन्थों जैसे ललितबिस्तर, बढ़चरित, महावस्तु व सुत्तनिपात से प्राप्त होता है । महात्मा बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु के पास लम्बिनी वनों (लुम्बिनी, नेपाल की तराई में कपिलवस्तु से लगभग चौदह मील की दूरी पर स्थित है।) में 563 ई.पू. में हुआ था। महात्मा बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन था, जो शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के शासक थे। महात्मा बुद्ध की माता का नाम महामाया था, जो देवदह की राजकुमारी थी। महात्मा बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही उनकी माँ महामाया का देहान्त हो गया था, अतः उनका पालनपोषण उनकी मौसी व विमाता प्रजापति गौतमी ने किया था। महात्मा बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था (शाक्य लोग गौतम गोत्र थे, इसीलिए सिद्धार्थ को गौतम तथा गौतम बुद्ध के नाम भी के से पुकारा जाता है)।
सिद्धार्थ बचपन से ही एकान्तप्रिय, मननशील एवं दयावान प्रवृत्ति के थे। सिद्धार्थ सांसारिक दु:खों को देखकर करुणा से द्रवित हो जाते थे और इन दु:खों से मुक्ति पाने के उपायों के बारे में सोचते थे। सिद्धार्थ के इस प्रकार के स्वभाव से इनके पिता चिन्तित रहने लगे। इसीलिए उन्होंने भोग-विलास की समस्त वस्तुएँ सिद्धार्थ के चारों ओर एकत्र कर दीं, परन्तु फिर भी सिद्धार्थ का मन सांसारिक भोग-विलास की ओर आकर्षित नहीं हो सका। सांसारिक सुखों के प्रति उदासीनता के कारण इनके पिता ने 16 वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह रामग्राम के कोलिय गणराज्य की राजकुमारी यशोधरा से कर दिया। विवाह के कुछ वर्ष पश्चात् इन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम राहुल रखा गया। पुत्र -जन्म के सुअवसर पर के समस्त राज्य में खुशियाँ मनाई गई, लेकिन सिद्धार्थ ने पुत्र-जन्म का समाचार सुनकर कहा, "आज मेरे बन्धन की श्रृंखला में एक कड़ी और जुड़ गई।" यद्यपि उन्हें समस्त सुख प्राप्त थे, किन्तु उन्हें शान्ति प्राप्त नहीं थी। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ऐसे चार दृश्य देखे, जिससे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। एक दिन उन्होंने बाग को जाते समय एक वृद्ध व्यक्ति, दूसरे दिन एक रोगी व्यक्ति, तीसरे दिन एक मृत-व्यक्ति और चौथे दिन एक संन्यासी व्यक्ति को देखा। इन चार दृश्यों ने उनके मन-मस्तिष्क पर गंभीर प्रभाव डाला और उन्हें गृहस्थ जीवन से वैराग्य उत्पन्न हो गया। अतः एक रात वे अपनी पत्नी व पुत्र को सोता हुआ छोड़कर गृह त्यागकर ज्ञान की खोज में निकल पड़े।
गृह त्याग के पश्चात् सिद्धार्थ मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे, वहाँ उन्होंने अलार और उद्रक नामक दो प्रसिद्ध ब्राह्मणों से भेंट की और उनसे ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न किया, परन्तु वह उन्हें संतुष्टि नहीं हुई। तत्पश्चात् वे निरंजना नदी के किनारे उरवेल नामक वन में पहुँचे नदी के जहां उनकी पाँच ब्राह्मण तपस्वियों से भेंट हुई। इन तपस्वियों के साथ मिलकर उन्होंने कठोर तपस्या की, परन्तु इससे भी लाभ नहीं निकला। अतः समझ गए कि शरीर कष्ट देने से ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, अतः उन्होंने अन्न-जल ग्रहण करना आरम्भ कर दिया, जिसके फलस्वरूप अन्य तपस्वियों ने उनका साथ छोड़ दिया। इसके पश्चात् सिद्धार्थ गया (बिहार) पहुंचे, वहाँ उन्होंने एक वट-वृक्ष के समाधि लगायी और प्रतिज्ञा की कि जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, वे वहां से नहीं हटेंगे। सात दिन व सात रात समाधिस्य रहने के उपरान्त अठवें दिन बैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई।इस घटना को 'सम्बोधि' कहा गया, जिस वट वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, उस वट-वृक्ष को ‘बोधि वृक्ष' और गया को 'बोधगया' कहा जाने लगा। इस घटना के उपरान्त सिद्धार्थ को भी 'महात्मा बुद्ध' कहा जाने लगा।
ज्ञान प्राप्त होने से महात्मा बुद्ध ने जीवन का एक ऐसा मार्ग खोज निकाला था, जिसका पालन समय, स्थान व विद्यमान संस्कृति की परवाह किए बगैर जा सकता था। महात्मा बुद्ध ने दुखों को दूर करने व मुक्ति के मार्ग को ढूंढ़ लिया था। उनके इस मार्ग को 'मध्यम मार्ग' के नाम से जाना जाता है।
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् महात्मा बुद्ध ने सारनाथ (बनारस के निकट) पहुँचकर सर्वप्रथम अपने उन पाँच साथियों, जिन्होंने पूर्व में उनका साथ छोड़ दिया था, को उपदेश दिया। ये लोग महात्मा बुद्ध के उपदेश से बहुत प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गए। इन शिष्यों को 'पंचवर्गीय' कहा जाता है। महात्मा बुद्ध द्वारा इन शिष्यों को दिए गए उपदेशों की घटना को 'धर्म-चक्र प्रवर्तन' कहा जाता है। इसके पश्चात् उन्होंने बनारस, राजगृह, गया, नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि स्थानों पर अपने उपदेश दिए। बिम्बसार, अजातशत्रु तथा मुण्ड जैसे शासक और अनेक धनी वैश्य एवं क्षत्रिय उनके अनुयायी एवं समर्थक बन गए थे। कोशल राज्य में महात्मा बुद्ध के अनुयायियों की संख्या सर्वाधिक थी। कोशल के राजा प्रसेनजित और उसकी पत्नी मल्लिका तथा बहनें सोमा व सकुला भी महात्मा बुद्ध अनुयायी बन गई थीं।
महात्मा बुद्ध कपिलवस्तु भी गए। जहाँ उनकी पत्नी, पुत्र व अनेक शाक्यवंशीय व्यक्ति उनके शिष्य बन गए। महात्मा बुद्ध आजीवन अंग, मगघ, काशी, मल्ल, शाक्य, वज्जि और कोशल आदि सभी नगरों में घूम-घूम कर अपने विचारों को प्रसारित करते रहे। अस्सी वर्ष की अवस्था में वे घूमते हुए पावा पहुँचे, जहाँ उन्हें अतिसार रोग हो गया, इसके पश्चात् वह कुशीनगर पहुंचे, जहाँ 483 ई.पू. में वैशाख पूर्णिमा के दिन उनकी मृत्यु हो गयी । उनकी मृत्यु की घटना को 'महापरिनिर्वाण' कहा जाता है।
बौद्ध धर्म के सिद्धान्त अथवा महात्मा बुद्ध की शिक्षाएँ (Principles of Buddhism or Teachings of Mahatma Buddha)
महावीर स्वामी की भाँति महात्मा बुद्ध ने भी अपने विचारों का प्रचार मौखिक रूप से ही किया था। महात्मा बुद्ध के शिष्यों ने भी काफी समय तक उनके उपदेशों का मौखिक प्रचार ही किया। लेकिन कुछ समय पश्चात् उनके निकटतम शिष्यों ने उनके उपदेशों और वचनों का संकलन 'त्रिपिटकों' के अन्तर्गत किया। 'त्रिपिटक’, बौद्धों के पाली भाषा में लिखे गए आदि धर्मग्रन्थ माने जाते हैं। त्रिपिटक संख्या में तीन हैं - (i) विनय पिटक, (ii) सुत्त पिटक, और (iii) अभिधम्म पिटक । इन्हीं त्रिपिटकों से बौद्ध-धर्म सिद्धान्तों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
(1) चार आर्य सत्य- महात्मा बुद्ध ने सारनाथ में अपने प्रथम उपदेश में जनसाधारण को बताया कि मानव-जीवन में आदि से अन्त तक दु:ख ही दु:ख हैं। अतः दुख से मुक्ति प्राप्त करने के लिए उन्होंने चार आर्य सत्यों का प्रतिपादन किया, जिनका विवरण निम्नांकित है-
(अ) दु:ख- महात्मा बुद्ध के अनुसार व्यक्ति के जीवन में दुख ही दुख है। उनका मानना था कि क्षणिक सुखों को सुख मानना अदूरदर्शिता है।
(ब) दुख समुदय- महात्मा बुद्ध के अनुसार दु:ख का मूल कारण तृष्णा, मोह तथा माया है। इनमें सबसे अधिक घातक तृष्णा है। तृष्णा व्यक्ति को स्वार्थी बनाती है।
(स) दुःख निरोध- महात्मा बुद्ध के अनुसार दुखों से मुक्त होने के लिए उसके कारण का निवारण आवश्यक है। महात्मा बुद्ध ने दुःख निरोध को ही निर्वाण माना है। उनका मानना था कि यदि तृष्णा को समाप्त कर दिया जाय तो व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो निर्वाण प्राप्त कर सकता है ।
(द) दुख निरोध मार्ग- यह दुःखों पर विजय प्राप्त करने का मार्ग है। कोई भी व्यक्ति इस मार्ग का अनुसरण कर दुखों पर विजय प्राप्त कर सकता है। महात्मा बुद्ध ने जो मार्ग बतलाया वह 'दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपदा' के नाम से जाना जाता है। महात्मा बुद्ध का मानना है कि शारीरिक यातनाओं अथवा तपस्या द्वारा निर्वाण प्राप्त नहीं किया जा सकता है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए महात्मा बुद्ध ने जो मार्ग सुझाया,उसे 'आष्टांगिक मार्ग' कहा जाता है।
(2) आष्टांगिक मार्ग- महात्मा बुद्ध ने दुखों से मुक्ति प्राप्त करने अथवा निर्वाण प्राप्त करने के लिए आष्टांगिक मार्ग का पालन आवश्यक बताया। आष्टांगिक मार्ग के आठ अंग निम्नांकित हैं-
(अ) सम्यक-दृष्टि- मिथ्या दृष्टि को त्यागकर यथार्थ स्वरूप पर ध्यान देना ही सम्यक दृष्टि है।
(ब) सम्यक संकल्प- कामना और हिंसा से मुक्त आत्म कल्याण का पक्का निश्चय ही सम्यक् संकल्प है।
(स) सम्यक्-वाक्- सम्यक वाक् के अंतर्गत व्यक्ति को झूठ, निन्दा व अप्रिय वचन नहीं बोलने चाहिए।
(द) सम्यक्-कर्मान्त- सम्यक-कर्मान्त के अंतर्गत सभी कमरों में पवित्रता रखना, हिंसा तथा दुराचरण से बचते रहना और सत्कर्म करना आवश्यक है।
(य) सम्यक्-आजीविका- सम्यक्आजीविका के अंतर्गत व्यक्ति को जीविकोपार्जन के लिए पवित्र रास्ता चुनना चाहिए।
(र) सम्यक्-व्यायाम- इसे सम्यक् प्रयत्न भी कहते हैं। इसका अर्थ है सत्कर्मों के लिए निरंतर उद्योग करते रहना।
(ल) सम्यक्-स्मृति- सम्यक-स्मृति का तात्पर्य है- दुर्गुण भावों के प्रति सदैव अचेत रहना, सांसारिक लालसाओं और मोहों को बुद्धि में न आने देना और सदैव बुरे विचारों को दूर रखने के लिए सजग रहना है।
(व) सम्यक् समाधि- उक्त सातों नियमों का अनुसरण कर जो व्यक्ति अपनी बुरी चित्त-प्रवृत्तियों को दूर कर लेता है, वह सम्यक् समाधि का अधिकारी हो जाता है। चित्त की एकाग्रता को ही सम्यक् समाधि कहते हैं। सम्यक् समाधि प्राप्त करने पर व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
(3) मध्यम मार्ग- महात्मा बुद्ध का मानना था कि निर्वाण प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करना तथा शरीर को कष्ट देना आवश्यक नहीं है। सांसारिक विषयों में लिप्त रहकर ज्ञान प्राप्ति की जा सकती है। निर्वाण या ज्ञान प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्ग को अपनाना चाहिए।
(4) दस शील- महात्मा बुद्ध ने आचरण की पवित्रता तथा नैतिकता के लिए दस शीलों का प्रतिपादन किया। ये दस शील निम्नांकित हैं (i) अहिंसा वत का पालन करना, (ii) सदा सत्य बोलना, (iii) अस्तेय अर्थात् चोरी न करना, (iv) अपरिग्रह अर्थात् वस्तुओं का संग्रह न करना, (v) ब्रह्मचर्य अर्थात् भोग-विलास से दूर रहना, (vi) नृत्य-गायन का त्याग, (vii) सुगन्धित पदार्थों का त्याग, (viii) असमय भोजन का त्याग, (ix) कोमल शैय्या का त्याग और (x) कामिनी और कांचन का त्याग।
(5) क्षणिकवाद- महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध दर्शन क्षणिकवादी दर्शन भी महात्मा बुद्ध के अनुसार संसार क्षण-भंगुर है। संसार की वस्तुएँ सत्ता परिवर्तन के कारण बनती-बिगड़ती रहती हैं, इस कारण संसार से मोह करना व्यर्थ है।
(6) अनात्मवाद- महात्मा बुद्ध आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। महात्मा बुद्ध का मानना था कि शरीर के नष्ट हो जाने पर आत्मा नाम की कोई वास्तु शेष नहीं रह जाती है। उनका विश्वास था कि शरीर अलग-अलग तत्वों से मिलकर बना है तथा मृत्यु के पश्चात ये तत्व अलग-अलग हो जाते हैं।
(7) कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त- महात्मा बुद्ध का मानना था कि व्यक्ति जैसे कर्म करता है उसी के अनुसार वह उच्च अथवा निम्न योनि में प्रवेश करता है। यदि वह अच्छे कर्म करता है तो उसे दुखों से मुक्ति मिल जाती है अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और यदि बुरे कर्म करता है तो उसे बार-बार विभिन्न योनियों में जन्म लेकर अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते है।
(8) अनीश्वरवाद- कुछ विद्वानों का मानना है कि महात्मा बुद्ध ईश्वर के अस्तित्व भी स्वीकार नहीं करते थे। महात्मा बुद्ध का मानना था कि विश्व की उत्पत्ति के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है वरन् कर्म-कारण की श्रृंखला से विश्व चलता रहता है। महात्मा बुद्ध कर्मवादी होने के कारण ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक विवादों में नहीं पड़े। उनका मानना था कि जिन विषयों के समाधान के लिए पर्याप्त प्रमाण न हों तो उनके समाधान की चेष्टा करना व्यर्थ है। अत: महात्मा बुद्ध को स्पष्ट तौर पर अनीश्वरवादी मानना उचित नहीं है। बल्कि यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ईश्वर सम्बन्धी वाद-विवाद में उलझना उचित नहीं समझा।
(9) वेदों में अविश्वास- महात्मा बुद्ध ने वैदिक कर्मकाण्डों तथा रीतियों का विरोध किया। उनका मानना था कि यज्ञ तथा बलि आदि व्यर्थ के आडम्बर हैं।
(10) जाति प्रथा का विरोध- महात्मा बुद्ध जाति प्रथा के भी विरोधी थे वह मनुष्यों की समानता में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि सभी मनुष्य समान है, जाति के आधार पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है।
(11) निर्वाण- महात्मा बुद्ध के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना आवश्यक है । निर्वाण प्राप्त करके ही मनुष्य जन्म-मरण के कष्टों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है।
बौद्ध धर्म का प्रसार (Expanslon of Buddhlsm)
बौद्ध-धर्म का प्रसार न केवल भारत में वरन विश्व के अनेक देशों में हुआ। बौद-धर्म शनैः-शनैः एक विश्व-धर्म बन गया और एशिया के अनेक देशों में आज भी विद्यमान है।
बौद्ध-धर्म अपने प्रादुर्भाव के थोड़े ही समय में समस्त भारत में फैल गया था। महात्मा बुद्ध के जीवनकाल में ही मगध, कौशल, कौशाम्बी जैसे शक्तिशाली राज्यों के राजाओं एवं प्रजा तथा लिच्छवि, मल्ल तथा शाक्य गणराज्यों की प्रजा ने भी धर्म अपना लिया था। मौर्य सम्राट अशोक और कनिष्क के शासनकाल में बौद्ध-धर्म, राज्य-धर्म हो गया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग और इत्सिंग के अनुसार बौद्ध-धर्म सातवीं शताब्दी के अन्त तक सारे देश में प्रचलित था। नवीं तथा दसवीं शताब्दी तक अनेक बौद्ध प्रतिमाएँ महोबा, एलोरा, नासिक, बाघ, अजन्ता तथा दक्षिण के अन्य प्रदेशों में प्राप्त हुई हैं। बारहवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म आंतरिक रूप में दुर्बल होने पर भी भारत में प्रचलित रहा। इसके पश्चात् मुस्लिम युग में बौद्ध धर्म भारत में विलुप्त प्राय: हो गया, परन्तु भारत की सीमाओं के पार वह फलता-फूलता रहा।
तीसरी शताब्दी ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म भारत के बाहर प्रचलित हुआ। भारत के बाहर मिस्र, मैसीडोनिया, सीरिया, बर्मा और श्रीलंका आदि देशों में बौद्ध धर्म प्रचारक भेजे गए। कनिष्क के शासनकाल में मध्य एशिया में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ। मध्य एशिया में काशगर, यारकन्द, खोतान, कूची, तुर्फान आदि स्थानों से प्राप्त अवशेषों से प्रमाणित होता है कि इन स्थानों में बौद्ध धर्म का खूब प्रचार था। मध्य एशिया से बौद्ध धर्म चीन में पहुंचा और वहाँ से उसका प्रसार कोरिया और जापान में हुआ। दक्षिण-पूर्वी एशिया में
हिन्द चीन, थाईलैण्ड, म्यांमार (बर्मा) आदि देशों में बौद्ध धर्म आज भी विद्यमान है।
बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण (Causes of Expansion of Buddhism)
बौद्ध धर्म का प्रसार अत्यधिक तीव्रता से न केवल भारत में वरन् विश्व के अनेक देशों में हुआ । विश्व में श्रीलंका, चीन, जापान, जावा, सुमात्रा आदि अनेक ऐसे देश थे जहाँ बौद्ध धर्म कोअपनाया गया। बौद्ध धर्म के तीव्र गति से प्रसार के प्रमुख कारण निम्नांकित थे-
(1) तत्कालीन प्रचलित धर्म- बौद्ध धर्म के जन्म से पूर्व भारत में वैदिक धर्म प्रचलित था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक वैदिक धर्म इतना अधिक अव्यवहारिक और जटिल हो गया था कि उसका पालन करना जनसाधारण के लिए कष्टकारी था। वैदिक धर्म के अंतर्गत किए जाने वाले यज्ञों और कर्मकाण्डों का जनमानस द्वारा विरोध किया जाने लगा था। ऐसे समय में ही बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे आडम्बर व जटिलता के स्थान पर व्यवहारिकता व सरलता थी। अतः जनसाधारण सहज रूप से बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होने लगा।
(2) बौद्ध धर्म की सरलता और व्यवहारिकता- बौद्ध धर्म में धार्मिक अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड की जटिलता, कठोर शारीरिक यातनाओं का विधान और यज्ञों का आडम्बर नहीं था। यह धर्म ऐसे नैतिक आचरणों और सदाचार के नियमों पर आधारित था, जो सभी को मान्य थे और व्यवहारिक थे, जिसके परिणामस्वरूप साधारण जनता बौद्ध धर्म की ओर अधिक आकर्षित हुई।
(3) बौद्ध धर्म की उदारता और सहिष्णुता- बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों में अधिक उदारता, आकर्षण और सहिष्णुता थी। उसमें धर्म प्रचार की कटु, उग्र मनोवृत्ति नहीं थी। इससे जनसाधारण अत्यधिक प्रभावित हुआ और बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हो गया।
(4) महात्मा बुद्ध का आकर्षक व्यक्तित्व- महात्मा बुद्ध का आकर्षक व्यक्तित्व भी बौद्ध धर्म के तीव्र गति से प्रसारित होने का प्रमुख कारण था। महात्मा बुद्ध ने अपने उच्च चरित्र एवं आकर्षक व्यक्तित्व से जनसाधारण के हदय को जीत लिया था। महात्मा बद्ध का व्यक्तित्व सहनशीलता, क्षमा, दया, स्नेह और करुणा का प्रतिरूप था। प्रसिद्ध विद्वान केनेथ ने भी बौद्ध धर्म के प्रसार का मुख्य श्रेय महात्मा बुद्ध के व्यक्तित्व को दिया है। उनके शब्दों में, "जब शुद्ध हृदय व दयाभाव एक ही व्यक्ति में निहित होते है, तो वह व्यक्ति श्रद्धा का पात्र और आराध्य बन जाता है। बौद्ध धर्म की सफलता का यह एक मुख्य कारण था।"
(5) लोकभाषा का उपयोग- महात्मा बुद्ध ने शास्त्रों और ब्राह्मणों की दुरूह संस्कृत भाषा का परित्याग क्र जनता की बोलचाल कि भाषा में उपदेश दिए धर्म चर्चा की, जिसके परिणामस्वरूप उनके उपदेशों को जनसाधारण ने सुगमता से ग्रहण किया तथा उनसे प्रभावित होकर लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बनने लगे।
(6) महात्मा बुद्ध के उपदेश और धर्म-प्रचार की रोचक शैली- महात्मा बुद्ध के उपदेश देने तथा अपने सिद्धान्तों का प्रचार करने की शैली बड़ी रोचक और प्रभावोत्पादक थी। उन्होंने धर्म प्रचार और उपदेश के समय न तो दार्शनिक बातों का उपयोग किया और न श्रोताओं को गहन विवादग्रस्त विषयों में डाला। उनके सिद्धान्त और उपदेश दैनिक जीवन से सम्बन्धित होते थे। अपने सिद्धान्तों को समझाने के लिए वह जिन उदाहरणों और उपमाओं का प्रयोग करते थे, उनका सीधा सम्बन्ध मनुष्य के दैनिक जीवन से होता था। महात्मा बुद्ध अपने उपदेशों में हास्य व व्यंग्य का भी प्रयोग करते, जिससे उसमें रोचकता आ जाती थी।
(7) मध्यम मार्ग का अनुसरण- महात्मा बुद्ध का मध्यम मार्ग भी उनके धर्म कीका एक कारण था। महात्मा बुद्ध ने एक ओर सांसारिक भोग-विलास का विरोध तो दूसरी ओर घोर तपस्या, शारीरिक यातनाओं, व्रत तथा उपवास का भी विरोध किया। उन्होंने दोनों पक्षों की अति का विरोध किया था, इसलिए जनसाधारण के लिए यह मध्यम माध्यम मार्ग सुगम था।
(8) राजकीय संरक्षण- बौद्ध धर्म के द्रुतगति से प्रसारित होने का एक प्रमुख कारण उसे राजकीय संरक्षण प्राप्त होना भी था। महात्मा बुद्ध के जीवन-काल में ही मगध, अवन्ति, कौशाम्बी और कोशल राज्यों के राजा उनके अनुयायी हो गये थे। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के बाद भी अनेक राज्यों और राजाओं ने बौद्ध को अपनाया था। मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अशोक ने स्वयं अपने महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को लंका भेजा था। इस प्रकार राजकीय संरक्षण के माध्यम से बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार का कार्य अत्यन्त सुगमता व तीव्रता के साथ हुआ।
(9) बौद्ध संघ- महात्मा बुद्ध केवल एक धर्म-प्रचारक ही नहीं थे, वरन उनमें संगठन की अपूर्व क्षमता भी विद्यमान थी। महात्मा बुद्ध यह भली-भांति जानते थे की संगठन के आभाव में किसी भी धर्म का विकास संभव नहीं है, अतः उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के लिए संघों की स्थापना की और उनके रहने के लिए मठों की स्थापना की, इन मठों ने बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण सहायता की।
(10) बौद्ध सभाओं का योगदान- बौद्ध धर्म के प्रसार में चार बौद्ध सभाओं ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इन बौद्ध सभाओं को 'बौद्धसंगीतियों' के नाम से भी जाना जाता है।
प्रथम बौद्ध संगीति महात्मा बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय उपरांत 483 ई.पू. में राजगृह में हुई। इस बौद्ध सभा की अध्यक्षता कस्सप ने की थी तथा इसमें पाँच सौ भिक्षुओं ने भाग लिया था। इस बौद्ध सभा में बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों को विनय पिटक और अभिधम्म पिटक नामक ग्रंथों में संकलित किया गया था। द्वितीय बौद्ध संगीति 383 ई. प.में वैशाली में आयोजित की गयी थी। इस बौद्ध सभा की अध्यक्षता मगध के शासक कालाशोक ने की थी, इस सभा में भिक्षुओं में उत्पन्न हए विवाद को दूर करने का प्रयत्न किया गया था। तृतीय बौद्ध संगीति मौर्य सम्राट अशोक के शासनकाल में हुई थी। इस बौद्ध सभा की अध्यक्षता तिस्स ने की थी, इस बौद्ध सभा में सुत्त पिटक नामक ग्रंथ की रचना हुई। अंतिम व चतुर्थ बौद्ध संगीति कुषाण वंशीय शासक कनिष्क के शासनकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में हुई थी। इस बौद्ध सभा की अध्यक्षता वासुमित्र नामक विद्वान ने की थी, इस बौद्ध सभा में बौद्ध धर्म की महायान शाखा को मान्यता प्रदान की गई तथा तीनों पिटकों पर टीकाएँ लिखी गई। इन बौद्ध सभाओं से भी बौद्ध धर्म का अत्यधिक प्रसार हुआ।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण (Causes of the Downfall of Buddhism)
बौद्ध धर्म दीर्घकाल तक भारत का ही नहीं अपितु एशिया का महत्वपूर्ण धर्म बना रहा, परन्तु कालान्तर में भारत में यह धर्म लुप्त प्रायः हो गया और एशिया में भी इसका प्रभाव क्षीण हो गया। इस धर्म के पतन के प्रमुख कारण निम्नांकित थे-
(1) बौद्ध धर्म के मूल दोष- बौद्धधर्म का प्रादुर्भाव और प्रचार एक सरल व व्यवहारिक धर्म के रूप में हुआ था परन्तु कालान्तर में बौद्ध धर्म विविध नियमों और निषेधों से परिपूर्ण हो गया था। जिन कुरीतियों व प्रथाओं का
महात्मा बुद्ध ने विरोध किया था, वे बौद्ध धर्म में भी आ गई थीं। बौद्ध धर्म मूर्ति-पूजा का विरोध करता था, किन्तु कालान्तर में महात्मा बुद्ध की ही पूजा होने लगी। महात्मा बुद्ध के जीवन-काल में धर्म का प्रचार लोक भाषा में किया जाता था, किन्तु बाद में बौद्ध धर्म का प्रचार संस्कृत में किया जाने लगा, अतः बौद्ध धर्म ने स्वतः ही
लोकप्रियता खोना प्रारम्भ कर दिया।
(2) बौद्ध धर्म का सम्प्रदायों में विभाजन- महात्मा बुद्ध द्वारा स्थापित बौद्ध धर्म पाँचवी शताब्दी तक 18 सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था, जिनमें हीनयान, महायान और वज्रयान सम्प्रदाय प्रमुख थे। इन सम्प्रदायों के विचारों में मतभेद थे । इन मतभेदों ने जनसाधारण के बौद्ध धर्म के प्रति विश्वास को नष्ट कर दिया।
(3) बौद्ध संघों में भ्रष्टाचार- बौद्ध धर्म के अंतर्गत बौद्ध-संघों की स्थापना बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से की गई थी। कालान्तर में यही बौद्ध-संघ बौद्ध धर्म के पतन का कारण बने। महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों को शुद्ध आचरण व सदाचार की शिक्षा प्रदान की थी। किन्तु शनैः-शनैः उनके अनुयायी चरित्रहीन हो गए। बौद्ध संघों में धन और स्त्रियों के प्रवेश करने से भ्रष्टाचार और विलासिता व्याप्त हो गयी। यह भ्रष्टाचार बौद्ध धर्म के बौद्धिक, नैतिक आध्यात्मिक पतन का कारण बना।
(4) ईश्वर में अविश्वास- बौद्ध धर्म का ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं था। कालान्तर में बौद्ध धर्म में बोधिसत्वों की उत्पत्ति और महायान सम्प्रदाय द्वारा उनको सक्रिय बनाने की चेष्टा तथा निर्वाण की विचारधारा में परिवर्तन भी बौद्ध धर्म को हिन्दू देवी-देवताओं के मुकाबले खड़ा नहीं कर सके । जनसाधारण के लिए हिन्दुओं के देवी-देवता अधिक आकर्षक थे, क्योंकि वे सदैव मनुष्य की सहायता के लिए तत्पर थे। इस कारण जनसाधारण के व्यवहारिक जीवन में बौद्ध धर्म सदैव दुर्बल रहा और हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान से उसकी यह दुर्बलता और अधिक स्पष्ट हो गई।
(5) हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान- बौद्ध धर्म के पतन में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान ने भी सहयोग दिया। मौर्य वंशीय शासकों के उपरान्त भारत में शुंग वंशीय व कण्व वंशीय राजाओं ने शासन किया, जो ब्राह्मण धर्म अर्थात् हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। अतः इन शासकों ने हिन्दू धर्म को संरक्षण दिया। इसी प्रकार गुप्त वंशीय शासक भी हिन्दू धर्म के अनुयायी थे, अतः उन्होंने हिन्दू धर्म को राजधर्म बनाया और संस्कृत भाषा को भी राजभाषा घोषित किया। इस प्रकार हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान से बौद्ध धर्म पतन की ओर अग्रसर होने लगा।
(6) राजकीय संरक्षण का अभाव- कुषाण वंश के शासन के पश्चात् अन्य राजवंशों ने बौद्ध धर्म को संरक्षण प्रदान नहीं किया। हर्षवर्धन व कुछ पाल शासकों के अतिरिक्त प्रायः अन्य सभी शासकों ने हिन्दू धर्म का पालन किया। अत: राजकीय संरक्षण के अभाव में बौद्ध धर्म का पतन प्रारम्भ हो गया ।
(7) हूणों तथा मुसलमानों के आक्रमण—पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् भारत में हणों के निरंतर आक्रमण होने लगे। जिन प्रदेशों पर इनके आक्रमण हुए, वहाँ उन्होंने बौद्ध-विहारों, मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इससे बौद्ध धर्म को गहरा आघात लगा। बारहवीं शताब्दी में तुर्कों ने भारत पर निरंतर आक्रमण करके बौद्ध-विहारों, मन्दिरों, चैत्यों, स्तूपों और शिक्षण संस्थाओं को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया तथा अनेक बौद्ध भिक्षुओं-भिक्षुणियों की हत्या कर दी । इसके परिणामस्वरूप बचे हुए बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियाँ तिब्बत, नेपाल आदि देशों में भागने पर विवश हुए। अतः बौद्ध धर्म भारत से विलुप्त प्रायः हो गया।
बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को देन (Contribution of Buddhism to the Indian Culture)
बौद्ध धर्म ने भारतीय संस्कृति की श्रीसम्पन्नता में वृद्धि की। भारतीय संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में बौद्ध धर्म ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। बौद्ध धर्म ने भारतीयों में अहिंसा, सहिष्णुता, परोपकार, दया व मानव कल्याण की भावनाओं को विकसित किया तथा उन्हें जाति प्रथा का विरोध करना सिखलाया। बौद्ध धर्म की भारतीय संस्कृति को देन विषय का अध्ययन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जाता है-
(1) सरल, सबोध और लोकप्रिय धर्म का प्रसार- बौद्ध धर्म की यह एक महान देन है कि भारत में सरल, सुबोध और विशुद्ध आचारवादी लोकप्रिय धर्म का प्रसार हुआ। इस धर्म को साधारण से साधारण व्यक्ति भी समझ सकता था और इसे अपना सकता था। इस धर्म का प्रमुख लक्ष्य सभी लोगों के दु:खों का निवारण करना और सभी को निर्वाण उपलब्ध कराना था।
(2) सामाजिक समानता- बौद्ध धर्म ने भारतीय समाज में प्रचलित जाति प्रथा, ऊंच-नीच और छुआ-छूत का विरोध किया । इससे समाज में , स्वतंत्रता और सामाजिक समानता, उदारता, सहनशीलता की भावनाएँ प्रसारित हुई।
(3) सहिष्णुता- बौद्ध धर्म ने सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया । महात्मा बुद्ध अपने धर्म-प्रचार में सदैव शान्त, सौम्य और विशाल हृदय रहते थे, उनमें कठोरता और कटुता नहीं थी। वह अन्य धर्मों की भी कभी निन्दा नहीं करते थे और
न ही लोगों पर अपना धर्म जबरदस्ती लादते थे। वे अपने विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार में बड़े ही उदार और सहिष्णु थे। इसीलिए बौद्ध संघों ने भी कालान्तर में सहिष्णुता की प्रवृत्ति अपनायी।
(4) साहित्यिक देन- बौद्ध धर्म ने भारतीय साहित्य के कोष में भी महत्त्वपूर्ण वृद्धि की। बौद्ध धर्म के विद्वानों द्वारा पालि और संस्कृत भाषा में बौद्ध-दर्शन और धार्मिक विचारधारा से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना की गयी। इसके साथ ही महात्मा बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर संस्कृत एवं जनभाषाओं में भी साहित्य लिखा गया। इन सबने भारतीय साहित्य को समृद्ध किया।
(5) दार्शनिक देन- भारतीय दर्शन के विकास में भी बौद्ध धर्म का अभूतपूर्व योगदान रहा, क्योंकि बौद्ध धर्म ने बौद्धिक तथा विचारों की स्वतंत्रता पर विशेष बल दिया था। बौद्ध विचारकों और दार्शनिकों ने तत्व ज्ञान की विविध समस्याओं पर स्वतंत्रतापूर्वक मनन और चिन्तन किया, जिसके परिणामस्वरूप दर्शन-शास्त्र के क्षेत्र में नवीन विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ तथा नवीन दार्शनिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने शून्यवाद और माध्यमिक दर्शन का प्रतिपादन किया। इनके अतिरिक्त विज्ञानवाद, प्रतीत्य-समुत्पाद, सर्वास्तिवाद, सौत्रान्तिक, अनित्यवाद और योगाचार आदि अन्य दार्शनिक विचारधाराएँ और प्रणालियाँ प्रारम्भ हुई। नागार्जुन, अश्वघोष, असंगवसुमित्रधर्मकीर्ति एवं दिग्नार आदि प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक थे, जिन्होंने बौद्ध दार्शनिक साहित्य का सृजन किया।
(6) कला के क्षेत्र में देन- बौद्ध धर्म की सर्वोत्कृष्ट अद्वितीय देन कला के क्षेत्र में है। बौद्ध धर्म के प्रभाव से वास्तुकला, चित्रकला और मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हुआ। गया का बौद्ध मंदिर, बौद्ध कला की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है। अजन्ता,एलोरा, बारबरा व बाघ की गुफाओं में बौद्धकालीन स्थापत्य कला व चित्रकला की अनुपम कृतियाँ हैं।
(7) विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार- भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रसार भी बौद्ध धर्म की प्रमुख देन है। वास्तव में बौद्ध धर्म प्रथम भारतीय धर्म था, जिसने देश की सीमाओं को पार कर विदेशों में अपना प्रभुत्व स्थापित किया था। बौद्ध धर्म के प्रचारक भारत से निकलकर श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, तिब्बत, चीन, जापान, स्याम, कम्बोडिया आदि दूर दूर के देशों में गए और भारतीय संस्कृति का प्रसार किया।
इतिहास- बौद्ध धर्म- महात्मा बुद्ध [BUDDHISM- LIFE SKETCH OF MAHATMA BUDDHA]
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